
हरियाणा के रोहतक जिले में एक आदमी अपने पुराने दोस्त से कहता है, जो कि एक जाट को ड्राइवर की नौकरी पर रख रहा है, ''भाईसाहब, आपको कोई ज्यादा भरोसे वाला बंदा लेना चाहिए.'' उसे लगता है कि इसमें खतरा है. उसकी आवाज में उदासी है. लेकिन हरियाणा के ऑटो किंग कहे जाने वाले जगमोहन मित्तल जवाब में कहते हैं कि उनके पास कोई और विकल्प भी तो नहीं है. जाट बहुल आबादी वाले हरियाणा के दक्षिणी जिलों में मित्तल के मारुति-सुजुकी के कई शोरूम हैं.
रोहतक में दिल्ली बाइपास के पास मित्तल का नेक्सा का नया शोरूम खुला ही था कि 18 फरवरी को उद्घाटन के दो दिन बाद ही वह जाट आंदोलन के उपद्रवियों की भेंट चढ़ गया. (शहर से कुछ दूर शोरूम के गोदाम में 200 कारें और एसयूवी डिलिवरी के लिए तैयार खड़ी थीं, लेकिन सब जलकर खाक हो गईं.) दुख और बेचैनी को मित्तल की आंखों में अब भी पढ़ा जा सकता है. वे कहते हैं, ''मैंने तकरीबन 5,000 लोगों को नौकरी पर रखा है, लेकिन इसके पहले कभी किसी की जाति के बारे में नहीं सोचा.'' जाट आरक्षण की मांग को लेकर बवाल मचा और अब मित्तल के लिए सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह हो गया है कि जिस आदमी को नौकरी पर रख रहे हैं, उसकी जाति क्या है. वे मानो आश्चर्य से भरे हुए कहते हैं, ''तकरीबन 70 फीसदी लोग जाट हैं.'' हालांकि अभी जाटों की छंटनी करने का उनका कोई इरादा नहीं है, लेकिन हिंसा ने जितना विकराल रूप लिया और जैसे मनोहर लाल खट्टर की सरकार उसे रोकने में नाकाम रही, मित्तल इस दिशा में सोच तो सकते हैं.
74 साल के गुलशन राय टंडन बिजली विभाग के रिटायर्ड कर्मचारी हैं और सोनीपत के गोहाना में रहते हैं. हाल की हिंसक घटनाओं ने उनकी बचपन में देखे भारत के विभाजन की हिंसक यादें ताजा कर दी हैं. वे याद करते हैं कि किस तरह उनके परिवार को पाकिस्तान में अपने पुश्तैनी घर को छोड़कर भागने के लिए मजबूर होना पड़ा था. वे कहते हैं, ''ऐसा लग रहा था कि 1947 का वक्त लौट आया है. वही दहशत, असुरक्षा, आग के हवाले कर दिए गए घर, दुकानें.'' इस साल फरवरी में उन्होंने अपने बेटे से कहा, ''अब फिर घर छोड़कर जाने का वक्त आ गया है.''
गोहाना के सिविल रोड के कोने पर मोहित टंडन की किताबों की दुकान थी, जो मानो किसी दैवी करिश्मे के कारण बच गई. टंडन कहते हैं, ''याद करके रूह कांप जाती है.'' लेकिन जिन लोगों की रोजी-रोटी का जरिया ही आग के हवाले कर दिया गया, उनके मुकाबले 42 साल के मोहित कहीं ज्यादा भारी कीमत चुका रहे हैं. वे अपनी पहचान का इकलौता घर और गोहाना छोडऩे के लिए मजबूर हैं. वे कहते हैं, ''अगर मैं यहां रहने का भी फैसला करूं तो भी मेरे बच्चों को उस डर और दहशत से छुटकारा नहीं मिलेगा.'' वे उस दिन को याद करते हैं, जब हिंसा और लूटपाट के बाद उनका आठ साल का बेटा पहले दिन स्कूल गया. वे कहते हैं, ''आप कल्पना कर सकते हैं कि स्कूल में बच्चे जलाई गई दुकानों के बारे में बात कर रहे थे...बच्चों के बीच में जाट बनाम अन्य की लकीर खिंच गई थी.''
इसलिए मोहित ने वहां से पलायन का फैसला किया है. फिलहाल उनका परिवार किराए का एक मकान लेकर करनाल में रहेगा. उन्हें उम्मीद है कि करनाल अपेक्षाकृत ज्यादा सुरक्षित होगा. मोहित कुछ अरसा गोहाना में ही रहेंगे क्योंकि ''एक जगह से उखाड़कर नई जगह बिजनेस शुरू करना इतना आसान नहीं है.''
फिलहाल मुकेश के पास अपनी दुकान में दोबारा नया माल भरने के लिए बैंक से लिए 30 लाख रु. के कर्ज के अलावा खट्टर सरकार से मिली मुआवजे की कुछ रकम है, जो सरकार ने एक करोड़ रु. से कम के नुक्सान वाले दुकानदारों को दी है. मुकेश बताते हैं कि स्थानीय जाटों को इस बात से भी नाराजगी है कि सरकार ने हमारे नुक्सान की आंशिक भरपाई करने की कोशिश की है. वे जोर देकर पूछते हैं, ''अब यहां पर रुकने का भी क्या मतलब है?''
सिविल रोड पर ही वायु सेना के पूर्व अधिकारी 45 वर्षीय जयपाल शर्मा रहते हैं. हालांकि वे आर्थिक रूप से ज्यादा बेहतर स्थिति में हैं, लेकिन उनका अवसाद कम नहीं है. वे जोर देकर कहते हैं, ''यह कोई आरक्षण के लिए हुआ आंदोलन नहीं था.
हालांकि हमलावर जाट थे, लेकिन वे सब दरअसल लुटेरे थे. वे आए और बिल्कुल निरंकुश अंदाज में पूरे विश्वास के साथ जो जी में आया, किया. पुलिस और सेना ने उंगली तक नहीं हिलाई.''
शर्मा दो महत्वपूर्ण तथ्यों की ओर इशारा करते हैं: पहला यह कि भीड़ ने चुन-चुनकर ब्राह्मण, बनिया और पंजाबियों की दुकानों को निशाना बनाया, जबकि सचाई यह है कि इनमें से कोई भी समुदाय बतौर पिछड़ा समुदाय आरक्षण लेने की जाटों की मांग के खिलाफ कभी नहीं था. और दूसरी बात यह कि उन्होंने 20 फरवरी को दोपहर बाद हमला किया. सब जानते थे कि प्रशासन ने कफ्र्यू लगा दिया है और इस वक्त कोई भी आदमी अपनी दुकान को बचाने के लिए वहां पर मौजूद नहीं होगा.
शर्मा और गोहाना के दुकानों के मालिक कहते हैं कि उस दहशत का साया अब तक हटा नहीं है. वे कहते हैं, ''हम उन लोगों के बीच रहने के लिए मजबूर हैं, जिन्होंने हम पर हमला किया और वे सब कितनी आसानी से छूट गए.'' वे बताते हैं कि तीन महीने गुजर जाने के बावजूद पुलिस ने कुछ मामूली गिरफ्तारियां की हैं और लूटे गए सामान की भी अब तक कोई बरामदगी नहीं हुई है.
मिठाई की एक दुकान के मालिक संजय मेंहदीरत्ता कहते हैं कि स्थानीय गांववाले गोहाना में उनके भाई की होंडा टू व्हीलर की एजेंसी से लूटा हुआ स्कूटर लेकर खुलेआम घूमते रहते हैं. शर्मा कहते हैं, ''पुलिस उन्हें देखती रहती है, लेकिन उन्हें पकडऩे के लिए कुछ नहीं करती. उन्हें गिरफ्तार करना पुलिस की प्राथमिकता है ही नहीं. और ऐसे में अपराधी खुलेआम बेखौफ घूम रहे हैं. उन्हें लगता है कि अगर एक बार वे ऐसा करके बच सकते हैं तो दोबारा भी ऐसा कर सकते हैं.'' उनकी आवाज में गहरी उदासीनता है. वे बताते हैं, ''लुटेरों का साथ देने वाले बहुत-से लोग अभी भी हमें धमकी देते रहते हैं.''
प्रकाश सिंह इंडिया टुडे से कहते हैं, ''इस आंदोलन का मकसद और इरादा आरक्षण था और वही मुद्दा कहीं पीछे छूट गया. वे विस्तार से बताते हैं कि फरवरी की हिंसक घटनाओं की जमीन एक साल पहले से ही तैयार हो रही थी. वे आरक्षण के कड़ाहे में खौल रहे नेताओं के विद्वेषपूर्ण वक्तव्यों और सार्वजनिक भाषणों का उदाहरण देते हैं. जैसे कि अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति के प्रमुख यशपाल मलिक, हवा सिंह सांगवान और मुखर ओबीसी नेता कुरुक्षेत्र के सांसद राजकुमार सैनी.
प्रकाश सिंह आश्चर्यचकित हैं कि इस खतरनाक जातीय उबाल की तरफ राज्य के अधिकारियों का ध्यान क्यों नहीं गया. ऐसा भाषण (उन्होंने अपनी रिपोर्ट में देवनागरी में उन भाषणों का उल्लेख किया है) देने वाले हर व्यन्न्ति के खिलाफ कानूनन मुकदमा चलाया जा सकता है. वे स्वीकार करते हैं कि आज की तारीख में हरियाणा के सामाजिक ताने-बाने में आए इस बिखराव को सिर्फ एक ही तरीके से ठीक किया जा सकता है और वह है दोषियों की शिनाख्त और उनकी सजा. इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी. दमदार पूर्व पुलिस अधिकारी प्रकाश सिंह जोर देकर कहते हैं कि ''सिर्फ अधिकारी नहीं, बल्कि हर वह व्यक्ति, जो दोषी है.''
रोहतक की महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रह चुके 55 वर्षीय राजेंद्र चौधरी ने एक गैरसरकारी जनसमूह के साथ आठ हिंसा प्रभावित जिलों का दौरा किया. वे मानते हैं कि यह पलायन की शुरुआत है, जहां गैर-जाट लोग जाट बहुत इलाकों से पलायन कर जाएंगे. लेकिन जरा ठहरिए, शायद इससे भी खतरनाक कुछ इंतजार में हैं. सोनीपत, जो यूं तो जाट बहुल आबादी वाला इलाका है, लेकिन वहां का बिजनेस पूरी तरह गैर-जाट समुदाय के हाथ में है. वहां के दुकानदार कहते हैं कि उन्होंने खुद को हथियारबंद कर लिया है. दुकानदारों ने प्रकाश सिंह कमेटी को बताया, ''अगली बार ऐसा कुछ हुआ तो हम भी तैयार रहेंगे. अगली बार पहले एक जाट को मारे बगैर कोई पंजाबी, सैनी या कोई भी व्यक्ति मरेगा नहीं.''
शहर रोहतक वापस चलते हैं. यहां 55 वर्षीय व्यवसायी सुरेश शर्मा का गुस्सा शांत नहीं हुआ है, जिनका जाना-माना आरएन मॉल जलकर खाक हो गया. दंगाइयों ने रोहतक के इकलौते मैकडोनल्ड्स रेस्तरां और दो गोल्ड क्लास पीवीआर सिनेमा को आग के हवाले कर दिया. जिस व्यक्ति ने करोड़ों के नुक्सान का सदमा बर्दाश्त किया है, आज वह बदले की भावना से भरा हुआ है. शर्मा ने 28 मई को इंडिया टुडे से कहा, ''इस बार तो वे प्रशासन की मिलीभगत से अचानक आ गए. अगली बार ऐसा हुआ, तो हम पूरी तैयारी के साथ मिलेंगे.'' हरियाणा के जाट नेतृत्व ने भी हुंकार भरी है कि 5 जून से यह आंदोलन फिर से जोर पकड़ेगा.
24 फरवरी को जाट हिंसा अंततः खत्म होने के बाद हरियाणा के वित्त मंत्री और एक बार मुख्यमंत्री रह चुके कैप्टन अभिमन्यु ने पहली बार आधिकारिक रूप से स्वीकार किया कि यह राज्य की विफलता है. किसी अधिकारी या नेता पर कोई टिप्पणी करने से इनकार करते हुए 27 मई को अभिमन्यु ने कहा कि ''यह प्रशासन, इंटेलिजेंस और कानून व्यवस्था की विफलता है.'' वे जाटों और अन्य समुदायों के बीच बढ़ रहे अविश्वास और दूरी को स्वीकार करते हैं, लेकिन जोर देकर कहते हैं कि यह हिंसा (रोहतक में उनके पुश्तैनी घर और अन्य संपत्ति पर भी हमला हुआ) राजनीति से प्रेरित थी.
जो भी हो, आज हरियाणा बहुत नाजुक और विस्फोटक स्थिति में पहुंच चुका है, जहां भविष्य में किसी भी तरह का जातीय टकराव भयानक नरसंहार का रूप ले सकता है. यह एक ऐसा सवाल है, जिस पर मुख्यमंत्री खट्टर और उनके विरोधी नेताओं को भी गंभीरता से विचार करने की जरूरत है.