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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 36 राफेल जेट विमानों की नाटकीय खरीद पर कई अतिवादी प्रतिक्रियाएं देखने को मिली हैं. पहली, यह फैसला साहसिक है और ऐसे नेता ने किया है जो रक्षा खरीद में मौजूद तमाम अवरोधों को तोड़ने से डरता नहीं है. दूसरी प्रतिक्रिया यह है कि मिग श्रृंखला वाले विमानों (मिग-29 को छोड़कर) के अप्रासंगिक हो जाने के चलते तेजी से कमजोर हो रहे इंडियन एयर फोर्स ऑर्डर ऑफ बैटल (ऑर्बेट) में पैदा हुई निर्णायक कमी को पूरा करने के लिए यह घबराहट में लिया गया फैसला है जो रक्षा खरीद के मामले में जोड़-जुगाड़ की हमारी मानसिकता का विशिष्ट उदाहरण है.
दोनों ही दलीलों में सचाई है, हालांकि मैं पहले नजरिये से ज्यादा इत्तेफाक रखता हूं. यह साहसिक फैसला है जो गतिरोध को तोड़ता है और फिलवक्त ही सही, दिल्ली में चलने वाली भीषण लॉबिइंग और खुलासों की जंग पर विराम लगाता है. दूसरे नजरिये में भी कुछ दम है. आखिर भारत ने अपनी रणनीतिक हालत को इतना कमजोर कैसे कर लिया कि उसे जल्दबाजी में करीब पांच अरब डॉलर की यह खरीद करनी पड़ गई, गोया कोई युद्ध चल रहा हो? दुनिया की चौथी सबसे बड़ी फौज रखने वाले और परंपरागत रूप से दुनिया के सबसे बड़े हथियार आयातक के तौर पर सूचीबद्ध देश के लिए यह शर्म की बात होनी चाहिए.
स्टॉकहोम स्थित एसआइपीआरआइ के, जो 1990 के डॉलर-मूल्य के आधार पर आयात के आंकड़ों का अनुमान जारी करता है, मुताबिक पांच वर्ष के दौरान (2010-2014) भारत का कुल हथियार आयात 21 अरब डॉलर से कुछ ज्यादा का रहा है जो दूसरे सबसे बड़े आयातक सऊदी अरब का करीब तीन गुना है. पाकिस्तान इससे थोड़ा ही पीछे है जिसके हथियार आयात का मूल्य भारत के एक-चौथाई से कुछ ज्यादा है, हालांकि इस आंकड़े को थोड़ा दुरुस्त किए जाने की जरूरत है ताकि अमेरिका और चीन से आयातित हथियारों का सही आकलन किया जा सके, क्योंकि दोनों ही 'विशेष रिश्तों' वाले आपूर्तिकर्ता हैं. एसआइपीआरआइ के आंकड़ों का मिलान अगर संसद में दिए गए जवाबों के आधार पर अपने पास रुपये में मौजूद आंकड़ों से किया जाए तो वे ठीक जान पड़ते हैं. अरुण जेटली ने संसद को बताया था कि पिछले तीन साल में भारत का हथियार आयात करीब 83,000 करोड़ रु. का था और मनोहर पर्रीकर का कहना था कि पांच वर्षों में यह आंकड़ा 1,03,000 करोड़ रु. है यानी 16 अरब डॉलर. आप इन आंकड़ों को 1990 के डॉलर-मूल्य के आधार पर मापें तो यह 21 अरब डॉलर के एसआइपीआरआइ के आंकड़े को छू जाएगा.
यहां दो बिंदु सामने आते हैः पहला यह, कि इन राफेल जेट विमानों का ऑर्डर देने का मोदी का फैसला समझदारी और साहस भरा था, बिल्कुल अनुभवी चिकित्सक की तरह जो मरणासन्न मरीज को बचाने के लिए सर्जरी करने का जोखिम उठाता है. दूसरा बिंदु सवाल के रूप में हैः आखिर दुनिया की चौथी सबसे बड़ी फौज अचानक आधी रात में आइसीयू में कैसे पहुंच गई कि उसे आपात सर्जरी की जरूरत आन पड़ी?
आप इस स्तंभकार को असहज करने के लिए यह सवाल ऐसे भी पूछ सकते हैं किः श्रीमान, अपने दिमाग का इलाज करवाइए. आखिर आप हथियार खरीद की रैंकिंग में अगले तीन देशों के कुल योग के मुकाबले ज्यादा हथियार खरीद रहे देश पर खरीदने के भय से ग्रस्त होने का आरोप कैसे लगा सकते हैं? ऐसा है तो फिर यह देश निर्णायक हथियारों के मामले में कमजोर कैसे रहा? क्या आप विरोधाभासी बातें नहीं कर रहे?
सवाल बिलकुल वाजिब हैं और मेरे पास जवाब में कहने को सिर्फ इतना है कि यह भारतीय रक्षा नियोजन में मौजूद एकाधिक विरोधाभासों और पहेलियों का ही अक्स है. आप मेरी बात को बेहतर तरीके से समझना चाहें तो सबसे बड़ा आयातक होने की इस संदिग्ध प्रतिष्ठा का मिलान हथियारों की कमी के बारे में सैन्य प्रमुखों के बयानों से करके देखें. इस मामले में मुझे तो सबसे अहम बयान जनरल वी.पी. मलिक का लगता है, जो उन्होंने 1999 में करगिल जंग के शुरुआती दिनों में हताशा में दे डाला था, 'हमारे पास जो कुछ है, हम उसी से लड़ेंगे.' यह बात दुनिया की सबसे उत्कृष्ट और बड़ी फौजों में से एक का मुखिया कह रहा था.
इन वि रोधाभासों की दुनिया को समझने के लिए आपको एकाध किताबें लिखनी पड़ जाएंगी. कुछ किताबें लिखी भी गई हैं. मेरी पसंदीदा पुस्तक आर्मिंग विदाउट एमिंग है जो दक्षिण एशियाई फौजों के अग्रणी जानकार स्टीफन पी. कोहेन और सुनील दासगुप्ता ने मिल कर लिखी है (जो दो दशक पहले इस पत्रिका में मेरे साथ काम करते थे और रक्षा क्षेत्र की रिपोर्टिंग करना सीख रहे थे). ये दोनों अब वॉशिंगटन के ब्रुकिंग्स में रहते हैं और भारत में रणनीतिक चिंतन और नियोजन की संस्कृति के अभाव पर अफसोस जताते हैं. वे कहते हैं कि इस मामले में भारत का सिद्धांत विशुद्ध तात्कालिक जरूरतों से संचालित है और जोड़-जुगाड़ वाला है, जैसा कि बुनियादी ढांचे के तमाम क्षेत्रों के संबंध में खांटी भारतीय नजरिये में दिखता हैः पहले कमी पैदा करो, फिर उससे निपटने की योजना बनाते रहो. इस बारे में मेरा निजी अनुभव मेरे अभिलेखों के बीच कहीं दबा पड़ा होगा.
वह पेंसिल से लिखी एक छोटी-सी पर्ची है जो जसंवत सिंह ने मुझे दी थी. साल्जबर्ग स्थित ''लॉस लियोपोल्डस्क्रॉन में 1994 की गर्मियों में रणनीतिक मामलों पर एक बैठक हुई थी जिसमें जनरल सुंदरजी भारत की रणनीतिक सैद्धांतिकी की कमजोरियों पर अपनी बात रख रहे थे, तब जसवंत सिंह ने मुस्कराते हुए वह पर्ची मुझे पकड़ाई, जिस पर लिखा था, 'मैं भारत की सैन्य राणनीतिक सैद्धांतिकी की पड़ताल करने वाली संसदीय समिति का अध्यक्ष था. हमने निष्कर्ष निकाला था कि हमारे पास न तो कोई रणनीति है और न ही कोई सैद्धांतिकी.'
यह बात आज भी बदली हो, इसके कोई साक्ष्य नहीं हैं क्योंकि अगर ऐसा हुआ होता तो हम 17 साल की बहसों, विवादों और घोटालों के बाद सुपरबाजार से सब्जी चुनने की तर्ज पर लड़ाकू विमान नहीं खरीद रहे होते. हमारी रक्षा खरीद का इतिहास ऐसा ही रहा है, सिवाय 1985-89 के बीच राजीव गांधी के शानदार दौर में, जो बदकिस्मती से खुद ही एक समस्या बन गया और हमारे भीतर खरीदने का भय एक वायरस की तरह पैठ गया. जरूरत पड़ने पर ऐसी छिटपुट खरीदारी का परिणाम यह है कि हमारे सैन्यबल कमियों के चलते लगातार तनाव में रहते हैं. अपवाद के तौर पर 1962 को छोड़ दें तो हर जंग में हमें यही रोग लगा रहा है. हम मानते आए हैं कि 1971 में इंदिरा गांधी और जगजीवन राम ने जंग में जाने से पहले सेना को पूरी छूट और वक्त दिया था कि वह तैयारी कर ले.
इसमें पोलैंड से रूस निर्मित टी-55 टैंकों का थोक में आपात निर्यात और भारी सुखोई-7एस को सेना में लगाया जाना था (जो संघर्षण दर के मामले में सबसे बुरा निकला). आज श्रीनाथ राघवन ने अपनी जबरदस्त शोध से तैयार पुस्तक 1971: ए ग्लोबल हिस्ट्री ऑफ क्रिएशन ऑफ बांग्लादेश में यह सामने ला दिया है कि 1971 में जंग के दौरान इंदिरा गांधी ने गोपनीय तरीके से इजरायल से निर्णायक हथियारों के लिए गुहार लगाई थी जिसमें लंबी दूरी के मोर्टार शामिल थे, हालांकि तब उनसे हमारे कूटनीतिक रिश्ते नहीं हुआ करते थे. ऐसा उस प्रधानमंत्री ने किया जिसकी सरकार को हम अब तक सबसे बड़ी फिलस्तीन समर्थक और इजरायल विरोधी सरकार मानते आए हैं. जाहिर है, इजरायलियों ने भारत की मदद की क्योंकि वे अतीत में भी दो बार ऐसा कर चुके थे.
याद करें कि करगिल की जंग में कैसे भारतीय वायु सेना को शुरुआती झटके लगे थे, जब दो मिग और एक एमआइ-17 लड़ाकू हेलिकॉप्टर गायब हो गए थे और उसमें सवार चालक दल पूरा मारा गया था, सिवाय एक के जिसे युद्धबंदी बना लिया गया था. चौथा विमान फोटो-रिकॉनेसेंस कैनबरा था जिसे उसका चालक दल बेस तक ले आया था. इन सभी पर कंधे से मार करने वाली मिसाइलों से हमला हुआ था. ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि वायु सेना के कमांडर उस वक्त भी दिन की रोशनी में विमान चलाने और हल्के जंगी अभियानों के आदी थे जो मिसाइल युग से पहले की चीज थी. इससे काफी नुक्सान हुआ था जबकि पुराने किस्म के बमों, रॉकेटों और हवाई हमलों से हासिल उपलब्धियां मामूली रही थीं. इतने झटके लगने के बाद एक बार फिर तात्कालिक रणनीति में बदलाव किया गया (याद करें उन चार पुराने वैंपायरों को जिन्हें 1965 की पहली हवाई जंग में छंब में भेजा गया था और जिनका नुक्सान हुआ था, जिसके बाद इनका इस्तेमाल उस जंग में किया ही नहीं गया).
रणनीति बदली तो 1999 में करीब पचास दिनों के ज्यादा प्रभावी अभियान के दौरान वायुसेना को कोई नुक्सान नहीं झेलना पड़ा. न सिर्फ रणनीति बदली बल्कि एक बार फिर आपात स्थिति में इजरायल से मिराज-2000 के लिए लेजर पॉड से लेकर रिग तक आयात किए गए, ताकि रात के अंधेरे में पाकिस्तानी ठिकानों पर सटीक हमले किए जा सकें. अगर आप दिमाग पर जोर डालें या पुराने दस्तावेजों को देखें तो याद आएगा कि जंग के उन निर्णायक दिनों में बाजी पलटने के बाद वायु सेना ने जो वीडियो एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में दिखाया था, वह उसी हमले का था.
हमारा उद्देश्य यहां अदूरदर्शी नीतियों की कोई सूची तैयार करना नहीं है. सिर्फ इस सीमित सवाल की पड़ताल करना है, जिसे एरिका जंग से शब्द उधार लेकर तर्जुमे में कहें तोः आखिर खरीदने से डर क्यों लगता है? एक वजह जो 1987 के बाद से गिनाई जा सकती है, वह बोफोर्स से पैदा हुई हमारी भयग्रंथि है. हर बार हर खरीद में कुछ देरी हो जाती है, वह बोझिल हो जाती है या फिर जैसा कि लुटियन की दिल्ली में कहावत प्रचलित है, अनिश्चय के दुष्चक्र में डालने के लिए कोई फाइल 'परिक्रमा कक्षा में फेंक दी जाती है.' यही बात नई दिल्ली को हथियारों के सौदागरों और दलालों की सबसे आसान चरागाह में तब्दील कर देती है. इसमें एक और नई परिघटना हथियारों के बाजार से जुड़ा व्यावसायिक मीडिया है.
सौदों पर बातचीत, बदलती जरूरतों, घोटाले की लगातार आती बू के बीच जनता मान बैठती है कि इस व्यवस्था को विशाल और शैतानी हथियारों के सौदागर ही चलाते हैं. ठीक उसी वक्त हम दुनिया के किसी भी देश से कहीं ज्यादा हथियार आयात कर रहे होते हैं. एक विरोधाभास देखिएः 1991 के बाद से हमारे सबसे ज्यादा अमेरिका-विरोधी और जोखिम से बचने वाले रक्षा मंत्री रहे ए.के. एंटनी ने आजाद भारत के इतिहास में सबसे ज्यादा सरकारी स्तर की हथियार खरीद अमेरिका से की और वह भी आनन-फानन (सी-130, सी-17, पी-81). मोदी भी इसी आपात खरीद की जोखिमरहित परंपरा को जारी रखे हुए हैं, हालांकि उन्होंने ऐसा एक झटके में कर दिखाया है.
डर से लडऩे का एक ही तरीका है कि उसका सामना किया जाए. बोफोर्स के लिए राजीव को गाली देना फैशन बन चुका है लेकिन सचाई यह है कि 1985-89 का दौर हमारे इतिहास में ऐसा इकलौता था जब हथियारों की खरीद भविष्योन्मुखी और सक्रिय रही, जिसने तब तक रक्षात्मक रही हमारी रक्षा सैद्धांतिकी को दोबारा परिभाषित किया. सुंदरजी की ब्रासटैक्स और चेकरबोर्ड आक्रामक रणनीतियां थीं. उसके बाद से साउथ ब्लॉक के ऊपर बोफोर्स के डरावने बादल मंडराते रहे हैं. हालांकि आज कोई जंग हो जाए तो सेना के तीनों अंग जिन हथियारों का इस्तेमाल करेंगे, उनमें अधिकतर राजीव के मंगाए हुए थे- मिराज से लेकर टी-72 टैंकों तक और मिग की नई श्रृंखला से लेकर बीएमपी बख्तरबंद टैंकों तक, जिसमें बेशक बोफोर्स तो शामिल है ही. इन्हीं वर्षों में हमारा रक्षा बजट जीडीपी के 4 फीसदी की लक्ष्मण रेखा को पार कर गया था.
आज वह बढ़ते हुए जीडीपी के दो फीसदी से भी नीचे आ टिका है और पर्याप्त है. रक्षा आयात की एक सचाई इस तथ्य से भी जांची जा सकती है कि पिछले पांच वर्षों में हमारा रक्षा आयात एक साल में सोने के आयात का दो-तिहाई रहा है और सबसे दिलचस्प बात है कि यह रिलायंस इंडस्ट्रीज के आयात के दसवें हिस्से से भी कम रहा है जबकि सरकारी उपक्रम इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन के आयात के सातवें हिस्से के करीब रहा है. इसके बावजूद रक्षा आयात के इर्द-गिर्द विवाद इसलिए नहीं उठते रहे हैं क्योंकि ये बड़े सौदे होते हैं बल्कि इसकी वजह यह है कि हम टुकड़ों में छिटपुट खरीदारी करते हैं, बेचने वालों की संख्या कहीं ज्यादा है जबकि हमारे तंत्र पर बोफोर्स कांड का प्रतिरोधी रक्षा कवच चढ़ा हुआ है. अगर इस डर को त्याग दिया जाए, तो 1985-89 के बीच हुए व्यवस्थित आधुनिकीकरण का एक नया अध्याय खोला जा सकता है.
आपने ऐसा नहीं किया तो फिर जल्द ही किसी रात अचानक आइसीयू में खुद को पड़ा हुआ पाएंगे. सर्जरी की जरूरत नहीं भी हुई, तो आपात स्थिति में खून जरूर चढ़ाना पड़ जाएगा.