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सारे बजट राजनीति के साथ अर्थशास्त्र का संतुलन बैठाने की कवायद होते हैं. ग्रामीण भारत में व्याप्त गंभीर संकट और दिल्ली तथा बिहार में लगातार हुई बीजेपी की पराजय के दो खतरनाक सिरों के बीच खड़े वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इस बार इसमें थोड़ा बदलाव किया और राजनीति से अर्थशास्त्र को संचालित होने दिया. इस कवायद में 2016 का बजट ऐसा बना है कि उसे “जेटली से ज्यादा मोदी का” समझा जा रहा है. दुनिया भर के वित्त मंत्री हालांकि अपने प्रधानमंत्रियों के मंजूर किए बजट को ही तो पेश करते हैं. इस लिहाज से 2016 का बजट उनके लिए एक मौका था और उनके कंधे पर संकटग्रस्त कृषि क्षेत्र का भारी बोझ भी था, लिहाजा जेटली ने फिलवक्त “इंडिया” को थोड़ा पीछे रखकर इस बार बजट में “भारत” को संबोधित करने का फैसला किया.
बजट बनाने का एक मानक नुस्खा यह होता है कि पैसा एक जगह से निकालकर दूसरी जगह डाल दिया जाए. सभी बजट पैसों को इधर से उधर करने का अभ्यास ही होते हैं, या तो अमीर से गरीब की ओर या फिर इसका उलटा, इसलिए बजट-2016 को दक्षिणपंथी विघ्नसंतोषियों ने “रॉबिनहुड बजट” का नाम दिया है. वाम धारा का आरोप है कि गांवों को लेकर इस बजट में जो मुहावरेबाजी की गई है, वह गरीबी उन्मूलन के प्रति सरकार की वचनबद्धता के साथ बेमेल ठहरती है. ग्रामीण क्षेत्र के लिए बजटीय आवंटन को बढ़ाने के दावे को वे सिर्फ बड़बोलापन मान रहे हैं. यह इजाफा 2015-16 के आवंटन की तुलना में है. 2011 से पहले के बजटों में आवंटन इस बार से कहीं ज्यादा रहा था. उदार वामपंथियों का कहना है कि अगले पांच साल में खेतिहर समुदाय की आय दोगुना कर देने का वादा अवास्तविक है, क्योंकि गणितीय गणना करने पर यह सालाना 15 फीसदी निकलता है.
बजट के बाद अब भगवा सरकार अचानक गरीबों की हितैषी और किसान-प्रेमी बन गई है. बजट का यह जुआ अगर कारगर रहता है, तो यह कांग्रेस और वाम धड़ों के लिए बड़ी चोट होगा और ग्रामीण मतदाताओं के लिए लुभावना दांव साबित होगा. इस सियासी कायापलट के पीछे चुनावी राजनीति में वोट और सीटें बढ़ाने का नुस्खा है और सत्ताधारी दल होने के नाते इसका दबाव बीजेपी पर ज्यादा है क्योंकि पिछले दो चुनावों मे उसे हार का मुंह देखना पड़ा है. उसे डर है कि 2014 के आम चुनाव में उत्तर प्रदेश में उसका जो सशक्त चुनावी जनाधार कायम हुआ था, वह कहीं 2017 के विधानसभा चुनावों में सरक न जाए.
दूसरी बात, कृषि और ग्रामीण क्षेत्र पर ध्यान देकर जेटली ने एक अहम आर्थिक समस्या की ओर ध्यान देने की कोशिश की है, क्योंकि दो साल की मौसम की बेरुखी के कारण गांवों की हालत खस्ता है. यह आर्थिक कायापलट राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में जान फूंकने की जरूरत से भी पैदा हुआ है. वैश्विक मंदी के चलते भारत के निर्यात पर गहरा प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है.
जेटली ने बजट भाषण में इस नजरिए को सामने रखकर साफ शब्दों में कृषि और ग्रामीण गरीबों की अहमियत बताईः “हम इस सिद्धांत में विश्वास करते हैं कि सरकार का पैसा जनता का होता है और हमारा पावन कर्तव्य है कि हम उसे समझदारी के साथ लोगों के कल्याण पर खर्च करें, खासकर गरीबों और वंचितों के लिए.”
जेटली के आलोचकों ने बजट की कई बिंदुओं पर आलोचना की है लेकिन इसमें कृषि क्षेत्र पर दिए गए जोर के संबंध में वे कोई सवाल खड़ा नहीं कर पाए हैं. वास्तव में इस बजट को पिछले बजटों के ही जैसा यूपीए-3 का बजट करार देने की कांग्रेस के मनीष तिवारी और आनंद शर्मा की कोशिशों का उलटा असर हुआ. सचाई यह है कि पार्टी चुनावी लिहाज से रक्षात्मक मुद्रा में दिख रही है.
जेटली ने इन उपायों को करते हुए वित्तीय घाटा 3.5 फीसदी पर बनाए रखा है जो कि कॉर्पोरेट जगत के लिए एक चौंकाने वाली चीज है. जेपी मॉर्गन चेज में एशिया के मुख्य अर्थशास्त्री जहांगीर अजीज कहते हैं, “आधे से ज्यादा बाजार गिरावट की ओर था. ऐसे में खड़े होकर यह कहना कि मैं 3.5 फीसदी पर रुकता हूं, मुश्किल काम था. इससे सरकार की वचनबद्धता जाहिर हुई है कि वह व्यापक आर्थिक मोर्चे पर स्थिर है. वैश्विक अर्थव्यवस्था आज जितनी कमजोर है, ऐसे में इसी की जरूरत थी.”
कृषि को प्रोत्साहन
बजट में कृषि क्षेत्र को दी गई तरजीह पर सवाल पूछे जाने पर पूर्व कृषि सचिव सिराज हुसैन का कहना है कि जेटली के शब्दों में ही कहें तो कुछेक विचार परिवर्तनकारी हैं. वे कहते हैं, “राष्ट्रीय कृषि बाजार बहुत अच्छा विचार है. इसका प्लेटफॉर्म अप्रैल 2016 से सक्रिय होगा. इससे किसान को बेहतर मूल्य पाने में मदद मिलेगी. यहां उसे बिक्री के लिए खुली खिड़की मिलेगी जबकि पहले उसे स्थानीय एजेंट के भरोसे रहना होता था. यह खिड़की उसे राज्य भर में कृषि के एक एकीकृत बाजार तक ले जाएगी.”
इसका मतलब यह हुआ कि उत्तर प्रदेश के बहराइच में अगर कोई किसान अपना माल ऑनलाइन बेचना चाहता है तो इस अप्रैल से उसे यह सुविधा होगी कि वह इसे सुदूर सहारनपुर में बैठे किसी खरीदार को भी बेच सकेगा. उसकी अब भी राज्य के बाहर के ग्राहकों तक पहुंच नहीं है क्योंकि वास्तव में एक राष्ट्रीय कृषि बाजार का विचार साकार होने में थोड़ा वक्त लगेगा. हालांकि इसका क्रियान्वयन इस बात पर निर्भर करेगा कि राज्य सरकारें कैसे कृषि उत्पाद बाजार कमेटी कानून को संशोधित कर पाती हैं.
हुसैन के मुताबिक, बजट 2016 में एक और बड़ा विचार नाबार्ड के तहत गठित किए जाने वाले समर्पित दीर्घावधि सिंचाई कोष के लिए आवंटित 20,000 करोड़ रु. और भूजल रिचार्ज के लिए आवंटित 60,000 करोड़ रु. की राशि है तथा 28 लाख हेक्टेयर की वह भूमि है जिसे नई कृषि सिंचाई योजना के तहत लाया जाना है.
देश में सिर्फ 46 फीसदी खेती की जमीन पर सिंचाई की सुविधा है और बाकी जमीन मॉनसून के भरोसे है. पंजाब और हरियाणा में तो धान की खेती के कारण भूजल स्तर काफी नीचे जा चुका है. इसीलिए सिंचाई के नाम पर किया गया ज्यादा आवंटन कृषि उत्पादकता को बढ़ाने में चौतरफा सकारात्मक असर डालेगा.
इसी तरह प्रधानमंत्री सड़क योजना के तहत ग्रामीण सड़कों के लिए किया गया आवंटन, इन्फ्रास्ट्रक्चर और सामाजिक क्षेत्र में ज्यादा व्यय और विद्युतीकरण के लिए उच्चतर आवंटन मिलकर किसानों की जिंदगी पर सकारात्मक प्रभाव डालेंगे. एनडीए सरकार के तहत एक बड़े कृषि सुधार के रूप में बीमा के लिए किया गया ज्यादा आवंटन भी किसानों के कल्याण पर सकारात्मक असर छोड़ेगा, क्योंकि यह फसल खराब होने से जुड़े जोखिमों को कम करता है. सरकार को शेष प्रीमियम पर सब्सिडी देने की जरूरत होगी. प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत न्यूनतम प्रीमियम और फसल खराब होने पर अब तक का सबसे ज्यादा मुआवजा यूपीए सरकार के मुकाबले एक बड़ा सुधार है जिसके कार्यकाल में ग्रामीण क्षेत्रों में उच्च प्रीमियम बीमा लादने की कोशिश की गई थी.
कई जानकारों की मानें तो खेती से होने वाली आय को 2022 तक दोगुना करने का वित्त मंत्री का वादा अवास्तविक है. कृषि लागत और मूल्य आयोग के पूर्व अध्यक्ष अभिजित सेन भी यही मानते हैं. वे कहते हैं, “हो सकता है कि वित्त मंत्री की किस्मत साथ दे जाए लेकिन ऐसे दावे करना बचकानापन है. किस्मत की बात इसलिए क्योंकि दो साल लगातार सूखा रहने के बाद आम तौर से तीसरे साल भारी बारिश होती है.”
पांच साल में खेती से होने वाली आय के दोगुना होने का मतलब 2022 तक प्रत्येक साल इस आय में 15 फीसदी का इजाफा हुआ. कृषि क्षेत्र की समस्याओं के देखते हुए यह सपना नामुमकिन-सा लगता है. इसके अलावा, जैसा कि आरजेडी के नेता लालू प्रसाद यादव ने चुटकी ली, इसमें मानकर चला गया है कि “बीजेपी 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने जा रही है. यह एक और नामुमकिन सपना है जो पूरा होने नहीं जा रहा, चाहे वे कुछ भी कर लें.”
इसे इस तरह समझें कि कृषि पर इस सरकार को आज नहीं तो कल जोर देना ही था. अब वास्तव में ये लक्ष्य हासिल किए जा सकेंगे या नहीं और बड़ी बाजार केंद्रित योजनाओं में किए गए वादे पूरे हो पाएंगे या नहीं, यह तो अमल पर ही निर्भर करेगा-और यहीं पिछले 58 साल में देश में आई सारी सरकारें मात खाती रही हैं.
इन्फ्रास्ट्रक्चर पर जोर
कृषि क्षेत्र के अलावा बजट ने बुनियादी ढांचा क्षेत्र को भी प्रोत्साहन देने का काम किया है जहां पिछले साल के 1.9 लाख करोड़ रु. के मुकाबले इस बार व्यय को बढ़ाकर 2.2 लाख करोड़ रु. कर दिया गया है. इसमें से 97,000 करोड़ रु. सड़कों को आवंटित किए गए हैं, जिनमें ग्रामीण सड़कें भी हैं. बहाली और पुनर्जीवित करने के लिए 160 हवाई अड्डों और हवाई पट्टियों की पहचान की गई है. जलमार्गों के लिए अतिरिक्त फंड आवंटित किया गया है. बिजली उत्पादन को भी प्रोत्साहन दिया गया है जबकि लिग्नाइट और पीट जैसे कच्चे खनिजों पर सेस को दोगुना कर के 400 रुपया प्रति टन कर दिया गया है.
यह बजट विभिन्न परियोजनाओं में अटकी हुई पूंजी को निकालने के लिए एक सार्वजनिक उपयोगिता (विवाद निपटान) विधेयक और दिशा-निर्देशों की भी बात करता है जिसके तहत सार्वजनिक-निजी भागीदारी वाले रियायती अनुबंधों को नए सिरे से अंजाम दिया जाएगा. शोध फर्म इंडिया रेटिंग्स की चेतावनी है कि परियोजनाओं में तेजी तभी आ पाएगी जब इस विधायी ढांचे को जल्द अंतिम रूप दिया जाएगा.
इन्फ्रास्ट्रक्चर में ज्यादा सरकारी व्यय पूंजी की उत्पादकता को बढ़ाकर निजी निवेशों में भी इजाफा कर सकेगा. आइएमएफ के 2015 के एक अध्ययन से पता चलता है कि सार्वजनिक निवेश में हर एक रुपए के इजाफे पर निजी निवेश पहले साल में 60 पैसे, दूसरे साल में 30 पैसा और तीसरे साल में 17 पैसे बढ़ जाता है.
इन्फ्रास्ट्रक्चर को दिए गए इस प्रोत्साहन का व्यापक उद्देश्य दरअसल ग्रामीण क्षेत्रों में आवाजाही को बढ़ाकर शहरी केंद्रों में पलायन को सक्षम बनाना है. यह गांवों के शहरीकरण को भी प्रोत्साहित करेगा, जिसे मोदी के तहत गुजरात की सरकार “रिर्बनाइजेशन” कहती थी. इसका लक्ष्य गांवों को शहरों के बराबर बुनियादी ढांचा और सार्वजनिक सुविधाएं मुहैया करवाना है.
आवास को मजबूती देने के लिए विशिष्ट आवासीय परियोजनाएं (चार महानगरों में 30 वर्ग मीटर तक और दूसरे शहरों में 60 वर्ग मीटर तक के फ्लैट) शुरू करने वाली कंपनियों के मुनाफे पर 100 फीसदी की कर कटौती का ऐलान किया गया है तथा 60 वर्ग मीटर तक के किफायती मकानों पर सेवा कर में छूट दी गई है. अगर इसे सही से लागू कर दिया गया तो इससे सीमेंट की मांग बहाल हो सकती है.
भले ही सारा जोर सड़क निर्माण, सिंचाई, विद्युतीकरण और नए बंदरगाहों के निर्माण पर है, लेकिन शोध फर्मों का मानना है कि इनके लिए फंडिंग एक बड़ी समस्या बनकर सामने आएगी क्योंकि बजट में वैकल्पिक फंडिंग के तरीकों का अभाव है. सड़क, परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय के पूर्व सचिव विजय छिब्बर कहते हैं, “सरकार को इसके तरीके विकसित करने पड़ेंगे क्योंकि अगले साल जरूरी नहीं है कि तेल की कीमत नरम रहे और हम आरामदेह स्थिति में हों. आपको इन्फ्रास्ट्रक्चर पर अपना जोर कायम रखना होगा. ग्रामीण भारत में काफी हरकत हो रही है, लेकिन उन्होंने अब तक भौतिक ढांचे की बुनियादी चीजों को नहीं छुआ है, जो उन्हें अगले साल करना पड़ेगा. इसके लिए सब्सिडी पर सामने से हमला बोलना होगा.”
उत्पादन क्षेत्र दरकिनार
फरवरी के आरंभ में मुंबई में आयोजित “मेक इन इंडिया वीक” में मोदी, जेटली, परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी, कई केंद्रीय मंत्री, आला नौकरशाह वगैरह “सूट-बूट” वाले कारोबारियों और निवेशकों का आह्वान कर रहे थे कि वे भारत पर दांव लगाएं. महीने के अंत में बजट आते-आते सरकार का ध्यान कहीं और भटक गया है जिसने कई लोगों को चौंकाया है. टाटा कम्युनिकेशंस के चेयरमैन सुबोध भार्गव कहते हैं, “सरकार को निवेशकों के लिए अनुकूल माहौल बनाते हुए निवेश में वृद्धि पर ही अपना ध्यान केंद्रित रखना चाहिए था. यह करो या मरो वाला मौका था, इसलिए सरकार को कुछ कठोर उपाय लेकर सामने आने की जरूरत थी.”
बजट ऐसे समय में आया जब सरकार के खिलाफ कई मोर्चे एक साथ खुले हुए थे. निर्यात लगातार 14वें महीने गिरा है; कॉर्पोरेट क्षेत्र का प्रदर्शन धुंधला रहा है क्योंकि कई कंपनियों की बिक्री और मुनाफे में गिरावट दर्ज की गई है; बकाया कर्ज को लेकर आरबीआइ द्वारा जारी अनिवार्य प्रावधान के बाद सरकारी बैंकों ने भारी घाटा दर्शाया है; और एनपीए तथा तेल की गिरती वैश्विक कीमत से जुड़ी चिंताओं से बाजार में गिरावट आई है. जिंसों की गिरती कीमत, मांग बहाल होने की आशंकाओं और परिचालन में नियमित बदलावों के चलते कई उत्पादन कंपनियां बंद हो गईं. ऐसे में बजट शायद एक सुनहरा मौका था कि इन समस्याओं पर ध्यान दिया जाता और जीडीपी के मौजूदा 16 फीसदी के मुकाबले 2022 तक लक्षित 25 फीसदी तक उत्पादन को पहुंचाने के लिए बुनियाद रखी जाती, जिस प्रक्रिया में लाखों रोजगार पैदा होते.
जरूरी नहीं है कि बजट में उत्पादन नीति को संबोधित किया जाए, लेकिन कई लोगों को उम्मीद थी कि इस अहम क्षेत्र को लेकर कुछ और उपाय किए जाते. अपवाद स्वरूप 1 मार्च के बाद शुरू होने वाली नई उत्पादन इकाइयां हैं जिनके लिए कॉर्पोरेट कर कम करके 25 फीसदी पर ला दिया जाएगा जबकि पहले की तरह कोई और रियायत नहीं दी जाएगी. पांच करोड़ रु. के टर्नओवर तक की छोटी इकाइयों के लिए कर की दर को 30 फीसदी से घटाकर 29 फीसदी पर ला दिया गया है. देश का कारोबारी जगत सभी श्रेणियों में कॉर्पोरेट कर चरणबद्ध तरीके से 25 फीसदी तक लाए जाने की उम्मीद किए बैठा था. ऐसा नहीं हुआ, हालांकि जेटली ने कुछेक सामान, कच्चे माल, मध्यवर्ती सामान और यौगिकों पर सीमा और उत्पाद शुल्क की दर में बदलाव लाने का प्रस्ताव किया है.
उन्होंने जो नहीं किया वह तो फिर भी ठीक है, लेकिन जिस तरह से कारों पर उन्होंने इन्फ्रास्ट्रक्चर शुल्क लाद दिया है, वह मोटे तौर पर उत्पादन क्षेत्र और खासकर ऑटोमोबाइल क्षेत्र को नागवार गुजरा है. पेट्रोल, एलपीजी और सीएनजी से चलने वाली छोटी कारों पर एक फीसदी का उपकर, 1500 सीसी से नीचे वाली चार मीटर से कम लंबी डीजल कारों पर 2.5 फीसदी का उपकर और अन्य उच्च पावर वाली गाडिय़ों तथा एसयूवी पर 4 फीसदी का उपकर. देश की सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी मारुति सुजुकी के चेयरमैन आर.सी. भार्गव कहते हैं, “उत्पादन क्षेत्र में सरकार के उठाए कदम, खासकर ऑटोमोबाइल क्षेत्र में, उसकी नीति के साथ मेल नहीं खाते.” उत्पादन क्षेत्र में ऑटो की हिस्सेदारी 47 फीसदी है और उन्हें लगता है कि प्रदूषणकारी प्रकृति के आधार पर कारों पर कर लगाना प्रतिकूल साबित हो सकता है. इसमें एक अच्छी बात यह छिपी हुई है कि गांवों पर जो जोर दिया गया है, वह वहां कार और दोपहिया वाहनों के नए ग्राहक बनाएगा और ग्रामीण इलाकों में वाहनों की मांग बढ़ेगी.
पिछले करीब एक दशक से उत्पादन क्षेत्र की वृद्धि गतिरोध का शिकार रही है और सरकार “मेक इन इंडिया वीक” में जो दिखाना चाह रही थी, उसके उलट उसने यह स्वीकार कर लिया है कि बड़े निवेश रातोरात नहीं होंगे क्योंकि वैश्विक स्तर पर मांग कमजोर है. क्रिसिल में मुख्य अर्थशास्त्री धर्मकीर्ति जोशी कहते हैं, “दुनिया भर में सुस्त मांग और अत्यधिक क्षमता का मतलब है कि उत्पादन क्षेत्र ऊपर की ओर धीरे-धीरे ही बढ़ेगा.” इस साल हालांकि मॉनसून अच्छा रहा तो अतिरिक्त रोजगार पैदा हो सकते हैं. इसमें ग्रामीण प्रोत्साहन और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर दिया गया जोर भी काम आएगा.
बैंकिंग में आधे-अधूरे उपाय
बैंकिंग एक अन्य क्षेत्र था जिसमें सरकार को तत्काल ध्यान देने की जरूरत थी. फिलहाल बैंकों का चार लाख करोड़ रु. का कर्ज डूब चुका है. सार्वजनिक क्षेत्र के 29 बैंकों ने वित्त वर्ष 2013 से 2015 के बीच कुल 1.14 लाख करोड़ रु. का डूबा हुआ कर्ज माफ कर दिया जो इसके पहले के नौ साल में माफ किए गए कर्जों से कहीं ज्यादा रहा. पिछले तीन वित्त वर्ष में भारतीय स्टेट बैंक ने 40,084 करोड़ रु. का कर्ज माफ किया. इसके बाद पंजाब नेशनल बैंक रहा जिसने 9,531 करोड़ रु. का कर्ज माफ किया और इंडियन ओवरसीज बैंक ने 6,247 करोड़ रु. कर्ज माफ किया. अब आरबीआइ द्वारा जारी अनिवार्य एसेट क्वालिटी समीक्षा दिशा-निर्देशों के तहत जब बैंकों को कमजोर एसेट को एनपीए में डालना पड़ा है, तो उसका असर उनके शेयरों पर हुआ है जो मुंह के बल गिर गए हैं.
बैंकिंग क्षेत्र के इस संकट के चलते सार्वजनिक क्षेत्र के कई बैंकों ने कर्ज देना बंद कर दिया जिसके कारण अहम परियोजनाएं अटक गईं. दिसंबर 2015 तक 10.7 लाख करोड़ रु. की परियोजनाएं वित्तपोषण, भूमि अधिग्रहण और मंजूरी के अभाव के चलते अटकी पड़ी थीं. संकट बढ़ता देख सरकार ने सरकारी बैंकों के पूंजीकरण के लिए 25,000 करोड़ रु. आवंटित करके एक हद तक इस समस्या पर ध्यान देने की कोशिश की है, हालांकि यह राशि पिछले बजट में आवंटित किए गए 70,000 करोड़ रु. का ही हिस्सा है. अब भी यह अपर्याप्त है क्योंकि बैंकों को बेसेल-3 मानक पर खरा उतरने के लिए 1.8 लाख करोड़ रु. की राशि चाहिए. ये मानक 2008 के कर्ज संकट के बाद वित्तीय पतन को थामने के लिए बनाए गए थे.
बैंकों के लिए एक अच्छी खबर उनके एकीकरण संबंधी घोषणा में है. जेटली ने बजट भाषण में कहा, “हम लोग आनुषंगिक इकाइयों के विलय, मूल बैंक के साथ आनुषंगिकों के विलय, मजबूत बैंक में कमजोर बैंक के विलय पर सोचने को तैयार हैं बशर्ते 52 फीसदी हिस्सेदारी हमारे पास रहे.” क्रिसिल ने एक नोट में स्वीकार किया था कि 25,000 करोड़ रु. का आवंटन जहां पूंजीकरण के लिए “अपर्याप्त” है और यह “वृद्धि को वित्तपोषित करने की बैंकों की क्षमता को चोट पहुंचाएगा,” वहीं एकीकरण और बैंक बोर्ड ब्यूरो जैसे कदम शायद प्रशासन और सक्षमता में कुछ सुधार ला सकेंगे. लंबित दिवालिया संहिता, एसेट पुनर्निर्माण कंपनियों के लिए मानकों में रियायत तथा विवादों के निपटारे व पीपीपी अनुबंधों को दोबारा किए जाने संबंधी नए नियम भी एसेट क्वालिटी से जुड़े मसलों को लंबे समय में संबोधित कर पाने में सक्षम होंगे.
कोटक महिंद्रा बैंक के चेयरमैन उदय कोटक कहते हैं, “बैंकों के पूंजीकरण के मसले पर मैं और ज्यादा की उम्मीद कर रहा था लेकिन मुझे विश्वास है कि आरबीआइ और सरकार के बीच कोई आपसी योजना तैयार है.” कोटक को उम्मीद है कि आरबीआइ ब्याज दरों में कटौती करेगा. जनवरी 2015 के बाद से केंद्रीय बैंक ने 125 आधार अंकों की कटौती ब्याज दरों में की है. और कटौती होती है तो कंपनियां ज्यादा कर्ज ले सकेंगी और अधिक रोजगार पैदा कर सकेंगी.
हाल के महीनों में परेशान करने वाला जो एक रुझान उभरकर सामने आया है, वह है रोजगार सृजन में आ रही गिरावट. लेबर ब्यूरो के अर्थव्यवस्था के सात अहम क्षेत्रों-कपड़ा, धातु, ऑटो, आभूषण और रत्न, परिवहन, आइटी/बीपीओ और खनन-में किए गए एक सर्वे के मुताबिक, कपड़ा और ऑटो क्षेत्र में अप्रैल से जून 2015 के बीच 43,000 नौकरियों की कटौती हुई है जबकि जनवरी से मार्च 2015 के बीच इन क्षेत्रों में 64,000 नौकरियां पैदा हुई थीं. इन्हीं क्षेत्रों में अप्रैल से दिसंबर 2014 के बीच 4,60,000 नौकरियां पैदा हुई थीं. इससे यह संकेत मिलता है कि मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद कंपनियों ने पहले तो निवेश में जल्दीबाजी की, फिर उन्होंने अपने पैर पीछे खींचे और आखिरकार वे ऐसे बिंदु पर पहुंच गईं जहां से पीछे हटने का सिलसिला शुरू हो गया.
इस रुझान ने मोदी सरकार को भले ही परेशान किया होगा लेकिन बजट में शहरी रोजगारों के लिहाज से कुछ खास नहीं है, सिवाय इसके कि छोटे और मझोले उद्यमों में 15,000 रु. तक के वेतन वाले नए कर्मचारियों के प्रोविडेंट फंड में नियोक्ता का हिस्सा सरकार अदा करेगी. इस योजना को सही दिशा में उठाया गया एक कदम माना जा रहा है लेकिन कुछ जानकारों की दलील है कि कई कंपनियां इस सब्सिडी का लाभ उठाने के लिए सामने नहीं आएंगी. इससे बेहतर विकल्प टैक्स में ज्यादा रियायत देना हो सकता था. इसके अलावा उनकी एक दलील यह भी है कि इस सब्सिडी से छोटे स्तर की नौकरियां ही पैदा होंगी. सड़कों का निर्माण भले ही रोजगार पैदा कर सके, लेकिन इसमें भी ज्यादातर रोजगार उपकरणों के इस्तेमाल पर निर्भर करेंगे और उस रफ्तार पर भी, जिससे परियोजनाएं मंजूर की जाएंगी और जमीन का अधिग्रहण होगा.
कृषि अर्थशास्त्री और द रिपब्लिक ऑफ हंगर की लेखिका प्रोफेसर उत्सा पटनायक कहती हैं कि किसी अन्य क्षेत्र में प्रोत्साहन की बजाए कृषि क्षेत्र में उतना ही प्रोत्साहन कहीं ज्यादा रोजगार पैदा करता है, खासकर इसलिए क्योंकि उत्पादन क्षेत्र में बड़े पैमाने पर मशीनीकरण होता है, जिससे रोजगार अपेक्षाकृत कम पैदा होते हैं. वे कहती हैं, “कृषि क्षेत्र में रोजगार की संभावना उत्पादन क्षेत्र से कहीं ज्यादा है. इसीलिए अगर किसी सरकार को रोजगार की समस्या हल करनी हो तो कृषि पर खर्च बढ़ाना सबसे बेहतर दांव हो सकता है.” इस लिहाज से देखें तो यह बजट सही पटरी पर जाता दिखता है.
अंत में सवाल बचता है कि क्या “अच्छे दिन वाकई आएंगे? हो सकता है कि इस बजट में कुछ सही कदम उठाए गए हों जबकि कुछ दूसरे मसलों पर संतुलन बैठाने की कोशिश की गई हो, लेकिन अधिकतर चीजें क्रियान्वयन और उन ताकतों पर निर्भर करेंगी, जो सरकार के नियंत्रण से बाहर हैं. कृषि क्षेत्र का पुनर्जीवन और वित्तीय लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अच्छा मॉनसून और तेल की कम कीमत निर्णायक कारक हैं. सारे बजट आखिरकार संतुलन की ही एक कवायद होते हैं, लिहाजा पलड़ा किसी भी ओर झुक सकता है.