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बुंदेलखंड में सूखाः झुलसी उम्मीदें

बुंदेलखंड के कई इलाकों में जल संकट जल युद्ध के स्तर तक पहुंच गया है, लेकिन फौरी उपाय के नाम पर सरकारों के हाथ खाली हैं और जनता सूखे की मार झेलने के लिए मजबूर है.

पीयूष बबेले
  • नई दिल्ली,
  • 18 अप्रैल 2016,
  • अपडेटेड 5:53 PM IST

आठ-नौ अप्रैल की रात जालौन जिले के सिद्धार्थनगर में कुदरत शाह और उनकी पत्नी रजिया खातून के कच्चे मकान में आग लग गई. घर वाले जान बचाकर भागे. शोर मचा तो पड़ोसी भी बाहर निकल आए. जब तक कोई कुछ जुगत भिड़ाता तब तक बगल के घर में भी आग फैल गई. बेबस लोग पांव पटककर रह गए. आखिर आग लगने पर कोई कुआं तो खोद नहीं सकता. इस मुहल्ले के छह के छह हैंडपंप छह महीने पहले ही जवाब दे चुके थे. सूखे से छटपटाते बुंदेलखंड में कुदरत शाह के घर पर कुदरत का यह ऐसा कहर था, जिसका तोड़ लोकतांत्रिक भारत की सरकारों के पास नहीं है.

क्योंकि अगर कोई तोड़ होता तो सरकारें यह जरूर बतातीं कि उत्तर प्रदेश के बड़े और मझोले 98 बांधों में से जब 34 बांध सिर्फ बुंदेलखंड में बने हैं, तो यहां सन् 1987 के बाद से यह 19वां सूखा क्यों पड़ रहा है? पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश की सरकार भी बताती कि उसकी 750 छोटी-मझोली और बड़ी बांध परियोजनाओं में से बुंदेलखंड में बनी 50 से अधिक परियोजनाएं मानसून की बेरुखी से चारों खाने चित्त आखिर कैसे हो गईं?

ऐसा नहीं है कि सरकारें बताती नहीं हैं या इस बार बताएंगी नहीं. लेकिन शांत रस में लिखी और आल्हा की तर्ज पर सुनाई गई उनकी बातों से पहले बुंदेलखंड और मध्य प्रदेश के दूसरे सूखा प्रभावित जिलों में जल संकट की गहराई का अंदाजा लगाने की कोशिश करते हैं. जैसे, ललितपुर जिले के 70 टीएमसी क्षमता वाले विशाल राजघाट बांध में सिर्फ 6 टीएमसी पानी बचा है. माताटीला बांध में सिर्फ दो टीएमसी पानी है. माताटीला जैसा बांध सूखने की कगार पर इसलिए पहुंचा क्योंकि पीने के लिए सुरक्षित पानी भी सिंचाई के लिए छोडऩा पड़ा था. झांसी के बाकी बांध सुकवां ढुकवां, पारीछा, डांगरी, सपरार, खपरार, पहाड़ी, लहचूरा और बड़वार या तो सूख चुके हैं या सूखने की कगार पर हैं. जालौन में 17 पेयजल परियोजनाएं बंद हो गई हैं. बांदा में केंद्र की स्वजल धारा परियोजना बंद करनी पड़ी है. चंदेल कालीन तालाबों के लिए मशहूर महोबा शहर का सबसे बड़ा तालाब मदनसागर तीन महीने पहले सूख चुका है. शहर को पानी सप्लाई करने वाले उर्मिल बांध और बेलाताल कस्बे के इसी नाम के तालाब में 25-25 दिन का पानी बचा है.

महोबा के थानों का रोजनामचा उठाकर देखें तो बहुत-सी फौजदारी की ऐसी एफआइआर दिख जाएंगी, जहां लड़ाई पानी को लेकर हो गई. उधर, मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ शहर में लोगों को पांच दिन में एक दिन पानी मिल रहा है. शिवपुरी में आठ दिन में एक दिन पानी आ रहा है. अशोकनगर के आस-पास के गांवों में हैंडपंपों का पानी उतर गया है. भोपाल से सटे रायसेन जिले में तीन दिन में एक दिन पानी की सप्लाई हो रही है. और सबसे विचलित करने वाली तस्वीरें आदिवासी बहुल डिंडोरी जिले से आ रही हैं, जहां वाकई चुल्लू भर पानी के लिए लोग रस्सी बांध कर गहरे कुएं तक में उतर जाते हैं.

ऐसा तो हो नहीं सकता कि कुएं, हैंडपंप और बांधों का पानी रातोरात इस कदर उतर गया हो कि न तो जलते घर को बचाने के लिए पानी बचा और न प्यास बुझाने के लिए. बांदा के पर्यावरण प्रहरी आशीष सागर सवाल करते हैं, “आखिर जब अप्रैल 2015 में ही मौसम विभाग ने पूर्वानुमान जता दिया था कि लगातार दूसरी बार मॉनसून रूठने वाला है तो तब से अब तक साल भर में कोई ठोस इंतजाम क्यों नहीं हो पाया?” दस राज्यों में सूखे के हालात पर चार महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने जवाब तलब कर लिया था, उसके बावजूद सरकारें सूखे से निबटने की कवायद तब कर रही हैं, जब इससे निबटने का असल समय हाथ से निकल चुका है.

वैसे, सरकारें जो उपाय कर रही हैं, उनकी बानगी देखिए. रजिया खातून का घर जिस रात जला उसके अगले दिन 10 अप्रैल को दिल्ली में प्रधानमंत्री के निर्देश पर प्रधानमंत्री कार्यालय में बुंदेलखंड, विदर्भ और मराठवाड़ा के हालात पर उच्च स्तरीय बैठक हुई. गृहमंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता वाली उच्च स्तरीय कमेटी ने सिफारिश की कि उत्तर प्रदेश को राष्ट्रीय आपदा राहत कोष (एनडीआरएफ) से 1,304 करोड़ रु. सूखा राहत के रूप में दिए जाएं. राज्य सरकार हक्रतेभर के अंदर इस रकम को किसानों के बैंक खाते में जमा करा दे. सुनने में यह घोषणा बहुत ही कारगर लगती है, लेकिन इसमें कई परतें हैं. यूपी सरकार इस घोषणा को ठीक वैसा नहीं मानती जैसा इसे केंद्र सरकार बता रही है. इस सवाल पर कि यह पैसा कब तक किसानों के खाते में पहुंच जाएगा मुख्यमंत्री कार्यालय ने इंडिया टुडे को भेजे जवाब में आंकड़ों की यह भाषा समझाई, “फसलों की क्षति और सूखे की समस्या के तात्कालिक समाधान के लिए भारत सरकार को 2,057.79 करोड़ रु. का सूखा मेमोरेंडम भेजा गया था. इसके सापेक्ष केंद्र से 934.32 करोड़ रु. की रकम मिली जो किसानों को भेजी जा रही है.” मोटे तौर पर उत्तर प्रदेश सरकार यह कह रही है कि 2015 के सूखे के लिए जो रकम मांगी गई थी, गृह मंत्री की तरफ से घोषित ताजा रकम उसी की भरपाई करेगी. प्रधानमंत्री कार्यालय की मीटिंग के चार दिन बाद 14 अप्रैल को मुख्यमंत्री कार्यालय के सूत्रों ने बताया, “हफ्तेभर में पैसा किसानों के खाते में पहुंचाने का दावा अव्यावहारिक है.”

और यही सवाल जब बुंदेलखंड में झांसी के जिलाधिकारी अजय कुमार शुक्ला से इंडिया टुडे ने पूछा तो उन्होंने कहा, “मुझे अभी तक यह स्पष्ट रूप से नहीं पता कि सूखा राहत का कितना पैसा झांसी को मिलेगा. जब राशि की स्पष्ट जानकारी मुझे मिल जाएगी, तभी हम कुछ कह पाएंगे.” यानी जो पैसा हफ्तेभर में किसानों के खाते में पहुंचाने का ढिंढोरा पीटा गया, वह पैसा असल में कहां तक पहुंचा यह चार दिन बाद डीएम तक को नहीं पता, तो किसान को इसका क्या पता होगा? इसके बावजूद बुंदेलखंड के किसान नेता शिवनारायण परिहार कहते हैं, “आप हफ्तेभर के लिए क्यों परेशान हैं, अगर साल भर बाद भी पैसा आ गया तो किसान को इस “तत्काल राहत” से तसल्ली होगी.” यह तसल्ली है या तंज, यह तो वही जानें.

तो यह हालत है जनवरी से साफ नजर आने वाले फसल संकट पर सरकारी पहल की. अब वापस लौटते हैं पीने के पानी के वर्तमान संकट की तरफ, जिसके हल के लिए शहर और गांव चातक हुए जा रहे हैं. इस बारे में उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव ने केंद्र की उच्च स्तरीय समिति को बता दिया कि इससे निबटने के पर्याप्त उपाय कर लिए गए हैं. खबर लिखे जाने तक इस संकट से निबटने का जो वाकई जमीनी उपाय किया गया, उसमें 10 करोड़ रु. की रकम से 440 टैंकर की खरीद और 18 करोड़ रु. से 2,560 नए हैंडपंप लगाने की बात शामिल है. इसके अलावा  राज्य सरकार बड़े पैमाने पर तालाबों की खुदाई का दावा भी कर रही है. पीएमओ वाली मीटिंग में भी राज्य सरकार से 37 पाइप पेयजल परियोजनाओं को तेजी से पूरा करने को कहा गया. इसके लिए पैकेज के तहत 264 करोड़ रु. 31 मार्च को नीति आयोग ने जारी किए थे.

बहरहाल, राज्य सरकार ने तो सूखा राहत के लिए कुछ तात्कालिक उपाय कर भी लिए, लेकिन केंद्र का हाथ इस मामले में तंग है. पीएमओ की बैठक में मौजूद रहे केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय के सचिव शशि शेखर ने बुंदेलखंड के बारे में इंडिया टुडे को बताया, “तालाबों की डीसिल्टिंग, ड्रिप इरिगेशन, कम पानी में होने वाली फसलें और वाटर शेड मैनेजमेंट पर हम जोर दे रहे हैं.” यह पूछने पर कि यह सब बातें तो नाकाम बताए जाने वाले 7,200 करोड़ रु. के बुंदेलखंड पैकेज में भी थीं, शेखर ने कहा, “पैकेज सुविचारित दस्तावेज था, लेकिन इस पर ढंग से अमल नहीं हुआ.” हालांकि वे यह नहीं बता सके कि पैकेज में कौन-सी कमियां रह गई थीं और उसके लिए किसे दोषी माना गया है? इन सब तथ्यों के अभाव में मोदी सरकार किस तरह मनमोहन सरकार से बेहतर ढंग से बुंदेलखंड में काम करा लेगी. संसद में बुंदेलखंड का प्रतिनिधित्व करने वाली जल संसाधन मंत्री के विभाग के सचिव शशि शेखर ने इतना ही कहा, “संघीय ढांचे में काम कराने की जिम्मेदारी राज्य की ही है. हम दीर्घकालिक उपाय बता सकते हैं. सूखे से निबटने के फौरी उपाय तो राज्य को ही करने होंगे.”

यहीं पूर्व ग्रामीण विकास राज्य मंत्री और पिछली सरकार में बुंदेलखंड के प्रतिनिधि प्रदीप जैन आदित्य सवाल करते हैं, “राहुल गांधी ने बुंदेलखंड पैकेज दिया था, लेकिन यूपी और एमपी की सरकारों ने भ्रष्टाचार कर जनता को धोखा दिया. तब मोदी इसे हमारी नाकामी कहते थे, लेकिन आज वे हवाई वादों के अलावा कुछ नहीं कर पा रहे.” लेकिन इन आरोप-प्रत्यारोप और सूखे के लंबे तजुर्बे के बाद बुंदेले एक बात समझ गए हैं कि सरकारों से बड़े वादे और मामूली मदद मिलेगी. आने वाले ढाई-तीन महीने उनके लिए बेहद कठिन हैं. अब तो जब मॉनसून आएगा तभी उनके दिलों की और घरों की आग बुझेगी. -साथ में शुरैह नियाज़ी और संतोष पाठक

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