
अचानक सआदत हसन मंटो और उनकी कहानियों को लेकर दिलचस्पी देखने को मिल रही है. अपने दौर में उपेक्षा के शिकार रहे उर्दू के इस अफसानानिगार की कहानियों के प्रकाशक नए संस्करण निकाल रहे हैं. उनका अंग्रेजी में अनुवाद हो रहा है. सिनेमा, रंगमंच, रेडियो वाले सभी मौजूदा दौर की असलियत जाहिर करने के लिए उन्हें माकूल पा रहे हैं. हकीकत को बयान करने की मंटो की बेबाकी मानो नए दौर में जादुई असर पैदा कर रही है.
हालांकि उस बेबाकी को आत्मसात कर पाना इतना आसान भी नहीं है. तभी तो नंदिता दास की फिल्म मंटो में उनका किरदार निभाने के लिए चुने गए नवाजुद्दीन सिद्दीकी कहते हैं, ''मंटो अपनी जिंदगी में बेबाक थे. ऑनस्क्रीन मुझे वह बेबाकपन लाना ही होगा. उनसे जुड़ा कोई वीडियो या रिकॉर्डिंग तो है नहीं, इसलिए उन पर लिखा हुआ पढ़ रहा हूं और उनसे जुड़े लोगों से मिलने की कोशिश करूंगा." फिल्म की शूटिंग जनवरी में शुरू होगी लेकिन नवाजुद्दीन ने मंटो की शख्सियत की बारीकियां पकडऩे की कोशिश अभी से शुरू कर दी है जबकि मंटो की बीवी सफिया का किरदार निभाने जा रहीं रसिका दुग्गल ने उर्दू में अपनी जबान साफ करनी शुरू कर दी है. वे बताती हैं, ''मैंने फिर से उर्दू सीखना शुरू किया है, थोड़ी-बहुत पहले सीखी थी, अब दोबारा सीख रही हूं. मैं उस दौर को समझना चाहती हूं, जिसमें मंटो थे, उस दौर के रिश्तों को भी."
उधर, मंटो की कहानी टोबा टेक सिंह पर बनी केतन मेहता की इसी नाम वाली फिल्म में पंकज कपूर की ऐक्टिंग चर्चा का विषय है. जम्मू-कश्मीर के पुंछ के रहने वाले डायरेक्टर राहत काजमी मंटोस्तान के साथ कान से लेकर कई बड़े फिल्म समारोहों में धूम मचाए हुए हैं. यह मंटो की मकबूलियत ही है कि फिल्म की हीरोइन सोनल सहगल ने कहा, ''मंटो हमारे शाहरुख खान हैं और हमारी फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी भी."
काजमी कहते हैं, ''जो दर्द मंटो ने बयान किया, उसका जादुई एहसास कहीं और नहीं मिलता. आम इनसान उससे आसानी से खुद को जोड़ लेता है." लेकिन वह क्या बात है जिसकी वजह से लाहौर में 18 जनवरी, 1955 में इंतिकाल के लगभग 61 साल बाद भी मंटो मौजूं बने हुए हैं? रसिका दुग्गल बताती हैं, ''उनकी कहानियां आज के माहौल और लोगों के एकदम माकूल हैं. वे आपको झकझोर देती हैं."
मंटो का मुंबई (तब बॉम्बे) से गहरा नाता था. अशोक कुमार और श्याम उनके गहरे दोस्त थे. उन्होंने कई स्टुडियो में काम भी किया था. हालांकि उन्होंने फिल्मों से जुड़ी कोई बहुत बड़ी कामयाबी हासिल नहीं की लेकिन मुंबई में गुजारे लम्हे हमेशा उनके दिल के करीब रहे. अब उसी मुंबई में उनका नाम गूंजने लगा है. रंग रसिया और मांझीः द माउंटेन मैन जैसी फिल्में बनाने वाले केतन देसाई ने मंटो की टोबा टेक सिंह कहानी को 75 मिनट की फिल्म बनाने के लिए चुना और बिशन सिंह को बड़े परदे पर जिंदा किया. हालांकि अभी यह तय नहीं है कि फिल्म बड़े परदे पर कब रिलीज होगी. इस कहानी में देश के बंटवारे के दर्द को बखूबी दिखाया गया है. फिल्म में मंटो का किरदार भी पिरोया गया है जिसे विनय पाठक निभा रहे हैं.
राहत काजमी ने मंटो की चार कहानियों ''खोल दो", ''ठंडा गोश्त", ''आखिरी सैल्यूट" और ''गुरमुख सिंह की वसीयत" को मंटोस्तान नाम से एक फिल्म में पिरोया है. काजमी बताते हैं, ''मैं रघुवीर यादव के साथ एक फिल्म की शूटिंग में व्यस्त था. उसी दौरान मैंने मंटो की ठंडा गोश्त पढ़ी और कई दिन तक वह मेरे दिमाग से निकली ही नहीं. रघुवीर जी से बात हुई. बॉलीवुड में मंटो पर कोई फिल्म नहीं बनी थी. हमने फैसला किया कि मंटो पर फिल्म बनाएंगे." वे खुद कश्मीरी हैं और मानते हैं कि वहां आतंकवाद के चरम के दौरान इसी तरह के हालात देखने को मिले हैं.
मंटो की कहानियों में समाज के मुंह पर तमाचा मारने का जो माद्दा है, वह भी बॉलीवुड को खींचता है. तभी तो सुलझी हुई अदाकारा और डायरेक्टर नंदिता दास ने मंटो की जिंदगी को परदे पर उतारने का बीड़ा उठाया है. नंदिता बताती हैं, ''फिल्म की कहानी 1946 से 1952—सात साल की होगी." ये साल न सिर्फ भारत के लिए अहम हैं बल्कि मंटो के वजूद पर भी इन वर्षों की अमिट छाप रही है. नंदिता ने बताया, ''मंटो की किस्सागोई की शैली बहुत ही साधारण लेकिन गूढ़ है और आज भी प्रासंगिक है. इसी बात ने मेरा ध्यान उनकी ओर खींचा. वे हर उस चीज की बात करते हैं जिसकी मुझे परवाह है? अभिव्यन्न्ति की स्वतंत्रता, हमारे ऊपर थोपी जाने वाली पहचान." मंटो का लीक से हटकर चलना और हर किसी के लिए आजादी का भाव ही उन्हें अलग बनाता है.
मंटो लगभग डेढ़ साल तक दिल्ली में रहे और रेडियो के लिए लिखते रहे. उनकी कलम बेबाकी से चली और उन्होंने लगभग सौ ड्रामे लिखे. लेकिन रंगमंच में उन्हें लोकप्रिय बनाने का काम किया उनकी कहानियों ने. उनकी कहानियों में मौजूद नाटकीयता ने भी उन्हें रंगमंच की दुनिया में लोकप्रिय बनाने का काम किया है. तभी तो मंटो अस्मिता थिएटर ग्रुप की ट्रेनिंग का हिस्सा हैं. ग्रुप के मुखिया अरविंद गौड़ बताते हैं, ''मंटो की कहानियों में सांप्रदायिकता के दंश और जेंडर इश्यू को बखूबी उठाया गया है. ऐसे सवाल जो आज भी कायम हैं. अभी कुछ महीने पहले ही हमने मंटो की औरतें नाम से नाटक किया था. मंटो की कहानियों पर आधारित पार्टिशन और मंटोनामा के तो लगभग 50 शो हो चुके हैं और हम उन्हें जल्दी ही रिपीट करने जा रहे हैं."
मंटो की लोकप्रियता का इशारा नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) में भी मिल जाता है. एनएसडी के तीसरे वर्ष के छात्रों ने 8-11 सितंबर को दिल्ली में मंटो की कहानियों का मंचन नेकेड वॉइसेस के नाम से किया और जितने लोग नाटक देखने के लिए अंदर थे, उतने ही अंदर जगह न मिल पाने की वजह से निराश लौटे. इनमें युवाओं की संख्या अच्छी-खासी थी. इसकी डायरेक्टर नीलम मानसिंह चौधरी कहती हैं, ''सआदत हसन मंटो का कथालोक भद्रलोक नहीं है. वे लगातार अपने समाज के छल-कपट और पाखंडों को चुनौती देते हैं...उनकी कहानियां धार्मिक पूर्वाग्रहों और राष्ट्रीय उल्लासोन्माद से मुक्त हैं." यही वजह है कि उनकी कहानियों को इतना पसंद किया जाता है.
थिएटर डायरेक्टर सलीम आरिफ इस साल अपने हिट नाटक मंटो मंत्र को फिर से मंचित करने जा रहे हैं. वे कहते हैं कि प्रेमचंद ने जिस तरह से अपनी कहानियों में गांव को दिखाया, वैसा ही मंटो ने शहरों की ऐसी जिंदगी और पात्र दिखाए जो साहित्य में अछूते थे. पटकथा लेखक अतुल तिवारी मंटो की ताकत कम शब्दों में बड़ी बात कहने को मानते हैं. वे कहते हैं, ''वे चालीस मात्रा में एक पूरी कहानी कह देते हैं. जिसकी मिसाल ''उलाहना" है. जो इस तरह हैः ''देखो यार, तुमने ब्लैक मार्केट के दाम भी लिए और ऐसा रद्दी पेट्रोल दिया कि एक दुकान भी न जली." अब आप खुद ही अंदाजा लगाइए."
उर्दू साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर मंटो का सानी हिंदी और उर्दू, दोनों ही भाषाओं में नहीं है. उनकी तूती साहित्य जगत में पिछले छह दशक से बरकरार है. दिल्ली का वाणी प्रकाशन उनके संचयन का अंग्रेजी में अनुवाद करवा रहा है. वाणी प्रकाशन की अदिति महेश्वरी मंटो की यूएसपी के बारे में कहती हैं, ''युवा पाठकों में मंटो का अच्छा-खासा क्रेज है. जब मैं मेट्रो में सफर करती हूं अक्सर मैंने कई युवाओं के पास मंटो की किताबें देखी हैं." वाणी ने मंटो की कहानियों की पूरी सीरीज छापी है.
जब कभी किसी पत्रिका का मंटो विशेषांक आया तो उसकी लोकप्रियता भी कम नहीं रही. उद्भावना पत्रिका के संपादक अजय कुमार बताते हैं कि उन्होंने जनवरी 2016 में मंटो विशेषांक निकाला था, जिसकी शुरू में 2,200 प्रतियां प्रकाशित की गई थीं. लेकिन सभी प्रतियां बिकने के बाद मांग पर 800 कॉपियां और प्रकाशित की गईं. उधर, हार्पर हिंदी से प्रकाशित रविशंकर बल की किताब दोज़खनामाः जब मंटो हुए गालिब से रू-ब-रू बेस्टसेलर में शामिल है. मंटो और गालिब के बीच काल्पनिक बातचीत पर आधारित इस किताब की लगभग 5,000 प्रतियां बिक चुकी हैं.
ऑनलाइन दुनिया में भी मंटो का दखल तेजी से बढ़ रहा है. उनका साहित्य हिंदी-उर्दू साहित्य की विभिन्न वेबसाइटों पर मौजूद है. उर्दू साहित्य के ऑनलाइन ठिकाने रेख्ता पर टॉप तीन लेखकों में मंटो हमेशा अपनी जगह बनाए रखते हैं. वेबसाइट पर मंटो से जुड़े ऑडियो-वीडियो भी मौजूद हैं, और इस संग्रह को और बढ़ाए जाने की तैयारी भी चल रही है.
रेडियो पर अफसाने
रेडियो के लिए लिखने वाले मंटो जब खुद रेडियो पर आए तो तीन महीने की प्लानिंग के साथ शुरू किए गए रेडियो प्रोग्राम को दस महीने तक चलाया गया. यह पिछले महीने खत्म हुआ है. रेडियो मिर्ची पर आरजे सायमा ने एक पुरानी कहानी कार्यक्रम में मंटो की लगभग 40 कहानियां पेश कीं. यह पूछने पर कि उन्हें इसका आइडिया कहां से आया तो सायमा कहती हैं, ''आज भी वही चुनौतियां हैं जो मंटो के समय में थीं. उन्होंने कड़वे सच को पेश किया. लोगों ने उन्हें गंदी किताबें लिखने वाला बताया जबकि उन्होंने तो समाज को आईना दिखाया." यह मंटो की लोकप्रियता ही थी कि ओम पुरी और नवाजुद्दीन सिद्दीकी सरीखे कलाकारों ने उनकी कहानियों को इस शो में पढ़ा. वैसे भी मंटो की ये लाइनें मौजूदा माहौल और छह दशक पहले के माहौल को एक दूसरे के सामने ला देती हैः ''ये मत कहो कि एक लाख हिंदू मारे गए और एक लाख मुसलमानों का कत्लेआम किया गया. ये कहो कि दो लाख इनसानों को कत्ल कर दिया गया. दो लाख इनसानों को कत्ल कर देना कोई बहुत बड़ी त्रासदी नहीं है. सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि जिन्हें कत्ल किया गया, उन्हें बेवजह मारा गया. एक लाख हिंदुओं को कत्ल करने के बाद मुसलमान ये सोचते होंगे कि हिंदू धर्म मर गया. इसी तरह एक लाख मुसलमानों को कत्ल करके हिंदू खुशी मनाते होंगे कि इस्लाम खत्म हो गया, लेकिन हकीकत आपके सामने है. सिर्फ मूर्ख ही सोच सकते हैं कि धर्म को संगीनों के दम पर खत्म किया जा सकता है."
मंटो की दीवानगी के बारे में सायमा बताती हैं, ''मैंने कॉलेज में किसी और से मंटो की किताब लेकर पढ़ी थी. मैंने ''काली शलवार" पढ़ी और पहले तो मेरी समझ नहीं आई. पर धीरे-धीरे इसकी परतें खुलने लगीं. मंटो ऐसा नाम है जहां कुछ छिपता नहीं." सायमा की तैयारी जल्द ही इसका दूसरा सीजन लाने की है. सायमा कहती हैं, ''मंटो तो वापस आएगा ही. 60 साल में समाज नहीं बदला और जब तक समाज नहीं बदलेगा मंटो को तो आना ही पड़ेगा." इसमें दो राय नहीं...