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मुझे लेकर विवाद खड़े किए जाते हैं क्योंकि उससे खूब प्रचार मिलता है: स्मृति ईरानी

स्मृति ईरानी बताती हैं कि वे सिर्फ नियमों का पालन कर रही हैं और शिक्षा पर सभी दलों की आम सहमति की नीति पर चल रही हैं. उनसे हुई बातचीत के मुख्य अंश:

aajtak.in
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  • 08 दिसंबर 2014,
  • अपडेटेड 5:46 PM IST

स्मृति ईरानी को मंत्री पद संभाले सिर्फ छह महीने हुए हैं, लेकिन उन्हें लेकर कई विवाद उठ चुके हैं. भगवा पार्टी का गुप्त एजेंडा आगे बढ़ाने के आरोपों से लेकर दिल्ली यूनिवर्सिटी के चार वर्षीय स्नातक कोर्स (एफवाइयूपी) और केंद्रीय विद्यालयों में जर्मन-संस्कृत भाषा जैसे कई विवादों में उनका नाम सुर्खियों में रहा है. उन्होंने अपना पक्ष रखते हुए एसोसिएट एडिटर अनुभूति विश्नोई और प्रमुख संवाददाता संतोष कुमार को बताया कि वे सिर्फ नियमों का पालन कर रही हैं और शिक्षा पर सभी दलों की आम सहमति की नीति पर चल रही हैं. उनसे हुई बातचीत के मुख्य अंश:

कार्यभार संभाले हुए छह हलचल भरे महीने हो चुके हैं, मानव संसाधन विकास जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय की मुखिया के रूप में आपका अनुभव कैसा रहा है?
कुल मिलाकर देखें तो मेरी यात्रा सिर्फ छह महीने की नहीं, बल्कि 38 साल की हो चुकी है और वह बहुत रोचक रही है. जब मैं मंत्रालय में आई तो मैंने सभी से कहा कि अगर आप शिक्षा को किसी चुनौती की तरह लेंगे तो सिर्फ उससे जूझते ही रह जाएंगे. अगर आप इसे मौके के रूप में लेंगे तो पुराने ढर्रे से हटकर कुछ नया सोच पाएंगे और संभवत: कोई नया रास्ता निकाल पाएंगे.
हालांकि लोग मानते हैं कि शिक्षा में राजनीति होती है, लेकिन अलग-अलग पार्टियों के लोगों से बात करके मैंने पाया कि तीन मुख्य मुद्दों पर सभी की आम सहमति है. पहला, हमारे सभी बच्चों को शिक्षा मिलनी चाहिए. दूसरा, सभी बच्चों और छात्रों के लिए गुणवत्तापरक शिक्षा उपलब्ध होनी चाहिए. और तीसरा, जो शिक्षा हमें मिले, वह हमें मौजूदा स्थितियों के अनुरूप ही नहीं, बल्कि भविष्य के लिए एक प्रगतिशील रास्ता दिखा सके. मैं आम सहमति के माहौल को ध्यान में रखकर ही काम करती हूं.

दिल्ली विश्वविद्यालय के चार वर्षीय पाठ्यक्रम विवाद को आप किस तरह देखती हैं, जो आपके मंत्री बनते ही शुरू हो गया था और प्रेस में आपकी काफी नकारात्मक छवि बन गई थी.
मेरा पूरा ध्यान हमेशा इस बात पर रहा है कि कोई मुद्दा किस तरह छात्रों को प्रभावित करता है. ऐसे 44 कोर्स थे, जिन्हें भारत के राष्ट्रपति की कानूनी मंजूरी हासिल नहीं थी. ऐसे कोर्स थे, जिनके नाम नियामक संस्था यूजीसी ने खारिज कर दिए थे और करीब 70,000 छात्र इन कोर्सों को पढ़ रहे थे, जबकि उन्हें पता था कि इन कोर्सों की कोई कानूनी वैधता नहीं है. इसलिए मेरे सामने चुनौती थी कि क्या मैं यह जानते हुए नया सेशन शुरू होने दूं कि 70,000 छात्र जिन 44 कोर्सों में नाम लिखवाने वाले हैं, वे कानूनी रूप से वैध नहीं हैं या फिर अनजान बनने का नाटक करूं ताकि प्रेस खुश रहे. जो छात्र दिल्ली विश्वविद्यालय में चार साल की कड़ी मेहनत करके डिग्री हासिल करे और बाद में उसे पता चले कि उसकी डिग्री वैध नहीं है तो उस पर जो बीतती, वह कहीं ज्यादा दुखदायी होता.

आम धारणा यह है कि आपने केंद्रीय विद्यालयों (केवी) में तीसरी भाषा के रूप में जर्मन की पढ़ाई पर कड़ा रुख अख्तियार किया...
एक कैबिनेट मंत्री और केंद्रीय विद्यालय संगठन की अध्यक्ष के रूप में मैं ऐसे दस्तावेज पर दस्तखत नहीं कर सकती थी, जो संविधान के सिद्धांतों का उल्लंघन करता हो. यह ऐसी चुनौती है जो मेरी विरासत का हिस्सा है...यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि पर्याप्त विचार-विमर्श के बिना ही एमओयू (केवी में जर्मन भाषा की पढ़ाई के लिए गोथे इंस्टीट्यूट के साथ) पर दस्तखत कर दिए गए थे. बहुत-से लोगों ने आरोप लगाया है कि विदेशी भाषाओं को पढ़ाने की अनुमति नहीं दी जा रही, जो कि गलत है. केंद्रीय विद्यालयों में चीनी, जापानी, फ्रेंच भाषाएं पढ़ाई जा रही हैं और हम कह चुके हैं कि इसी तरह जर्मन भी विदेशी भाषा के तौर पर पढ़ाई जानी चाहिए. बहुत-से लोग इस बात को समझना ही नहीं चाहते और इसे गलत तरीके से पेश कर रहे हैं. मैंने सिर्फ इतना कहा है कि जर्मन को भारत की तीसरी भाषा के तौर पर नहीं पढ़ाया जा सकता, जो वास्तविक, वैधानिक और संवैधानिक तौर पर सही फैसला है.

सेशन के बीच में ऐसा करने से छात्रों को मुश्किल नहीं होगी?
यह एमओयू कुछ इस तरह साइन किया गया था कि इसकी अवधि सेशन के बीच में ही खत्म हो रही थी. मेरे पास एक ही विकल्प था कि मैं या तो अगले तीन साल के लिए समझौते पर दस्तखत करूं या जान-बूझकर कानून का उल्लंघन करूं या सत्र के बीच में ही समझौते को खत्म कर दूं.
इससे प्रभावित होने वाले छात्र कक्षा छह से आठ तक के हैं. इनकी कोई बोर्ड परीक्षा नहीं होती है, इसलिए उनका आकलन स्कूल में ही किया जाएगा. पहली बात, यह सिर्फ संस्कृत की बात नहीं है, संविधान के अनुच्छेद 8 में दर्ज किसी भी भाषा को चुना जा सकता है. हमने छात्रों की जरूरतों के अलावा अध्यापन और काउंसिलिंग को नजर में रखा है. जिन छात्रों की जर्मन पढऩे की इच्छा है, वे इसे विदेशी भाषा के रूप में पढ़ सकते हैं. सिर्फ यही प्रक्रिया हमने बदली है.

शिक्षा में भगवाकरण के आरोपों पर क्या कहना है? संस्कृत सप्ताह शुरू करने के आपके फैसले की काफी आलोचना हुई है.
किसी भारतीय भाषा को महत्व देने पर आलोचना क्यों? मैंने 22 भाषाओं में निबंध प्रतियोगिता भी कराई. शुरू की निबंध प्रतियोगिताओं में एक पिंगली वेंकैया पर थी, जो कांग्रेस के नेता थे. हमने इसके लिए तेलुगु, अंग्रेजी और हिंदी में आवेदन स्वीकार किए. क्या आंध्र को प्राथमिकता देने के लिए मेरी आलोचना हुई? मैं सोचती हूं कि मुझे लेकर विवाद इसलिए खड़े किए जाते हैं कि उससे खूब प्रचार मिलता है.
कई संस्थाओं में कोई प्रमुख ही नहीं है और उनकी नियुक्तियां अभी तक लंबित हैं.
कोई भी नियुक्ति उन पदों का विज्ञापन देने के बाद खोज और चयन समितियों के माध्यम से होती है. क्या मैं खुद को उन समितियों पर थोपूं? मैं ऐसा नहीं कर सकती. इस प्रक्रिया को तेज किया गया है, प्रक्रिया पूरी होने में समय तो लगता ही है. संस्थाओं में 2010 और 2011 से ही उनके प्रमुख नहीं हैं. मुझे मंत्री बने हुए अभी सिर्फ छह ही महीने हुए हैं. मजे की बात है कि कभी यह सवाल नहीं पूछा गया कि ये संस्थाएं किसी प्रमुख के बिना 2010-11 से किस तरह चल रही हैं.

आपसे पहले के मानव संसाधन विकास मंत्री ने बड़े पैमाने पर सुधार का एजेंडा तैयार किया था, लेकिन संसद में वे एक भी बिल पास नहीं करा पाए. आपका विधायी और सुधार का एजेंडा क्या है?
मैं सिर्फ यही कहूंगी कि आइआइआइटी विधेयक और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में संशोधन विधेयक पर हमारी आम सहमति थी और संसद उन मुद्दों पर बहुत सकारात्मक रूप से प्रतिक्रिया दे रही है, जो संस्थाओं को मजबूत करने में हमारी मदद करते हैं. वामपंथी दलों, कांग्रेस और बीजेपी को एक ही मंच पर देखना बहुत दुर्लभ बात है—और शिक्षा के मामले में हम ऐसा करने में सफल रहे हैं. शिक्षा में राजनीति नहीं, राष्ट्रनीति दिख रही है.

अगले वर्ष के लिए आपका मुख्य एजेंडा क्या है या शिक्षा के क्षेत्र के लिए मुख्य जोर किस चीज पर है?
शिक्षा कोई एजेंडा नहीं होना चाहिए. जब यह एक एजेंडा बन जाती है तो कई समस्याएं जुड़ जाती हैं. मंत्री के तौर पर मेरा काम एक मंच उपलब्ध कराना है ताकि लोग एक-दूसरे से संवाद कर सकें. हमें बताएं कि हमारे छात्रों और हमारी संस्थाओं के लिए सबसे अच्छा क्या है. हमने यही किया है.

आरोप हैं कि आरएसएस आप पर अपना एजेंडा थोप रहा है. आप इसके नेताओं और आरएसएस की ओर झुकाव रखने वाले लोगों के साथ कई बैठकें कर चुकी हैं.
जब मैं (असम के मुख्यमंत्री तरुण) गोगोई, (केरल के मुख्यमंत्री उम्मन) चांडी, (पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री) ममता बनर्जी से मिलती हूं तो इस बारे में कुछ नहीं कहा जाता क्योंकि इससे मसालेदार खबर
नहीं बनती. मैं सभी से मिलती हूं, लेकिन मैं वही काम करती हूं जो संविधान की मर्यादा में होता है. मैं आरएसएस के लोगों के साथ मुलाकात को कोई आरोप नहीं मानती.

माना जाता है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय का बहुत-सा काम आगे नहीं बढ़ पा रहा क्योंकि बहुत-सी फाइलें अटकी हुई हैं.
मैं समझती हूं कि जो लोग मुझे निशाना बनाते हैं, उन्हें शायद मेरे बारे में मालूम नहीं है. मुझे पस्त करना आसान नहीं है. आप मुझ पर हमला कर सकते हैं, मेरा अपमान कर सकते हैं, गाली दे सकते हैं, ट्विटर पर धमकी दे सकते हैं...लेकिन मैं वही करूंगी, जो जिम्मेदारी मुझे दी गई है—निर्धारित प्रक्रिया को अपनाते हुए काम करना और कानून के दायरे में रहते हुए नीतियों को लागू करवाना.    वामपंथी दलों, कांग्रेस और बीजेपी को एक ही मंच पर देखना बहुत दुर्लभ बात है—और शिक्षा के मामले में हम ऐसा करने में सफल रहे हैं.

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