बैंकों को गच्चा देने के चक्कर में कर्ज के भंवर में फंस जाते हैं किसान!

किसानों की मदद करने के लिए देश में सहकारी बैंक हैं. वह देश में छोटे से छोटे किसानों तक ऐसे वक्त में कर्ज लेकर पहुंचते हैं जब उसे नकद धनराशि की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ती है. अपने खेत में बुआई के लिए.

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किसान किसान

राहुल मिश्र

  • नई दिल्ली,
  • 14 जून 2017,
  • अपडेटेड 3:06 PM IST

किसानों की मदद करने के लिए देश में सहकारी बैंक हैं. वह देश में छोटे से छोटे किसानों तक ऐसे वक्त में कर्ज लेकर पहुंचते हैं जब उसे नकद धनराशि की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ती है. अपने खेत में बुआई के लिए.

बेहद आसान है किसान कर्ज का गणित

सहकारी बैंक आमतौर पर एक हेक्टेयर खेत में कुछ खास फसल की बुआई के लिए 46,000 रुपये तक कर्ज देती हैं. इस एक हेक्टेयर पर खड़ी की गई फसल किसान को लगभग 1 लाख रुपये तक कमाकर देती है. किसान अपनी कुल कमाई से 46,000 रुपये के कर्ज की रकम लौटाकर लगभग 54,000 रुपये का मुनाफा प्रति हेक्टेयर खेत पर कर लेता है.

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खेत से बाजार तक

कोऑपरेटिव बैंक से कर्ज लेकर खेती करने के बाद जैसे ही किसान की फसल कटने और बिकने के लिए तैयार होती है उसकी चुनौती फसल के लिए उचित ग्राहक खोजने की रहती है. आमतौर पर किसान को सरकार द्वारा निर्धारित समर्थन मूल्य पर अपनी फसल बेचने का मौका मिल जाता है. लेकिन यहां मौजूद सहकारी बैंक किसान की एक लाख रुपये की सेल से अपने कर्ज का 46,000 रुपये काट लेते हैं. किसान के हाथ में फसल बेचकर 54,000 रुपये बचते हैं. लिहाजा, कह लें कि कर्ज लेकर खेती करने में किसान के पास सिर्फ आधी कमाई बचती है.

कर्ज के लिए सीरियस नहीं किसान

सहकारी मंडियों में सहकारी बैंक की निगरानी में फसल बेचने पर किसान को सिर्फ फसल की कमाई का आधा हाथ लगता है. लिहाजा ज्यादातर किसान इन सहकारी मंडियों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अपनी फसल बेचने से कतराते हैं. ऐसे में किसान अपनी फसल को औने-पौने दाम पर (60 से 70 हजार रुपये) मंडी में बैठे बिचौलियों को देकर अपना मुनाफा निकाल लेते हैं. नतीजा, कर्ज को सीरियसली नहीं लेने से किसानों को प्रति हेक्टेयर अपनी कमाई में इजाफा करने का मौका मिल जाता है.

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अब कर्ज का क्या होगा?

बैंक से बुआई के लिए कर्ज लेने के बाद किसान अपनी कमाई बढ़ाने के लिए फसल को कोऑपरेटिव मंडियों में न बेचकर बिचौलियों के हवाले कर देता है. ऐसा करने से किसान को अधिक मुनाफा हो जाते हैं जबकि उसे कोऑपरेटिव मंडियों से कम दर पर अपनी फसल बेचनी पड़ती है. इसके अलावा मंडी पर फसल बेचने के लिए किसानों को अपनी लागत पर फसल को मंडी पहुंचाना पड़ता है. साथ ही उसे मंडी में कई दिनों तक फसल बिकने का इंतजार भी करना पड़ता है.

किसानों को चुनाव का इंतजार

मंडी में फसल बिकने के बाद जहां किसान को कर्ज काटकर भुगतान मिलता है वहीं उसे कैश भी मिलने की उम्मीद नहीं रहती. आम तौर पर कोऑपरेटिव बैंक किसान के मुनाफे की रकम का ड्राफ्ट या चेक बनाकर जारी करते हैं. लिहाजा, फसल बेचने के 15-20 दिन के बाद उन्हें कैश मिल पाता है. इन दिक्कतों से बचने के लिए किसान बिचौलियों पर ज्यादा भरोसा इसलिए करता है क्योंकि उसके हाथ में अधिक पैसा आने के साथ-साथ उसे फसल का सौदा करते हुए पूरा पैसा कैश में मिल जाता है.

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