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हिंदी को औपचारिकता के फार्महाउस से निकालकर कुछ लोग उर्वर ज़मीन पर ले आए हैं. जहां जनता की ज़ुबान में पत्रकारिता होती है. जनता की ज़ुबान में साहित्य रचा जाता है.
टीवी पत्रकार रवीश कुमार को आप बेहिचक इस कतार में शामिल कर सकते हैं. 12 नवंबर को ‘साहित्य आज तक’ में वे भी पहुंच रहे हैं. इससे पहले उनसे फोन पर बात हुई:
साहित्य से आपका पहला एनकाउंटर कब हुआ? किस उम्र में हुआ?
उस वक्त ‘डेट ऑफ बर्थ’ तो नहीं चेक किया. दो-तीन किताबें थीं दोस्त. ‘देवदास’ और ‘गुनाहों का देवता’. पढ़कर भावनात्मक सा हो गया था. वो किताबें ही ऐसी हैं. प्रेमचंद को मैंने कोर्स के अलावा बहुत बाद में पढ़ा. बिहार में हम लोग पढ़े तो दसवीं की हिंदी की किताब बहुत अच्छी थी. वहीं से हमने शुरुआती साहित्य जाना.
वो पहली किताब जिसने बहुत प्रभावित क्या हो?
मनोहर पोथी. वो किताब न होती तो ‘ऋ’ से ‘ऋषि’ पता नहीं चलता. ऋषि जी तो दिखते नहीं है अब. कुछ लोग योग वोग सिखाते हैं, जो वैसे दिखते हैं. ‘ध’ से धनुष सीखा, पर धनुष नहीं दिखता था. ‘थ’ से थन दिखता था, क्योंकि हमारे घर में गाय होती थी. ‘ड’ से डमरू भी दिखता था. अभी बीते दिनों पश्चिम बंगाल गया तो ‘ठ’ से ठठेरा देखा. वो बर्तन बना रहे थे तो मैंने पूछा कि आप खुद को क्या कहते हैं. वो ठठेरा तो नहीं कहते थे. पर ये सब हमें मनोहर पोथी से ही आया.
‘शौके दीदार गर है तो नज़र पैदा कर’ कहां से आया?
हां ये दसवीं में पढ़ी एक कहानी की आखिरी लाइन थी. देखने का फन जो है, उससे बड़ा फन नहीं हो सकता. मैं कमजोर विद्यार्थी था इस तरह की चीजें ही याद रह जाती थीं.
और आज तक साथ चली आ रही है.
हां वो साथ है अब तक.
लप्रेक को खूब पढ़ा है. लेकिन इसके शीर्षक ‘इश्क में शहर होना’ पर देर तक ठहरा रहा. इसका क्या मतलब है सर?
बुनियादी चीज है इश्क में घूमना. हम अपने शहर को जानें. समाज को जानें. प्रेमियों के बीच उदासी इसलिए आ जाती है कि वे खुद को भरना छोड़ जाते हैं.
आप ऐच्छिक साहित्यकार नहीं लगते. आपकी पत्रकारिता में साहित्य किस तरह आता है?
जो मूल रूप से साहित्यकार है, वो अलग अनुशासन और अभ्यास में रहता है. उससे तो मेरी तुलना बिल्कुल नहीं करनी चाहिए. वो एक अलग साधना है. वो कहानी को जीता है, उसमें डूबता है, रचता है. कल्पना करते हुए नई चीज़ें लाता है. हमने जो लिखा वो, तदर्थ है. जैसे हमने कूची उठाई और वो इत्तेफाक से एक तस्वीर बन गई. कुछ लोगों ने देखा तो उस तस्वीर को खूबसूरत भी कह दिया. इसका ये मतलब नहीं कि हम चित्रकार हैं. जो ईमानदारी होती है बरतने की, वो भी कहां है.
मैं हमेशा साहित्य की दुनिया से कम जुड़ा रहा. कम कहानियां पढ़ पाया. उदय प्रकाश की कहानी ‘तिरिछ’ ने बड़ा असर किया. निर्मल वर्मा को जाना. पाश की कविता पढ़ी, ‘सबसे खतरनाक होता है’ तो तीन-चार दिन नींद नहीं आई. उनकी एक और कविता, ‘मैं घास हूं, तुम्हारे हर किए-धरे पर उग आऊंगा’.
दरअसल मैं बहुत सारी रचनाओं को तब पहली बार जानता हूं, जिन्हें दुनिया आखिरी बार जानकर भूल गई है. इसलिए मेरे चकित होने की संभावना बनी हुई है. विजयदान देथा के निधन के एक दिन पहले उन्हें पहली बार पढ़ा. जिन्होंने किताब दी थी, उन्हें फोन किया कि ये तो जीनियस आदमी हैं. कोई इन्हें जानता नहीं. तो वो बोले, सब जानते हैं, आप नहीं जानते.
इसीलिए आपकी पत्रकारिता की भाषा में आपका साहित्य-प्रेम दिखता है!
नहीं वो लगता है, पर उतना है नहीं. मैं बताने वाले की भूमिका में खुद को ज्यादा सहज पाता हूं. अब तो जाने कितने दिन हो गए कि कोई कहानी पढ़ी हो. वक्त ही इतना कम हो गया है. आधी जिंदगी तो हमारी ट्रैफिक में कट जाती है. रायपुर गया था कवरेज के लिए राजनंदगांव भी जाना हुआ. मैंने मुक्तिबोध पर एक रिपोर्ट बनाई और उसके ठीक एक घंटे पहले ही मुक्तिबोध को जाना था. तो मैं ऐसा हूं. रिपोर्ट बना दूंगा. पढ़ के बता सकता हूं.
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रवीश कुमार की रवीशपंती सुनने पहुंचें:
12 नवंबर
स्टेज-2
3.30 से 4 बजे
साहित्य आज तक
इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर द आर्ट्स, जनपथ, नई दिल्ली
इंटरव्यू साभार: thelallantop.com