
मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में गुडावल गांव के 50 वर्षीय किसान फतेहसिंह मीणा 2009 तक अपने 25 एकड़ के खेत में खरीफ की मुख्य फसल के तौर पर सोयाबीन उगाते थे. इससे उन्हें 7,000 से 8,000 रु. प्रति एकड़ आय होती थी. उन्होंने 2009 से इसके बजाए बासमती चावल की खेती शुरू की और उनका प्रति एकड़ मुनाफा बढ़कर 40,000 रु. तक पहुंच गया. उनकी संपन्नता दिखाई देने लगी. मीणा अब बाइक छोड़कर बोलेरो से चलने लगे. उन्होंने अपनी दो बेटियों की शादी कर दी और राजधानी भोपाल में एक मकान बनवा लिया. वे कहते हैं, ''बासमती से होने वाली आय के चलते मैंने रबी के अगले सीजन के लिए और जमीन पट्टे पर ले ली, जिससे मेरी आय बढ़ गई."
लेकिन मीणा और उनके जैसे मध्य प्रदेश के डेढ़ लाख किसानों के जश्न के दिन अब लद सकते हैं. करोड़ों रु. का निवेश कर चुके मिल मालिक भी घाटा उठाने वाले हैं. वजहः चेन्नै का रजिस्ट्रार ऑफ ज्योग्राफिकल इंडिकेशन्स (जीआइ) 18 से 28 अक्तूबर के बीच नई दिल्ली में सुनवाई आयोजित करने वाला है. इसमें यह तय किया जाएगा कि क्या मध्य प्रदेश को सिंधु-गंगा तटों के मैदान में स्थित सात राज्यों—पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी यूपी, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश—की सूची में शामिल किया जा सकता है, जिनके लिए दिल्ली स्थित कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास अधिकरण (एपीईडीए) ने 2008 में जीआइ टैग की मांग की थी? एपीईडीए कुछ अधिसूचित उत्पादों के निर्यात के प्रोत्साहन और विकास के लिए जिम्मेदार है. पंजाब और हरियाणा मध्य प्रदेश को इस सूची में शामिल करने का विरोध कर रहे हैं. उनका कहना है कि मध्य प्रदेश में बासमती धान की खेती हाल में शुरू हुई है और इसे बासमती उगाने वाले राज्यों में शामिल करना लंबे दाने वाले खुशबूदार चावल की गुणवत्ता को नुक्सान पहुंचाएगा, जिसे दुनिया बासमती के नाम से जानती है. मध्य प्रदेश इस मसले में आठ साल से फंसा हुआ है. उसका कहना है कि राज्य के किसान परंपरागत रूप से बासमती पैदा कर रहे हैं और इसके समर्थन में वह ऐतिहासिक साक्ष्य भी रख रहा है.
जीआइ की मुहर
कॉपीराइट, पेटेंट या ट्रेडमार्क की तरह जीआइ एक बौद्धिक संपदा अधिकार है जो किसी उत्पाद को एक खास टैग प्रदान करता है जिससे उसके मूल्य समेत उसके निर्यात की संभावना भी बढ़ जाती है (देखें बॉक्सः जीआइ की पहेली). भारत ने विश्व व्यापार संगठन का सदस्य होने के नाते 1994 के ट्रेड-रिलेटेड आसपेक्ट्स ऑफ इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स (टीआरआइपीएस) समझौते की शर्तों के अनुसार, 1999 में ज्योग्राफिकल इंडिकेशन ऑफ गुड्स (रजिस्ट्रेशन ऐंड प्रोटेक्शन) कानून बनाया था. यह कानून 2003 से प्रभाव में आया. किसी उत्पाद को जीआइ दर्जा मिलने के बाद दूसरे उत्पादक अपने माल को असली नहीं बता सकते. कुछ व्यक्तियों का समूह, संगठन या अधिकरण चेन्नै में रजिस्ट्रार के यहां जीआइ टैग के लिए आवेदन करने के योग्य होते हैं, जिसके लिए उन्हें बताना होता है कि उनके उत्पाद को इसकी जरूरत क्यों है. शुरुआती जांच के बाद आवेदन जीआइ जर्नल में प्रकाशित होता है. अगर कोई आपत्ति न हो, तो उस विशेष जीआइ टैग के लिए मंजूरी दे दी जाती है. इस फैसले के खिलाफ अगर कोई अपील होती है तो उसे चेन्नै में बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड (आईपीएबी) के पास भेजा जाता है.
मध्य प्रदेश का मामला
बासमती के मामले में एपीईडीए ने सात राज्यों के लिए जीआइ टैग मांगा था, जिसमें मध्य प्रदेश को छोड़ दिया गया था जहां किसान लंबे दाने वाले चावल भारी मात्रा में उपजा रहे थे. इससे परेशान होकर मध्य प्रदेश सरकार ने केंद्रीय क्षेत्रीय बासमती किसान संघ, केंद्रीय क्षेत्र बासमती निर्यातक संघ और चावल मिलों की कंपनियों के साथ मिलकर 2010 में जीआइ के पंजीकरण कार्यालय में अपील दाखिल की थी. तीन साल बाद जीआइ पंजीयक ने राज्य के दावे को सही ठहराते हुए उसे बासमती उत्पादक क्षेत्र में शामिल करने को कहा. एपीईडीए ने इस फैसले के खिलाफ अपील दाखिल की, जिसमें फरवरी 2016 में मध्य प्रदेश के दावे को खारिज कर दिया गया और जीआइ पंजीयक से मामले को नए सिरे से जांचने को कहा गया. इस दौरान मध्य प्रदेश सरकार ने चेन्नै हाइकोर्ट में मुकदमा दायर कर दिया. कोर्ट ने एपीईडीए से कहा कि जब तक विवाद का निपटारा नहीं हो जाता, तब तक मध्य प्रदेश के बासमती के खिलाफ कोई कार्रवाई न की जाए. राज्य के किसानों को इससे थोड़ी राहत मिली. अब वे अक्तूबर में होने वाली सुनवाई के नतीजे के इंतजार में हैं. बासमती उगाने वाले राज्यों में मध्य प्रदेश को शामिल किए जाने से राज्य और उसके किसानों की संपन्नता बनी रहेगी. इस सूची से बाहर निकाले जाने से उसके मूल्य में गिरावट आएगी, क्योंकि मध्य प्रदेश में पैदा किया जाने वाले लंबे दाने वाले चावल को फिर बासमती नहीं कहा जा सकेगा.
बासमती का आकर्षण
मध्य प्रदेश के किसानों ने दो वजहों से बासमती उगाना शुरू किया. पहला, उत्तर भारत, खासकर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई किसानों ने वहां अपनी जमीन बेच दी क्योंकि जमीन छोटे-छोटे खंडों में बंट रही है और इस वजह से कम मुनाफा दे रही थी. उन्होंने मध्य प्रदेश में सस्ते दरों पर ज्यादा बड़ी जमीन खरीद ली. वे अपने साथ उच्चतर कृषि तकनीकें लेकर आए और बासमती जैसी फसलें भी ले आए. उनकी कामयाबी को देखकर स्थानीय किसान भी बासमती उगाने लगे. दूसरा यह कि ब्रांडेड चावल कंपनियों ने राज्य के कई इलाकों में इस फसल की शुरुआत की. इसके लिए उन्होंने प्रदर्शन किए, परीक्षण किए और बीज तक वितरित किए. इस उत्पाद की विदेशों, खासकर खाड़ी के देशों, यूरोप और अमेरिका में बहुत मांग है. ब्रांडेड चावल कंपनियों ने मध्य प्रदेश से धान की खरीद शुरू कर दी. इसे वे अपने संयंत्रों में प्रसंस्कृत करने लगे और चावल का निर्यात करने लगे. इसके निर्यात की संभावना ने सुनिश्चित किया कि कुछ वर्षों में बासमती धान 4,000 रु. प्रति क्विंटल बिके. इस दौरान किसी और फसल से किसानों को उतनी आमदनी नहीं हुई. आज इसके दाम गिरकर 2,100 रुपए प्रति क्विंटल आ चुके हैं. खरीफ के सीजन में अब भी यह सबसे कारगर फसल है बशर्ते पानी उपलब्ध हो.
धान की खेती का रकबा 2006-07 में 8,094 हेक्टेयर से बढ़कर 2015-16 में तकरीबन 5 लाख हेक्टेयर हो गया. इस उद्योग के अनुमान के मुताबिक, मध्य प्रदेश में 2014-15 में उगाए गए कुल 54.38 लाख टन धान में बासमती की हिस्सेदारी 10 लाख टन है. मध्य प्रदेश में मुख्य तौर पर बासमती की दो किस्में उगाई जाती हैं—पीबी1 और पीबी 1121. भारत से पीबी1 किस्म के कुल निर्यात में मध्य प्रदेश की हिस्सेदारी 30-40 फीसदी है जबकि कुल बासमती निर्यात में राज्य की हिस्सेदारी 10 फीसदी है. फिलहाल, बासमती राज्य के उत्तरी और मध्य क्षेत्र में उगाया जाता है. खासकर भिंड, मुरैना, ग्वालियर, श्योपुर, दतिया, शिवपुरी, गुना, विदिशा, रायसेन, सीहोर, होशंगाबाद, नरसिंहपुर और जबलपुर जिलों में. पिछले पांच साल में मध्य प्रदेश में कृषि वृद्धि दर करीब 20 फीसदी दर्ज की गई है और इससे खेती की आमदनी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में उपभोग में भारी वृद्धि हुई है. इस उछाल में बासमती की खेती का निर्णायक योगदान है.
मध्य प्रदेश का विरोध क्यों?
इसका जवाब सामान्य अर्थशास्त्र में है. मध्य प्रदेश को इस सूची में शामिल किए जाने से पंजाब और हरियाणा की राइस मिलों की विशाल लॉबी प्रभावित होगी. बासमती की खेती के तहत और ज्यादा रकबे को शामिल करने से न केवल पैदावार बढ़ेगी, बल्कि बड़े खिलाडिय़ों का एकाधिकार आसान नहीं रह जाएगा और उनके लिए इसका मूल्य मनचाहे तरीके से नियंत्रित करना मुश्किल हो जाएगा. मध्य प्रदेश के किसानों से बासमती खरीदकर निर्यात करने वाली चावल निर्यात कंपनी एलटी फूड्स लिमिटेड के परामर्शदाता के.के. तिवारी कहते हैं, ''मध्य प्रदेश में बासमती की पैदावार दूसरे राज्यों के मुकाबले बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन राज्य में ऐसी अनछुई जमीन है, जिसमें उत्तर भारत के उर्वरक वाले खेतों के मुकाबले ज्यादा उपज देने की क्षमता है. पिछले कुछ साल में मध्य प्रदेश में गेहूं की खेती काफी बढ़ी है. और अगर ज्यादा क्षेत्र को बासमती की खेती में लगाया गया, तो ऐसी कोई वजह नहीं कि इस फसल की पैदावार में भारी इजाफा न हो." दिलचस्प बात है कि लाहौर के बासमती किसान एसोसिएशन ने भारतीय बासमती को जीआइ टैग दिए जाने के खिलाफ याचिका दाखिल की थी. यह अपील हालांकि खारिज हो चुकी है.
बचाव में मध्य प्रदेश का तर्क
सुनवाई से पहले मध्य प्रदेश की सरकार वे तमाम सबूत इकट्ठे कर रही है, जिनसे दिखाया जा सके कि राज्य में परंपरागत रूप से बासमती पैदा किया जाता रहा है. एपीईडीए ने अगर वारिस शाह की 1766 में लिखी कविता हीर रांझा और वीर सांघवी तथा रश्मि उदय सिंह जैसे पाककला विशेषज्ञों के हलफनामे का उद्धरण यह साबित करने के लिए दिया है कि परंपरागत रूप से सिंधु-गंगा का मैदान ही बासमती की उपज का स्थल रहा है, तो मध्य प्रदेश के अफसर अब ऐतिहासिक रिकॉर्ड छान रहे हैं जिससे साबित किया जा सके कि राज्य में लंबे समय से बासमती उपजाया जा रहा है. इनमें ग्वालियर राजघराने का 1938-39 का एक पुराना दस्तावेज है जो बासमती के बीजों को बांटे जाने का हवाला देता है. ग्वालियर से ही एक और दस्तावेज 1944-45 का है जो देहरादून से बासमती के बीजों को लाने की बात करता है. चावल विकास निदेशालय, पटना की एक रिपोर्ट 1908 में मध्य प्रांत (जिसका अधिकतर हिस्सा अब मध्य प्रदेश में है) में बासमती की खेती का हवाला देती है. ऐसे दस्तावेज हैं जो एमपी को बासमती के ब्रीडर बीजों के आवंटन, राज्य के कृषि विश्वविद्यालयों में उनके प्रशिक्षण की बात करते हैं. कुल मिलाकर ऐसे 20 से ज्यादा सबूत मौजूद हैं.
इन सबूतों के अलावा मध्य प्रदेश सरकार यहां उगाए जाने वाले बासमती की परीक्षण रिपोर्ट हैदराबाद के सेंटर फॉर बासमती डीएनए एनालिसिस, मुंबई के रिलायबल एनालिटिक्स लैब और जबलपुर के जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों से लाकर प्रस्तुत कर रही है. इनमें पाया गया है कि मध्य प्रदेश में पैदा किया जाने वाला बासमती एपीईडीए के मानकों को पूरा करता है. मध्य प्रदेश ने अपने उन विशेष क्षेत्रों को हाइलाइट करता मानचित्र भी पेश किया है, जिन क्षेत्रों की श्कृषि-जलवायु, मिट्टी और तापमान मानदंड" सिंधु-गंगा के मैदान की तरह ही हैं. बावजूद इसके सरकार के दावों को खारिज कर दिया गया. राज्य सरकार में कृषि विभाग के प्रधान सचिव राजेश राजोरा कहते हैं, ''हमने मध्य प्रदेश में बासमती की खेती के समर्थन में पर्याप्त साक्ष्य जमा कर लिए हैं. हमें भरोसा है कि राज्य का दावा जीआइ पंजीयक में मान लिया जाएगा."
अगर मध्य प्रदेश के बासमती को जीआइ टैग नहीं मिला तो?
अगर मध्य प्रदेश के बासमती को जीआइ टैग नहीं मिला तो ऐसे में न केवल किसान बल्कि चावल मिलों में भारी पैसा निवेश कर चुकी कई कंपनियां बुरी तरह प्रभावित होंगी. एलटी फूड्स के अलावा नर्मदा सीरियल्स और एसएसए इंटरनेशनल नाम की दो अहम कंपनियां हैं जो प्रदेश में धान खरीद कर उससे चावल निकालती हैं. इसके अलावा प्रदेश में 15 से ज्यादा छोटी-बड़ी चावल मिलें पिछले आठ वर्षों में स्थापित हुई हैं. तिवारी के मुताबिक, इन पर कुल निवेश करीब 300 करोड़ रु. है. ये मिलें कांडला बंदरगाह से चावल निर्यात करती हैं.
मध्य क्षेत्र बासमती किसान संघ के अध्यक्ष और रायसेन जिले के हरसीली गांव के राजेश सिंह कहते हैं, ''हम कानून तो नहीं समझते पर इतना सोचते हैं कि किसान अपने लिए बेहतर कर सके. बासमती चावल की खेती हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ विकल्प है. सोयाबीन जैसी फसलें नाकाम हो गई हैं. इसलिए इस बहस का नतीजा हमारे लिए निर्णायक होगा."