
सूखा. इस शब्द से शुष्क और दरार से फटी जमीन और ऊपर चिलचिलाता बादलों विहीन आकाश दिमाग में कौंधता है. बारिश गड़बड़ हो जाती है तो नदी-नाले, गांव के कुएं और यहां तक कि नलकूप सूख जाते हैं. खेत धूल से भरे कटोरों में बदल जाते हैं. पेड़-पत्तियां, लताएं कुम्हला जाती हैं और पशु-पक्षी प्यासे भटकते हैं. यह काली छाया इन गर्मियों में हकीकत बन गई है और इसने पहले ही चिंताजनक शक्ल अख्तियार कर ली है.
पूरे हिंदुस्तान में विनाशकारी सूखा दस्तक दे रहा है और पहले से ही संकट झेल रही मध्य पट्टी के ऊपर कहर बरपाने की धमकी दे रहा है.
जानवर भी पानी के लिए झगड़ रहे हैं. जून के पहले पखवाड़े में मध्य प्रदेश के देवास में पुंजापुरा के पास जंगल में बंदरों के एक समूह ने नदी के थोड़े से बचे पानी पर कब्जा कर लिया और दूसरे गुट को पानी नहीं पीने दिया, जिससे एक दर्जन से ज्यादा बंदरों की मौत हो गई.
बगीचा डेरा का उदाहरण लीजिए, जो बुंदेलखंड इलाके के बांदा जिले में पिलानी तहसील की एक बस्ती है.
निषाद समुदाय का छह बरस का कालू, जो भूख और प्यास से हलकान हो चुका है, केन नदी की जलधारा पर पानी की तलाश में आया है.
नदी का तल इतना उथला हो चुका है कि वह सीधे अपना मुंह डालकर पानी पीने की कोशिश करता है—बिल्कुल जानवरों की तरह.
मगर पी नहीं पाता. कालू कभी स्कूल नहीं गया और पूरा दिन पालतू जानवरों को चराते हुए यहां-वहां घूमता रहता है. 427 किमी लंबी केन यमुना की सहायक नदी है, जो मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सीमाओं से सटे इलाकों से पूरे बुंदेलखंड में बहती है. बुंदेलखंड की जीवनरेखा मानी जाने वाली केन तकरीबन सूख चुकी है और ज्यादा से ज्यादा कीचड़ भरे उथले नाले की तरह दिखाई देती है. बांदा में केन के पानी पर पुलिस का पहरा बैठा दिया गया है. बुंदेलखंड में ही पड़ोस के महोबा जिले में चंद्रावल नदी भी सूख चुकी है और यही हाल इलाके के 1,385 में से 912 तालाबों का है.
राजस्थान के सरहदी जिलों बाड़मेर और जैसलमेर के झुलसते ग्रामीण इलाकों से गुजरते हुए एक सदमा पहुंचाने वाला नजारा सामने आता है: मृत मवेशियों के कंकालों से भरे ट्रक—ये उन मवेशियों के कंकाल हैं जो पीने के पानी और चारे के अभाव में मर गए. राजस्थान में नौ और बुंदेलखंड में सात जिले सूखा प्रभावित घोषित किए जा चुके हैं.
उत्तर प्रदेश में विंध्य इलाके के सोनभद्र जिले का भी यही सच है. जैसलमेर के एडिशनल डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट भगीरथ बिश्नोई कहते हैं कि 95 फीसदी जैसलमेर सूखे की चपेट में है. वे कहते हैं, ''नतीजा यह है कि आबादी इस कदर दूर-दूर तक फैल गई है कि चारे और पानी की राहत पहुंचाते वक्त लॉजिस्टिक यानी इन चीजों को पहुंचाने के साधनों का इंतजाम बड़ा मुद्दा बन गया है.''
बारिश पर निर्भर राज्यों में अलार्म
महाराष्ट्र के बीड जिले में महिलाओं का एक झुंड सूखते जा रहे कुओं में 40 फुट नीचे तक उतरने को मजबूर है ताकि तल से निकालकर बचा-खुचा पानी ला सके. औरंगाबाद जिले का एक वीडियो वायरल हुआ है जिसमें दो औरतें पानी के ट्रक के पीछे बदहवास दौड़ती और टैंकर से रिसते पानी को अपने बर्तनों में इकट्ठा करने की कोशिश करती दिखाई दे रही हैं. बारिश पर निर्भर महाराष्ट्र ने अपने 37 में से 31 जिलों को सूखा प्रभावित घोषित कर दिया है. राज्य के बांधों में सिर्फ 7 फीसदी पानी बचा है. सबसे बदतरीन मार मराठवाड़ा इलाके और उत्तरी महाराष्ट्र में पड़ी है जहां बांध 99 फीसदी खाली हो चुके हैं.
हालात इतने चिंताजनक हो चुके हैं कि महाराष्ट्र की करीब 12 करोड़ आबादी के एक-तिहाई लोग गंभीर पानी संकट का सामना कर रहे हैं.
राज्य में देवेंद्र फडऩवीस की अगुआई वाली एनडीए सरकार ने सूखा प्रभावित 14 जिलों के किसानों को सिंचाई की किट मुफ्त देने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता दिवंगत नानाजी देशमुख के नाम से एक योजना लॉन्च की थी. सरकार यह भी दावा करती है कि उसने नुक्सान का शिकार हुई फसलों के लिए किसानों को मुआवजे के तौर पर 5,000 करोड़ रु. का भुगतान किया है.
किसानों के बिजली के बिल और छात्रों की परीक्षा फीस माफ कर दी गई है. बैंकों को हिदायत दी गई है कि वे किसानों से जबरन कर्ज की वसूली न करें और जरूरत पडऩे पर उन्हें नए कर्ज भी दें. महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव अक्तूबर में होने हैं.
पड़ोस के एक और बारिश पर निर्भर राज्य कर्नाटक में 30 में से 23 जिले आधिकारिक तौर पर सूखे से प्रभावित घोषित कर दिए गए हैं, जिनमें बेंगलूरू ग्रामीण जिला भी है.
राज्य भीषण पानी संकट की चपेट में है. इसमें उत्तर के हैदराबाद-कर्नाटक और बॉम्बे-कर्नाटक के छह-छह जिले, दक्षिणी कर्नाटक के पांच जिले, मैदान इलाके के तीन जिले और मलनाड इलाके के दो जिले शामिल हैं. पानी की कमी 2,200 गांवों और साथ ही राजधानी बेंगलूरू में सिर चढ़कर बोल रही है.
राज्य के 13 बड़े जलाशय अपनी क्षमता के केवल पांचवें हिस्से से काम चला रहे हैं. रबी की फसलों की पैदावार में 26 फीसदी की गिरावट आई है. जनता दल (सेक्यूलर)-कांग्रेस सरकार सूखे से तकरीबन 32,335 करोड़ रुपए के नुक्सान का अंदाज लगा रही है. सरकार ने तय किया है कि 2018 में उसने किसानों के जो 45,000 करोड़ रु. के कर्ज माफ किए थे, उन्हें मौजूदा साल में भी बढ़ा दिया जाएगा. सरकार ने केंद्र से सहायता की मांग की है.
कर्नाटक में बदहवासी का आलम यह है कि जल संसाधन मंत्री डी.के. शिवकुमार और धार्मिक मामलों के मंत्री पी.टी. परमेश्वर नाइक ने 6 जून को शृंगेरी के श्री ऋष्य शृंगेश्वर स्वामी के मंदिर में वर्षा के देवता को खुश करने के लिए पूजा-उपासना की. राज्य सरकार ने मंदिरों से भी कहा है कि वे अपने फंड से रकम खर्च करके अच्छे मॉनसून के लिए प्रार्थनाएं करें.
हालत उन जिलों में कोई बेहतर नहीं है जो बारिश पर निर्भर नहीं हैं. बिहार में 38 में से 23 जिले नवंबर 2018 में सूखा प्रभावित घोषित कर दिए गए थे. फरवरी में इस सूची में एक और जिले को जोड़ा गया. झारखंड में 24 में से 18 जिले पिछले साल नवंबर में सूखा प्रभावित घोषित कर दिए गए थे. सभी राज्य सरकारें मॉनसून के रुखसत होने के बाद नवंबर में आने वाले साल के लिए सूखा प्रभावित जिलों का अनुमान लगाती हैं. अलबत्ता, इन्हें बजट सत्र के दौरान और आपात स्थितियों में अक्सर संशोधित किया जाता है.
असली संकट तो आने वाला है
देश के पश्चिमी, दक्षिणी और उत्तर के प्रमुख राज्यों में मॉनसून पूर्व वर्षा, जो अगर होती है तो अमूमन मार्च और मई के बीच कुछ समय के लिए छिटपुट होती है, नहीं हुई और यह पूरा क्षेत्र भीषण शुष्क गर्मी से जूझ रहा है. निजी मौसम एजेंसी स्काईमेट के प्रबंध निदेशक जतिन सिंह कहते हैं, ''यह 2012 के बाद पिछले 65 वर्षों में दूसरा सबसे अधिक सूखा प्री-मॉनसून सीजन रहा है. 2012 में सबसे कम बारिश, उम्मीद का केवल 31 प्रतिशत, हुई थी.'' इस साल फरवरी के अपवाद के साथ जुलाई 2018 के बाद से पूरा समय बारिश की कमी वाला रहा है. दूसरे शब्दों में, 2018-19 में देश के 66 प्रतिशत क्षेत्र या तो कम वर्षा या फिर अत्यधिक कम बारिश वाले रहे हैं.
पश्चिम में राजस्थान, महाराष्ट्र और गुजरात सर्वाधिक प्रभावित राज्य रहे हैं उसके बाद दक्षिण में कर्नाटक और तेलंगाना, उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड और झारखंड और बिहार के कुछ हिस्से रहे. जतिन सिंह कहते हैं, ''औसत अवधि (एलपीए) में सात प्रतिशत की कमी के साथ इस बार मॉनसून कमजोर रहने वाला है.
यदि इसमें 3 प्रतिशत की और कमी आ गई तो इसका मतलब होगा कि इस बार सूखा पडऩे वाला है. इस साल अब तक मॉनसून 45 फीसद कम रहा है.
जून में इसमें यदि थोड़ी भी और कमी आ गई तो फिर इसकी भरपाई मुश्किल होगी.'' स्काईमेट ने एक चेतावनी जारी करते हुए कम से कम अगले एक पखवाड़े तक फसलों की बुआई नहीं करने का सुझाव दिया है.
चेतावनी में में कहा गया है कि मॉनसून की शुरुआत हल्की होगी और खासकर आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उत्तरी कर्नाटक और मध्य भारत में इसकी प्रगति सुस्त रहेगी.
केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) ने 18 मई को सूखे से जुड़ी एडवाइजरी जारी की जिसमें महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु में पानी के विवेकपूर्ण उपयोग का आह्वान किया गया.
सूखे की एडवाइजरी तब जारी की जाती है जब देश के जलाशयों में जलस्तर पिछले दशक के जल भंडारण के आंकड़ों के औसत से 20 प्रतिशत कम होता है.
यह एडवाइजरी राज्यों को यथासंभव पानी के उपयोग को प्रतिबंधित करने और इसका इस्तेमाल केवल पीने के प्रयोजनों के लिए करने के लिए कहना है, जब तक कि बांध फिर से भर नहीं जाते. केंद्रीय जल आयोग देश के 91 प्रमुख जलाशयों की निगरानी करता है.
सरकारी उदासीनता
तेलंगाना में आधिकारिक उदासीनता ने सूखे की समस्या को बढ़ा दिया है. नाम न छापने की शर्त पर राज्य के एक वरिष्ठ नौकरशाह स्वीकार करते हैं, ''सरकार में कोई भी सूखे और पानी की कमी के बारे में बात नहीं कर रहा है. हम इसे रबी मौसम के दौरान पानी की किल्लत कहते हैं, जब पानी के स्रोत सूख जाते हैं.''
अखिल भारतीय किसान सभा के उपाध्यक्ष एस. मल्ल रेड्डी का दावा है कि तेलंगाना सरकार ने राज्य में सूखे का सामना कर रहे 585 मंडलों में से 310 को सूखा प्रभावित नहीं होने की घोषणा करने का फैसला किया. रेड्डी ने कहा, ''अगर राज्य सरकार ने इन्हें सूखाग्रस्त घोषित कर दिया होता, तो उसे सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए केंद्र सरकार की तरफ से सहायता मिल सकती थी और सूखे से निपटने के कदम उठाए जा सकते थे.''
वारंगल ग्रामीण जिले के मोगदुमपुर गांव में पांच एकड़ में खेती करने वाले एक 38 वर्षीय किसान नारन नाइक की भी कुछ ऐसी ही राय थी. पानी की आपूर्ति इतनी खराब है कि नाइक ने पानी की तलाश में अपने खेत के कुएं और 20 फुट खोदकर उसे 60 फुट तक गहरा कराया. नाइक कहते हैं, ''मैं इतना ही कर सकता था. खरीफ सीजन के दौरान कपास की पहली फसल गुलाबी बोलवॉर्म कीट के कारण बर्बाद हो गई थी; मक्के की दूसरी फसल में प्रति एकड़ अपेक्षित 50 क्विंटल की जगह केवल 25 क्विंटल प्रति एकड़ पैदावार हुई क्योंकि पानी की जरूरी आपूर्ति नहीं हो सकी थी.''
तेलंगाना में कुल फसली क्षेत्र के 70 प्रतिशत हिस्से में कपास, धान और मक्का जैसी ज्यादा पानी लेने वाली फसलें उगाई जाती हैं और लिहाजा पानी की कमी का असर साफ दिख रहा है. मुख्य रूप से वर्षा पर आधारित राज्य अब जल संकट को दूर करने के लिए गोदावरी पर कलेश्वरम परियोजना जैसे बड़े पैमाने पर सिंचाई परियोजनाओं के निर्माण की कोशिश कर रहा है.
हालांकि, केंद्रीय जलशक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत का दावा है कि भारत के बांधों में पर्याप्त पानी है और पानी की कमी की आशंकाएं निराधार हैं. लेकिन सरकार के अपने थिंक-टैंक, नीति आयोग की तरफ से जारी की गई चेतावनी उनके दावे की धज्जियां उड़ा देती है. जून 2018 में आयोग की एक शोध रिपोर्ट में चेतावनी दी गई थी, ''भारत अपने इतिहास के सबसे खराब जल संकट से गुजर रहा है. 2020 तक, 21 शहरों के भूजल संसाधन खत्म हो जाने की आशंका है. 2030 तक देश में पानी की मांग दोगुनी हो जाएगी. इसके परिणामस्वरूप, लाखों लोगों के लिए पानी की कमी हो जाएगी.''
हालांकि, शेखावत देश के हर नुक्कड़ पर नल का पानी पहुंचाने का वादा करते हैं. वे कहते हैं ''भारत में नल के जल की उपलब्धता केवल 18 प्रतिशत है. हम 2024 तक इसे 100 प्रतिशत करने का इरादा रखते हैं.'' केंद्र सरकार लगभग 14 करोड़ घरों को स्वच्छ पेयजल प्रदान करने की योजना पर काम कर रही है.
विशेषज्ञों का कहना है कि भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार की तरफ से 2016 में जारी की गई सूखा नियमावली आधिकारिक रूप से सूखा घोषित करने की प्रक्रिया को लंबी और जटिल बना देती है. नतीजतन, कई मामलों में आधिकारिक तौर पर सूखे की घोषणा की ही नहीं जाती. इसका मतलब है कि राहत के उपाय जैसे कि पर्याप्त पेयजल, रियायती डीजल, सिंचाई के लिए बिजली, मनरेगा के तहत निर्धारित कार्य के अधिक दिन, तब नहीं बढ़ाए जाते जब इनकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है.
तथ्यों से मुंह मोड़कर यह दावा करने की बजाए कि भारत में पानी की कमी नहीं है, सरकार को इस समस्या को स्वीकारते हुए जल संरक्षण के प्रति गंभीरतापूर्ण प्रयास करने की जरूरत है. वर्षा जल संचयन, जलग्रहण क्षेत्रों और बांधों के निर्माण जैसे समाधानों पर समयबद्ध अमल की जरूरत है. जल संकट को पूरी तरह खत्म भले न किया जा सके, कम तो किया ही जा सकता है.
—साथ में किरण डी. तारे, अमरनाथ के. मेनन, रोहित परिहार, अरविंद गौड़ा और अमिताभ श्रीवास्तव
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