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कड़वी हकीकत से दो-चार मोदी

निर्णायक और मजबूत सरकार देने के वादे के साथ सत्ता में आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संसदीय राजनीति के जटिल समीकरणों, क्षेत्रीय पार्टियों की प्रतिस्पर्धी महत्वाकांक्षाओं के साथ-साथ संघ परिवार के भावनात्मक मुद्दों से मुकाबिल, चौतरफा घेराबंदी से सरकार के कदम अवरुद्ध.

रवीश तिवारी
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  • 16 मार्च 2015,
  • अपडेटेड 12:19 PM IST

''हर नई सरकार का, बकौल मीडिया के साथी, एक 'हनीमून पीरियड" होता है. पिछली सरकारों के पास इस ''हनीमून पीरियड" को सौ दिनों तक या उससे भी आगे खींच लेने की सहूलियत थी. लेकिन यह अनपेक्षित भी नहीं है कि मेरे पास यह सहूलियत नहीं है. सौ दिनों की बात तो भूल जाइए, सौ घंटे से भी कम समय में गंभीर आरोपों का सिलसिला शुरू हो गया है. लेकिन जब कोई सिर्फ और सिर्फ राष्ट्र की सेवा करने के मकसद से काम कर रहा हो तो ये बातें कोई मायने नहीं रखतीं. इसलिए मैं लगातार काम में जुटा हुआ हूं और यही सबसे ज्यादा संतोष की बात है. 
-प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अपने ब्लॉग में, 26 जून, 2014

नारों, जुमलों और हकीकत में एक अजीबोगरीब रिश्ता होता है या कई बार कोई रिश्ता नहीं होता. यह ऐसी पहेली है, जिससे रू-ब-रू प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी हो सकते हैं, बशर्ते वे जरा पीछे मुड़कर देखें और महज नौ महीने पहले किए अपने ही वादों को याद करें. जो वादे उन्होंने तब किए थे, जब उनकी ऐतिहासिक चुनावी जीत की फिजा ताजा थी. मोदी के सिर पर विजय का नया-नया ताज था और हिंदुस्तान अपनी सांसें रोके उन महान बदलावों का इंतजार कर रहा था, जिसका मोदी ने वादा किया था. अर्थव्यवस्था से लेकर प्रशासन तक, विदेश मामलों से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा तक वादों की लंबी फेहरिस्त थी. पूरा देश उसी रौ में था. हनीमून बस शुरू ही हुआ था और नारों तथा जुमलों का कोई खास संदर्भ नहीं था.

रायसीना हिल के सिंहासन पर आसीन होने के दस महीने बाद अब मोदी अगर यह सोचें कि क्या उन वादों का वक्त सही नहीं था, तो उन्हें गलत नहीं ठहराया जा सकता. शुरू-शुरू में तो विजय जुलूस ही निकलता रहा. लाल किले से लेकर न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वायर, सिडनी और राजपथ से होकर गुजरता रहा. फिर नीतियों का गुणगान हुआ. समावेशी आर्थिक नीतियों से लेकर स्वच्छ भारत और मेक इन इंडिया तक का शोर-शराबा गूंजता रहा. फिर महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में चुनावी जीत की सौगात मिली. सफर सुहाना भले न हो पर सुखद जरूर था. और फिर आया दिल्ली विधानसभा चुनाव का जोरदार झटका. तब कहीं जाकर आंख खुली. फिर हकीकत से सामना हुआ. कहीं और नहीं, बल्कि संसद में. विपक्षी दल एकजुट हो गए. यहां तक कि सहयोगी पार्टियां भी नाजुक मुद्दों पर नुक्ताचीनी करने लगीं. भूमि अधिग्रहण बिल, बीमा संशोधन, खदान और कोयला अध्यादेश से लेकर राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव तक में आलोचनाओं की झड़ी लग गई. 

पिछले तीन दशकों में बनी पहली स्पष्ट बहुमत वाली सरकार के मंत्री विपक्ष की खुशामद या चिरौरी करने पर मजबूर हो गए, यहां तक कि बेमानी-से मुद्दों पर भी खेद जताने लगे. राज्यसभा में पार्टी का कमजोर अंकगणित शुरू में तो एक मामूली बाधा लग रहा था, जिस पर सुलह-सफाई से पार पाया जा सकता था. लेकिन वह मामूली बाधा धीरे-धीरे ऐसी पुख्ता दीवार बन गई, जिसे लांघना मुश्किल था. जम्मू-कश्मीर में सत्ता पाने के लिए हुए ऐतिहासिक समझौते की स्याही सूखने से पहले ही उस पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं. जिस पार्टी ने बड़े निर्णायक अंदाज में अपने पूर्ववर्तियों की पॉलिसी पैरालाइसिस को पलट देने का वादा किया था, वह दोहरी पेचीदा व्यवस्था के जाल में उलझकर रह गई. एक ओर स्थानीय पार्टियों की प्रतिस्पर्धी महत्वाकांक्षा है तो दूसरी ओर भावनात्मक मुद्दों को हवा देने को बेचैन संघ परिवार. सब अपनी-अपनी दिशा में खींच रहे हैं. और इस सारी अव्यवस्था के बीच जो सबसे जरूरी चीज नदारद है, वह है सुशासन की कला और सरकार का मसले सुलझाने का कौशल. वह भी ऐसे वक्त में जब चैबीसों घंटे टीवी न्यूज चैनलों और बेरहम सोशल मीडिया की तीखी नजरें सब तार-तार करने पर उतारू हों.

मुश्किलों के संकेत तो संसद के शीतकालीन सत्र में ही मिल गए थे, जब संघ परिवार के ''घर वापसी" के मुद्दे पर राज्यसभा में विपक्ष एकजुट हो गया और सदन की कार्यवाही बाधित होने लगी. पहले तो सरकार आनाकानी करती रही, फिर कहा कि उसका अपने सैद्धांतिक पैरोकार संघ परिवार के पुनर्धर्मांतरण के मुद्दे से कोई लेना-देना नहीं है. सरकार का विधायी कामकाज ठप पड़ गया. लेकिन आने वाले संकट के सामने तो यह कुछ भी नहीं था. बेपरवाह सरकार को इसकी जरा भी भनक नहीं थी. सरकार तो सोच रही थी कि शीतकालीन सत्र के बाद जल्द ही वह अध्यादेशों के चाबुक लहराएगी और विपक्ष बगलें झांकता नजर आएगा.

इश्तहारों की संसद
राजधानी में एक ईसाई समारोह में पहुंचकर जब मोदी इस धारणा को तोडऩे की कोशिश कर रहे थे कि संघ के ''घर वापसी" कार्यक्रम को मोदी सरकार का मौन समर्थन है, विपक्षी दल एक दूसरे ही मुद्दे पर अपने हथियार पैने करने में मुत्तिला थे. मुद्दा था सरकार का अगला एजेंडा-बड़ी परियोजनाओं के लिए जमीन हासिल करने के लिए यूपीए के भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव. इस बदलाव के खिलाफ संसद के बाहर विपक्षी दलों के विरोध प्रदर्शन ने बीजेपी को हिला दिया है. बजट सत्र की शुरुआत में पार्टी सांसदों की बैठक में मोदी ने इस बिल पर बनी धारणा को तोडऩे की कोशिश की. 

यही नहीं, मोदी ने अपने सांसदों को यह यकीन दिलाने के लिए संघ के पुराने दिग्गज दीनदयाल उपाध्याय तक का हवाला दिया कि भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव किसान विरोधी नहीं है. उन्हें यह भी कहना पड़ा कि पार्टी के सांसद विरोधियों के मिथ्या प्रचार के झांसे में न आएं कि सरकार गरीब विरोधी है. मोदी को बार-बार अपने सांसदों को यह यकीन दिलाने की कोशिश करनी पड़ी कि इससे किसानों को फायदा होगा और विपक्षी पार्टियां इसे किसान विरोधी बताकर लोगों को बरगला रही हैं. आखिरकार सरकार को नौ संशोधन पेश करने पड़े. लेकिन इससे विपक्ष संतुष्ट नहीं हुआ. लोकसभा से विपक्ष वॉकआउट कर गया तो बीजेपी ने बहुमत से विधेयक पास कर दिया. हालांकि उच्च सदन में यही कहानी नहीं दोहराई जा सकेगी. 

राज्यसभा में फिर विपक्ष का वही रुख सामने आया. हालांकि सरकार ने कहा कि उच्च सदन को खदान और खनिज (विकास और नियमन) संशोधन विधेयक, 2015 के मामले में निचले सदन के बहुमत की राय को अनदेखा नहीं करना चाहिए. राज्यसभा ने इसे प्रवर समिति के हवाले कर दिया. इससे बिल एक हफ्ते के लिए लटक गया, जबकि लोकसभा इसे पहले पारित कर चुकी है. विपक्षी दलों को समझाने और मनाने की वित्त मंत्री अरुण जेटली और ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल की कोशिशों का नतीजा सिफर रहा.
राजनैतिक विश्लेषकों का कहना है कि मोदी सरकार के एजेंडे के प्रति विपक्ष का यह कड़वा रवैया अचानक नहीं बना है. उनके मुताबिक, यह मोदी की लोकप्रियता का लाभ लेकर विपक्ष को पूरी तरह दरकिनार करने की सरकार की कोशिशों का ही नतीजा है. राज्यसभा में विपक्ष के नेता कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद इन तीन बिलों-मोटर वाहन (संशोधन) विधेयक, 2015; खदान और खनिज (विकास और नियमन) संशोधन विधेयक 2015 और कोयला खदान (विशेष प्रावधान) विधेयक, 2015 को पास करने की सरकार की योजना पर सवाल उठाते हुए काफी कुछ बोले. आजाद ने कहा, ''कोई भी बिल जांच के लिए संसद की स्थायी समिति के सामने पेश नहीं किया गया और न ही निचले सदन से स्थायी समिति के पास भेजा गया." उन्होंने यह भी कहा, ''यही असली सवाल है क्योंकि अगले साढ़े चार साल हमें इसका सामना करना है." इस वक्त इतना ही महत्वपूर्ण सवाल सरकार के सामने भी है कि लोकसभा में सरकार के निरंकुश बहुमत को क्या राज्यसभा में विपक्ष के वैसे ही निरंकुश बहुमत का सामना करना पड़ेगा, जिस तरह विपक्ष ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान संशोधन पर मजबूर किया है, उससे यह बात साफ जाहिर है.

सहयोगियों के हमले
सरकार के लिए दूसरा सबक यह है कि उसे महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, बिहार और पंजाब में अपनी सहयोगी पार्टियों के किए-धरे के नतीजों का बोझ भी ढोना होगा. अगर ये सहयोगी सरकार के कामकाज में बाधा न भी बनें तो भी स्थानीय राजनीति से प्रेरित उनके कई कदम राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी की छवि को नुक्सान पहुंचाने वाले हो सकते हैं. संसद का बजट सत्र इस बात का प्रमाण है कि कैसे मोदी सरकार अपनी सहयोगी पार्टियों की शिकायतों और नुक्ताचीनी का पहले ही निबटारा करने में असफल रही. इससे राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी की फजीहत भी हुई.

मसलन, भूमि अधिग्रहण अधिनियम में सुधारों के मामले को ही लें. इस मुद्दे पर बीजेपी के अधिकांश सहयोगी दल-शिवसेना, अकाली दल, लोक जनशक्ति पार्टी और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी सभी अलग ही सुर में बात कर रहे थे. उनके सुर इन सुधारों के खिलाफ विपक्ष की आवाज को ही मजबूती दे रहे थे. लोक जनशक्ति पार्टी और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी तो बाद में सुधारों पर सहमत हो गईं. लोकसभा में बहस के दौरान अपने शक-शुबहे का इजहार करने के बाद अकाली दल ने भी अपनी सहमति दे दी. शिवसेना ने और चार कदम आगे बढ़कर काम किया. उसने मतदान में हिस्सा ही नहीं लिया, जिससे सत्तारूढ़ दल की काफी फजीहत हुई. सियासी गफलत का दूसरा प्रत्यक्ष उदाहरण जम्मू-कश्मीर में देखने को मिला, जब पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और बीजेपी के गठबंधन वाली सरकार में अलगाववादी नेता मसर्रत आलम को रिहा किए जाने पर आपाधापी मची.

अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि शिवसेना के विरोध की मुख्य वजह दो साल बाद होने वाले मुंबई महानगरपालिका के चुनावों में बीजेपी के साथ गठबंधन को लेकर उसका असुरक्षा बोध है. शिवसेना को डर है कि विधानसभा की तरह इन चुनावों में भी बीजेपी अपना वर्चस्व चाहेगी. सो, शिवसेना समय रहते इस मसले को स्पष्ट कर देना चाहती है ताकि वह बृहन्नमुंबई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन (बीएमसी) में अपने भविष्य की योजना बना सके. लेकिन बीजेपी के टालमटोल भरे रवैए ने शिवसेना को उसे सुई चुभोने और शर्मिंदा करने के लिए मजबूर कर दिया.

राजनैतिक विश्लेषकों का कहना है कि बीजेपी को अपना राजनैतिक सबक सीखने की जरूरत है क्योंकि इससे भी ज्यादा विवादास्पद मुद्दे अभी कतार में हैं, जैसे कि बांग्लादेश के साथ भूमि सीमा समझौता. हालांकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का रुख इस समझौते के समर्थन की दिशा में मुड़ता हुआ दिख रहा है. मोदी सरकार को संघ परिवार को भी विश्वास में लेना होगा, क्योंकि यूपीए के सत्ता में रहते हुए संघ ने सरकार के इसी कदम का विरोध किया था और बीजेपी को रोका था. कश्मीर में सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम को हटाना दूसरा नाजुक मुद्दा है, क्योंकि पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी भी इसे लेकर काफी संवेदनशील है. सरकार के अंदरूनी सूत्रों की मानें तो एक रैंक-एक पेंशन का मुद्दा भी सिरदर्द बन सकता है. 

आगे हैं और भी बड़े संकट 
स्मृति ईरानी के नेतृत्व में मानव संसाधन विकास मंत्रालय भी आने वाले महीनों में मुश्किलों का सबब बन सकता है. ईरानी पहले ही कह चुकी हैं कि यूपीए सरकार द्वारा पारित शिक्षा का अधिकार कानून के कुछ प्रावधानों पर फिर से विचार किए जाने की जरूरत है, खासकर निरंतर और व्यापक मूल्यांकन और आठवीं कक्षा तक विद्यार्थियों को फेल न किए जाने का प्रावधान. इसके अलावा मंत्रालय दसवीं की बोर्ड परीक्षाओं के संदर्भ में भी बदलाव करना चाहता है.

पूर्व यूपीए सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने परीक्षा से जुड़े विद्यार्थियों के तनाव को कम करने के लिए दसवीं की बोर्ड परीक्षाओं को वैकल्पिक कर दिया था. बीजेपी सरकार अकादमिक चुस्ती के कमजोर पडऩे का हवाला देते हुए बोर्ड परीक्षाओं को फिर से शुरू करने पर विचार कर रही है. नए कानून के जरिए सरकार इन बदलावों को लागू करने की योजना बना रही है. सरकारी सूत्रों का कहना है कि यह सरकार पहले ही पाठ्यपुस्तकों  के भगवाकरण के आरोपों से घिरी हुई है. ऐसे में शिक्षा से संबंधित कोई भी नया बिल बीजेपी के राजनैतिक कौशल का इम्तिहान होगा. 

सरकार के रणनीतिकारों का कहना है कि उन्हें यह एहसास होने लगा है कि विधायी मोर्चे पर चुनौतियां भारी हैं और वे इससे मुकाबला करने की वैसी ही तैयारी कर रहे हैं, जैसे यूपीए के सत्ता में रहते हुए कांग्रेस ने किया था. मसलन, बीजेपी राज्यसभा में भूमि अधिग्रहण बिल को पास कराने के लिए क्षेत्रीय विपक्षी दलों पर हाथ आजमाने और उन्हें तोडऩे की कोशिश कर सकती है. जो भी हो, कांग्रेस को भी बीजेपी की इन सारी संभावित रणनीतियों का अंदाजा है. इसलिए वह भी उन्हें बीजेपी की ओर जाने से रोकने के लिए उनके साथ मधुर संबंध बनाए रखने की कोशिश कर रही है.

बीजेपी भी बीच का रास्ता निकालने की कोशिश में है. इसका एक संकेत यह है कि राज्यसभा में प्रवर समिति के तय समय-सीमा के भीतर रिपोर्ट दिए जाने की बात है. सरकार ने विपक्ष की मांग के मुताबिक विधेयक सेलेक्ट कमेटी को सौंप दिया. लेकिन साथ ही वह यह भी तय करने की कोशिश कर रही है कि निश्चित समय में विधेयक सदन में लौट आए. सरकार के एक बड़े पदाधिकारी कहते हैं, ''अगर हमें कम समयावधि की प्रवर समिति मिले, जो कानून बनने की आगे की प्रक्रिया के लिए समय पर रिपोर्ट दे दे तो इससे सरकार की व्यवस्था पर कोई असर नहीं पड़ेगा."

दूसरा महत्वपूर्ण बदलाव खुद मोदी के रवैए और अंदाज में साफ दिखाई दे रहा है. अपनी स्वेच्छाचारी कार्यशैली के लिए ख्यात व्यक्ति का अहंकार थोड़ा कम हो रहा है. उन्हें अपनी और अपनी सरकार की सीमाओं का एहसास हो रहा है. वे जैसे-जैसे अपने काम को समझ रहे हैं, उनके पांव जमीन पर आ रहे हैं. कुछ उदाहरणः एक ईसाई समारोह को संबोधित करना और उस समुदाय को धार्मिक आजादी का आश्वासन देना. मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव के करीब जाना और उनके पारिवारिक वैवाहिक उत्सव में शरीक होना. मुख्य विपक्षी दल के साथ सौहार्दपूर्ण रिश्ते बनाने के लिए संसदीय मामलों के मंत्री और अपने वरिष्ठ सहकर्मी वेंकैया नायडू को दो बार सोनिया गांधी से मिलने के लिए भेजना, राजनाथ सिंह को भूमि अधिग्रहण बिल के मामले में किसानों से बातचीत करने और उन्हें सरकार के पक्ष में करने की जिम्मेदारी सौंपना, अतीत को भूलकर अपनी तल्ख प्रतिद्वंद्वी और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मिलना. जिन लोगों ने गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद से मोदी को करीब से देखा है, वे उनके रवैए में बदलाव को भी महसूस कर रहे हैं. मोदी काफी बदले-बदले से दिख रहे हैं. ये बातें बीजेपी सरकार के समर्थकों के लिए स्वागतयोग्य हैं. 

मोदी के पास दूसरा विकल्प यह है कि वे सारे आरोप किसी और के सिर मढ़ दें. जैसा उनके पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह ने किया था. या फिर इस व्यवस्था में रहते हुए ही कोई और रास्ता निकालें. बीजेपी के नेता कहते हैं कि मोदी सरकार को इस देश का शासन संभालने की कला में महारत हासिल करनी होगी, जहां लोकतंत्रवादी लक्ष्य हासिल करने के लिए ''सहकारी संघवाद" के नारों से कहीं ज्यादा आदेश लेते और देते हैं. इस सरकार के इरादों पर कोई शुबहा नहीं है, लेकिन उन्हें कार्यरूप में परिणत करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है. मोदी और उनकी टीम को अपने शासनकाल की शुरुआत में ही यह सबक मिल गया है. अब वे उससे कितना सीखते हैं और अपने तरीकों को कितना बदलते हैं, वह इसी बात पर निर्भर करेगा कि वे कितना सचमुच करके दिखा पाते हैं.
(साथ में अनुभूति विश्नोई)

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