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आपके डेटा में सेंध की चुनावी सियासत

बिग डेटा--यानी खंगालने की क्षमताओं से भरपूर बड़ी भारी तादाद में तरतीबवार और आधा तरतीबवार डेटा—चुनाव मुहिमों की योजना बनाने में जबरदस्त भूमिका अदा करता है और सियासी पार्टियां ऐसा डेटा सुलभ करवाने की मांग करती हैं, इनमें से ज्यादातर पब्लिक डोमेन (सार्वजनिक तौर पर) में उपलब्ध हैं.

चुनाव और डेटा में सेंध चुनाव और डेटा में सेंध
मंजीत ठाकुर/कौशिक डेका
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  • 03 अप्रैल 2018,
  • अपडेटेड 6:21 PM IST

सियासी नेता और स्वतंत्र चुनावी रणनीतिकार स्वीकार करते हैं कि बिग डेटा--यानी खंगालने की क्षमताओं से भरपूर बड़ी भारी तादाद में तरतीबवार और आधा तरतीबवार डेटा—चुनाव मुहिमों की योजना बनाने में जबरदस्त भूमिका अदा करता है और सियासी पार्टियां ऐसा डेटा सुलभ करवाने की मांग करती हैं, इनमें से ज्यादातर पब्लिक डोमेन (सार्वजनिक तौर पर) में उपलब्ध हैं.

हैदराबाद और बेंगलूरू स्थित एक डेटा साइंस कंपनी ग्रामीनर के सीईओ और प्रमुख डेटा वैज्ञानिक एस. आनंद कहते हैं, "चुनाव आयोग का डेटा, मतदाता सूचियां, सीधी-सादी टेलीफोन डायरेक्टरी और बहुत-सी सरकारी और निजी एजेंसियों के तमाम सर्वे सियासी पार्टियों के लिए बिग डेटा के कुछ स्रोत हैं. इन डेटा की उपयोगिता इस बात पर निर्भर है कि इनका विश्लेषण कितनी अच्छी तरह से किया जाता है.'' भारतीय दूरसंचार की अव्वल शख्सियत सैम पित्रोदा भी, जो कांग्रेस के ओवरसीज महकमे के मुखिया हैं, सियासी मुहिमों में बिग डेटा एनालिसिस की अहमियत स्वीकार करते हैं. वे कहते हैं, "डेटा एनालिसिस हमें उम्र, समूह, जाति, धर्म, जगह, तालीम, पेशे और रिश्ते सरीखी कई सारी खासियतों के बारे में अच्छी समझ मुहैया करवाता है.''

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अगर तमाम पक्षों के बीच इस बात पर तकरीबन सर्वसक्वमति है कि हिंदुस्तान के सियासी संदर्भ में सोशल मीडिया के डेटा को खंगालने और उसका विश्लेषण करने का असर और गुंजाइश बहुत सीमित है. आनंद चुनावों को प्रभावित करने की सोशल मीडिया डेटा की ताकत को खारिज करते हुए कहते हैं कि जरूरी नहीं कि फेसबुक सरीखे प्लेटफॉर्म की यूजर प्रोफाइल हिंदुस्तान के चुनावों के लिए बेहद अहम जाति और सियासी झुकाव सरीखी जानकारी मुहैया करें ही. वे कहते हैं, "2014 में सोशल मीडिया की पैठ आज के मुकाबले कहीं कम थी. यह कहना कि फेसबुक डेटा कामयाब चुनावी अभियान तैयार करने में मदद करेगा, फिलहाल भरोसे की 10 साल लंबी छलांग ही है.''

"वी आर सोशल ऐंड हूटसूट'' की 2018 की ग्लोबल डिजिटल रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर के 53 फीसदी के औसत के मुकाबले हिंदुस्तान में इंटरनेट की पैठ 34 फीसदी है. अमेरिका में इंटरनेट की पैठ 99 फीसदी है. सोशल मीडिया की पैठ के मामले में भी हिंदुस्तान वैश्विक औसत से बहुत पीछे है. जनवरी 2018 में भारत में सोशल मीडिया की 19 फीसदी पैठ दर्ज की गई थी, जबकि इसका वैश्विक औसत 42 फीसदी है. अलबत्ता 31 फीसदी के साथ यह सोशल मीडिया की पैठ के मामले में दूसरा सबसे तेजी से बढ़ता देश था.

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डेटा ये भी इशारा देता है कि इस बात की कम संभावना रही होगी कि सीए के पास इतने पर्याप्त आंकड़े रहे हों जिनसे वह सोशल मीडिया तिकड़मों के जरिए हिंदुस्तान के चुनावों पर असर डाल सके. हिंदुस्तान में इंटरनेट की पैठ में मोबाइल फोन डेटा से उभार आया, जिसे जबरदस्त रफ्तार 2016 में ही जियो फोन के लॉन्च के साथ मिली जब डेटा शुल्क में तेज गिरावट आई. 52 फीसदी के वैश्विक औसत के मुकाबले हिंदुस्तान में 79 फीसदी वेब ट्रैफिक मोबाइल से आता है. भाजपा और कांग्रेस, दोनों के साथ काम कर चुके एक प्रमुख चुनाव रणनीतिकार आनंद की बात से इत्तेफाक रखते हैं और कहते हैं कि सोशल मीडिया पर अमेरिकी और हिंदुस्तानी लोगों के बर्ताव में बहुत फर्क है. वे कहते हैं, "अमेरिका में किसी विश्लेषक के लिए यह अंदाज लगा पाना ज्यादा आसान है कि कोई शख्स रिपब्लिकन है या डेमोक्रेट. हिंदुस्तान में लोग अपने सियासी झुकाव और बर्ताव के बारे में ज्यादा कुछ उजागर नहीं करते.''

कांग्रेस की डेटा एनालिटिक्स शाखा के मुखिया प्रवीण चक्रवर्ती मानते हैं कि सोशल मीडिया किसी के लिए भी अपने संदेश को लक्ष्यबद्ध तरीके से पहुंचाना बेशक ज्यादा आसान बना देता है, पर यह मतदाता के बर्ताव के बारे में पहले से अनुमान नहीं लगा सकता. वे कहते हैं, "फेसबुक के रुझानों से मतदाता के बर्ताव के बारे में जानने और बताने को हिंदुस्तान के संदर्भ में बहुत बढ़-चढ़कर आंका और बताया जा रहा है.'' उनके दावे के उलट नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज की कार्यवाहियों में 2013 में प्रकाशित एक अध्ययन ने साबित किया था कि अगर किसी के पास पर्याप्त डेटा हो तो महज "लाइक्स'' के आधार पर सियासी विचारों सहित संवेदनशील निजी खूबियों के बारे में काफी सटीक अंदाजा लगाया जा सकता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में जब भाजपा सांसदों से कहा कि अगर वे 2019 का चुनाव लडऩा चाहते हों तो उन्हें फेसबुक पेज पर "जेनुइन लाइक्स'' को 3,00,000 तक बढ़ाना चाहिए, तब इसके पीछे शायद यही तर्क रहा हो.

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मगर चक्रवर्ती ने सीए का यह दावा सिरे से खारिज कर दिया कि उसने अपने डेटा एनालिसिस से चुनाव जीतने में सियासी पार्टियों की मदद की थी. वे कहते हैं, "डेटा और उनका विश्लेषण चुनावी रणनीति में उपयोगी इनपुट हो सकते हैं. मगर ये कहना कि अकेले डेटा एनालिटिक्स ही चुनाव जितवा देगा, बात को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर कहना है. यह चुनाव में लगने वाले कई अहम इनुपट में से एक है.''

पित्रोदा के मुताबिक, डेटा विश्लेषण पर आधारित मेसेजिंग का असर बहुत थोड़े वक्त के लिए होता है. वे कहते हैं, " ''—"सियासत कोई उत्पाद बेचना नहीं है. यह नई चीज है जिसे कारोबारियों ने पैसा बनाने के लिए बढ़ावा दिया है. यह ज्यादा दिन चलेगा नहीं. महात्मा गांधी को अपनी बात पहुंचाने के लिए ऐसे औजारों की जरूरत नहीं थी. अगर संदेश सच्चा है तो यह उन लोगों तक पहुंच ही जाएगा जिन तक इसे पहुंचाया जाना है.''

एक चुनाव रणनीतिकार ने अपना नाम न छापने की शर्त पर इशारा किया कि डेटा के विश्लेषण में पेचीदगियां हैं, जैसा कि फेसबुक गतिशील डेटा मुहैया करता है. वे कहते हैं, "हर रोज अरबों डेटा पॉइंट पैदा किए जाएंगे. इनका मतलब समझने के लिए बहुत ऊंचे दर्जे के विश्लेषण की दरकार है, जो वाकई बहुत ज्यादा वक्त लेने वाला हो सकता है.'' उन्हें इस बात का भी पूरा यकीन है कि न तो भाजपा ने और न ही कांग्रेस ने कभी भी सीए का इस्तेमाल किया होगा क्योंकि कई हिंदुस्तानी संस्थाएं इसी किस्म के डेटा सेट कहीं ज्यादा सस्ते दामों पर मुहैया करती हैं.

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चक्रवर्ती भी उनसे इत्तेफाक रखते हैं और कहते हैं कि निर्वाचन क्षेत्रों का नक्शा बनाने के लिए या बूथ स्तरों पर चुनावी रुझानों का विश्लेषण करने के लिए बाहरी एजेंसियों की दरकार नहीं है. वे कहते हैं, "मैंने चुनावी डेटा का इस्तेमाल करते हुए तजुर्बे से साबित शोध का पूरा काम प्रकाशित किया है. यह कोई ब्रेन सर्जरी नहीं है.''

रणनीतिकार यह भी कहते हैं, "यही वजह है कि सीए के प्रेजेंटेशन के दौरान भाजपा के एक शीर्ष नेता तो सारे वक्त सोते रहे थे. अंबरीश राय, जो सियासी पार्टियों के लिए सर्वे किया करते थे को सीए ने अपने साथ इसीलिए जोड़ा क्योंकि उन्होंने कई सियासी नेताओं तक पहुंचने में इस ब्रिटिश कंपनी की मदद की थी.''

भाजपा आइटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय सोशल मीडिया के डेटा के असर को खारिज करने के लिए तैयार नहीं हैं, हालांकि वे दोटूक ढंग से कहते हैं कि उनकी पार्टी ने इजाजत के बगैर सोशल मीडिया के किसी भी डेटा का कभी इस्तेमाल नहीं किया. वे कहते हैं, "हमारे पास अपने ही सदस्यों का इतना विशाल डेटाबेस है. हमें न तो फेसबुक के डेटा की जरूरत है और न ही हम अनैतिक कामों में मुब्तिला होते हैं.'' हालांकि मालवीय इस बात की तस्दीक करते हैं कि भाजपा के विजन और उपलब्धियों का प्रचार-प्रसार करने के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों का खासा इस्तेमाल करती है और उसकी यह शिरकत लगातार बढ़ती जा रही है. वे नमो ऐप का इस्तेमाल करने वालों के डेटा के दुरुपयोग को लेकर लगाया गया कांग्रेस का आरोप भी खारिज कर देते हैं, यह कहकर कि गूगल एनालिटिक्स से मिलते-जुलते एक तीसरे पक्ष की सेवा के जरिए इस डेटा का इस्तेमाल विश्लेषण के लिए किया जा रहा है. वे बात को और साफ करते हुए कहते हैं, "यह डेटा तीसरा पक्ष किसी भी तरह से न तो रख रहा है और न ही इस्तेमाल कर रहा है. डेटा पर एनालिटिक्स और प्रोसेसिंग यूजर को बिल्कुल संदर्भ से जुड़ा कंटेट देने के लिए की जाती है. इसके जरिए शक्चस की दिलचस्पी के मुताबिक अनूठा और निजी पसंद के हिसाब से ढाला गया तजुर्बा मुहैया किया जा पाता है. खेती से जुड़ा कंटेंट तलाश रहे शखिस को खेती से जुड़ा कंटेंट प्रमुखता से मिलेगा.''

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   मालवीय जहां "संदर्भ से जुड़े कंटेट'' की प्रोफाइल बनाने को जायज ठहराते हैं, वहीं साइबर सुरक्षा विशेषज्ञ सुबिमल भट्टाचार्य मानते हैं कि ऐसे डेटाबेस हमेशा इतने कमजोर होते ही हैं कि उनके दुरुपयोग की संभावना बनी रहती है. भट्टाचार्य कहते हैं, "इतनी सारी एक्सेस मांगने के पीछे मंशा प्रोफाइल बनाने की ही होती है. तो यूजर के नजरिए से वह जितनी कम एक्सेस देगा या देगी, उतना ही बेहतर होगा.'' मैसेजिंग के इस किस्म के विश्लेषण और उन्हें निजी पसंदों के हिसाब से ढालने में पित्रोदा कुटिल साजिश देखते हैं. वे कहते हैं, "यह एक शख्स की पसंद और नापसंद को प्रभावित करने के लिए किया जाता है. मिसाल के लिए, साईं बाबा के बारे में कुछ शरारती बातें जान-बूझकर और गलत ढंग से किसी शख्स या पार्टी से जोड़ दी जाएंगी, फिर उन्हें बाबा के किसी श्रद्धालु को भेज दिया जाएगा. इसका मकसद है उस शख्स को पार्टी के खिलाफ भड़काना.''

हां सियासी पार्टियों ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर दबदबा बनाने की जंग छेड़ दी है, वहीं चुनाव आयोग का रवैया ढुलमुल है. जनवरी में आयोग ने 14 सदस्यों की एक समिति बनाई थी, इस बात का अध्ययन करने के लिए कि चुनावों से पहले सोशल मीडिया और दूसरे डिजिटल प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल किस तरह किया जाता है. समिति अप्रैल में ही अपनी रिपोर्ट पेश कर सकती है. इसका मतलब है कि इस साल होने वाले चुनावों—यानी मई में कर्नाटक और इसी साल बाद में होने वाले राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम के चुनावों—से पहले इस समिति की सिफारिशों को लागू किए जाने की संभावना नहीं है. चुनाव से जुड़ी प्रामाणिक जानकारियां आम लोगों तक पहुंचाने की अहमियत के बावजूद चुनाव आयोग ने जनवरी में जाकर फेसबुक और यूट्यूब पर पदार्पण किया. इन दो प्लेटफॉर्म पर भी चुनाव आयोग की सीमित मौजूदगी ही है. विदेश में रहने वाले मतदाताओं के लिए पिछले साल से इंडिया वोट्स नाम से उसका फेसबुक पेज है और यूट्यूब पर कुछ ट्रेनिंग कैप्सूल अपलोड किए गए हैं. आयोग "कुछ निश्चित वजहों'' से निकट भविष्य में ट्विटर पर अपनी मौजूदगी की संभावना से इनकार करता है.

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