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अप्रैल की 9 तारीख को 60 वर्षीय रिटायर्ड आइपीएस अधिकारी डी.जी. वंजारा जब गांधीनगर लौटे तो उनका जोरदार स्वागत हुआ. 2004 में इशरत जहां और 2005 में सोहराबुद्दीन शेख के फर्जी एनकाउंटर के आरोप में गिरफ्तार वंजारा जेल में नौ साल बिताने के बाद घर लौटे थे. जेल में पूरी कैद के दौरान उन्होंने अपनी मुसीबत के लिए 'गंदे राजनेताओं' को जिम्मेदार ठहराया था और उन्हें 'असली देशद्रोही' करार दिया था. उनका आरोप था कि उनको और उनके सहयोगियों को उन राजनेताओं के खेल का मोहरा बनाया गया था.
इसके बावजूद उन्होंने संकेत दिया है कि वे आखिरकार राजनीति में जाएंगे. 11 अप्रैल को अहमदाबाद में आरएसएस की एक बैठक में उनकी मौजूदगी इसी ओर इशारा करती है. उस बैठक में उनसे हाथ मिलाने के लिए आरएसएस के स्वयंसेवकों में होड़-सी लगी थी. एक स्वयंसेवक ने तो उनके पैर ही छू लिए. तीन दिन बाद डॉ. भीमराव आंबेडकर की 125वीं जयंती के अवसर पर पुराने अहमदाबाद में आंबेडकर की मूर्ति के पास दलित नेताओं के अलावा कुछ कांग्रेसी नेता भी उन्हें देखते ही उनके इर्दगिर्द जमा हो गए थे. वहां वे लोग आंबेडकर को श्रद्धांजलि देने के लिए आए थे. वंजारा वहां विभिन्न दलित संगठनों के दर्जन भर टेंटों में भी गए.
गुजरात में 2017 के विधानसभा चुनावों से ठीक पहले राजनैतिक मंच पर वंजारा का लगभग निश्चित समझा जाने वाला आगमन इस वक्त ज्यादा अहम है, जब राज्य में बीजेपी की पकड़ कमजोर होती दिख रही है. हालांकि वे राजनीति में उतरने के पर्याप्त संकेत दे चुके हैं, लेकिन उन्होंने अभी तक इस बारे में खुलकर कुछ नहीं बताया है. उनसे जब पूछा गया कि क्या वे किसी राजनैतिक पार्टी में जाएंगे तो उनका जवाब था, ''देखते हैं किस्मत मुझे कहां ले जाती है.'' लोगों को लगता था कि वे बीजेपी से नाता तोड़ लेंगे, क्योंकि 1 सितंबर, 2013 को साबरमती जेल से भेजे गए अपने इस्तीफे में उन्होंने कहा था, ''इस सरकार और उसके मुख्य रणनीतिकार श्री अमित भाई शाह पर भरोसा करने की कोई वजह नहीं है, जिन्होंने खुद को पूरी तरह आत्मकेंद्रित साबित कर दिया है.'' लेकिन जब गुजरात बीजेपी प्रमुख विजय रूपानी से पूछा गया कि क्या वंजारा बीजेपी में शामिल होंगे, तो उन्होंने पहले कहा कि इस तरह की कोई योजना नहीं है, लेकिन फिर जल्दी से यह भी जोड़ दिया, ''भविष्य के बारे में कौन बता सकता है?''
गुजरात आतंकनिरोधक दस्ते (एटीएस) के प्रमुख रहे वंजारा को 24 अप्रैल, 2007 को सोहराबुद्दीन के एनकाउंटर मामले में मुख्य आरोपी के तौर पर गिरफ्तार कर लिया गया था. वे 2012 तक अहमदाबाद की साबरमती जेल में बंद थे, उसके बाद मुकदमे को मुंबई में स्थानांतरित कर दिया गया और उन्हें नवी मुंबई में तलोजा सेंट्रल जेल में भेज दिया गया. 2013 में उन्हें इशरत जहां मामले में गिरफ्तार किया गया और वापस साबरमती जेल भेज दिया गया. 2014 में मुंबई हाइकोर्ट ने उन्हें इस मामले में जमानत दे दी. फिर अगले साल इशरत जहां मामले में भी उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया, लेकिन उन्हें अपने गृह राज्य लौटने की इजाजत नहीं दी गई.
इस साल अप्रैल में सीबीआइ अदालत ने इस प्रतिबंध को खत्म कर दिया और वंजारा नौ साल बाद गांधीनगर के अपने घर वापस लौटे. अपनी वापसी पर वंजारा ने कहा, ''अब मेरी दूसरी पारी शुरू हो चुकी है. मैंने पहली पारी में फील्डिंग की थी, लेकिन दूसरी पारी में मैं बल्लेबाजी करूंगा और जो लोग मेरे पीछे पड़े थे, वे फील्डिंग करेंगे. मेरा मतलब राष्ट्रविरोधियों, देशद्रोहियों और राजनैतिक षड्यंत्रकारियों से है, जिन्होंने मेरे खिलाफ काम किया.''
गुजरात में वंजारा की लोकप्रियता साफ महसूस की जा सकती है. वे जिस दिन लाल रंग की टी-शर्ट और सफेद रंग की पैंट पहने हुए हवाई अड्डे पर उतरे, उनके पूर्व सहयोगियों, परिवारवालों और उनके समुदाय के सदस्यों, बीजेपी, आरएसएस तथा विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) के कार्यकर्ताओं के अलावा सामान्य लोगों की भारी भीड़ उनका स्वागत करने के लिए मौजूद थी. उन लोगों ने वंजारा पर गुलाब की पंखुडिय़ों की बौछार कर दी, कुछ ने तिरंगा फहराया और भारत माता की जय के नारे लगाए. इसके बाद उन्हें गांधीनगर के टाउन हॉल ले जाया गया. वहां गुजरात के डीजीपी पी.पी. पांडे ने कहा कि यह रामनवमी है, लेकिन विजयदशमी जैसा प्रतीत हो रहा है. पांडे खुद भी इशरत जहां के एनकाउंटर मामले में आरोपी हैं. पांडे ने 'जेल में की गई वंजारा की कठोर तपस्या और देशविरोधियों के खिलाफ उनके कामों के लिए' उन्हें राजर्षि की उपाधि तक दे दी.
वंजारा के समर्थक उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखते हैं, जिसने एक बड़े मकसद के लिए बलिदान किए हैं. समर्थकों का कहना है कि उन्होंने अगर कांग्रेस के दबाव में मोदी के खिलाफ गवाही दी होती तो वे बड़ी आसानी से जेल से बाहर आ सकते थे. उन्हें बस इतना ही कहना था कि इशरत और सोहराबुद्दीन को खत्म करने का आदेश गुजरात के मुख्यमंत्री ने दिया था. उनके इस बयान की काफी अहमियत होती, क्योंकि उस समय गृह विभाग मोदी के पास था और शाह गृह राज्यमंत्री थे.
राजनैतिक विश्लेषक विद्युत ठाकर कहते हैं, ''वंजारा की लोकप्रियता से इनकार नहीं किया जा सकता, न सिर्फ गुजरात में बल्कि देश के दूसरे हिस्सों में भी. उन्हें राजनीति के लिबास में देशविरोधी ताकतों की साजिश के शिकार के तौर पर देखा जाता है.'' आरएसएस कार्यकर्ता और व्यापारी हरेश ठक्कर भी इस बात से सहमति जताते हैं, ''गुजरात पुलिस के कुछ अधिकारियों को फुसलाकर रची गई यूपीए की राजनैतिक साजिश का शिकार होने के अलावा वंजारा कट्टरपंथी मुसलमानों या देशविरोधी तत्वों की साजिश का भी शिकार थे.'' वे इस बात का भी इशारा करते हैं कि तत्कालीन यूपीए सरकार के साथ अदला-बदली के सौदे के तौर पर सोहराबुद्दीन मामले में सीबीआइ जांच का आदेश जल्दबाजी में दिया गया था.
मानवाधिकार कार्यकर्ता और अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य इस बात से बिल्कुल भी इत्तेफाक नहीं रखते हैं. नागरिक अधिकार कार्यकर्ता गौतम ठाकर कहते हैं, ''राजनीति में वंजारा का प्रवेश भारतीय राजनीति को निचले स्तर पर ले जाएगा. एक खलनायक राजनैतिक नायक बन जाएगा.''
वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश शाह भी कुछ ऐसा ही मानते हैं, ''सार्वजनिक जीवन में गिरते स्तर को लेकर मेरा डर सही साबित हो गया है.'' वंजारा अब भी इशरत जहां और सोहराबुद्दीन मामले में आरोपी हैं. वे सोहराबुद्दीन मामले के 28 आरोपियों और इशरत जहां मामले के करीब दर्जन भर आरोपियों में शामिल हैं. वंजारा का दावा है कि आपराधिक दंड संहिता की धारा 197 के तहत सीबीआइ को कहा जाना चाहिए कि वह उनके और दूसरे पुलिस अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा न चलाए क्योंकि उन्होंने 'देशहित' में काम किया था. उन्होंने इंडिया टुडे से कहा, ''यूपीए सरकार ने 2013 में इशरत जहां मामले में इंटेलिजेंस ब्यूरो के चार अधिकारियों पर मुकदमा चलाने के लिए सीबीआइ को अनुमति नहीं दी थी. हमारे मामले में भी ऐसा ही करना चाहिए. पूरी दुनिया जानती है कि हम राजनैतिक साजिश का शिकार थे. इसलिए इसे एक राजनैतिक, लेकिन कानूनी रूप से मजबूत जवाब की जरूरत है.''
जेल में रहते हुए वंजारा ने जेल के साथी कैदियों को हिंदू दर्शन का पाठ पढ़ाया था. उन्होंने गुजराती में तीन पुस्तकें भी लिखीः विजय पथ, सिंह गर्जना और रण टंकार. आखिरी पुस्तक कुछ कविताओं का संकलन है, जिसका विमोचन 2012 में गुजरात के डीजीपी शब्बीर हुसैन खांडवावाला ने किया था.
उनका मौजूदा संकल्प खुद को सार्वजनिक जीवन के लिए समर्पित करना है. जिस दिन वे गांधीनगर पहुंचे उसी दिन उन्होंने कहा, ''आज से मैं सार्वजनिक जीवन में हूं. जब (पुलिस) नौकरी में था तो मैंने देशविरोधियों और आतंकवादियों को निशाना बनाकर देश की सेवा की. जब तक मैं और मेरे सहकर्मी जेल नहीं गए थे, तब तक गुजरात में शायद ही कोई आतंकवादी हमला हुआ. अब मैं सार्वजनिक जीवन में रहकर लोगों की सेवा करूंगा.'' लेकिन यह सब इस बात पर निर्भर करेगा कि अतीत उनका पीछा छोड़ता है या नहीं.