
एक्टरः शाहिद कपूर, तब्बू, केके मेनन, श्रद्धा कपूर, इरफान, नरेंद्र झा, आमिर बशीर
डायरेक्टरः विशाल भारद्वाज
राइटरः विशाल और बशारत पीर
लिरिसिस्टः गुलजार साहब
म्यूजिकः विशाल भारद्वाज
ड्यूरेशनः 2 घंटे 42 मिनट
रेटिंगः 5 में 5 स्टार
जगह, श्रीनगर के एक गांव में रहने वाले सर्जन डॉ. हिलाल मीर का मकान. समय, नब्बे के दशक का शुरुआती दौर. किरदार, डॉ. मीर और उनकी बीवी गजाला. हालात, डॉ. मीर कुछ उग्रवादियों को इलाज के वास्ते घर में पनाह दे चुके हैं. और ऐसे में डरी हुई गजाला अपने शौहर हिलाल से पूछती है. किस तरफ हैं आप. कुछ ठहरकर पूरी संजीदगी के साथ आंखें मिला डॉक्टर साहब जवाब देते हैं. जिंदगी.
इस कथन के साथ शेक्सपियर के नाटक से प्रेरित और कश्मीर की पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्म 'हैदर' अपना टैंपो सेट करती है. जिंदगी जो आजादी और आतंकवाद के बीच अधलटकी झूल रही है. और सियासत के फेर में न मालूम कितनी ही जिंदगियां अपनी सांसों की डोर को मजबूती से थामे नाउम्मीदी के बर्फीले दौर में पूरी गर्माहट के साथ चीख रही हैं. चीखों के बाद पैदा हुए सन्नाटे से बुनी गई कहानी है 'हैदर'.
एक फिल्म समीक्षक के तौर पर आप ऐसी ही फिल्मों का इंतजार करते हैं. दिनों, हफ्तों, महीनों और कई बार तो बरसों. क्योंकि 'हैदर' जैसी फिल्में आपको अपने कहन के ढंग, विषय की जटिलता को बरतने के अंदाज, किरदारों के रेशों की गठन, संगीत, अदाकारी, संवाद और इन सबके कुल जमा जादुई असर से समृद्ध करती हैं. सिनेमा का एक नया पाठ, एक नया सबक मुहैया कराती हैं. अगर आप अच्छे सिनेमा के शौकीन हैं, तो इस फिल्म को किसी भी कीमत पर देखने जाइए.
हैदर की बेइंतहां बेबसी
'हैदर' कहानी है हैदर नाम के एक लड़के की. उसे उसके पिता डॉ. मीर कश्मीर से दूर अलीगढ़ पढ़ने भेज देते हैं. ताकि बेटा अमन भंग के दौर में महफूज रहे. इसी दौरान उग्रवादियों को पनाह देने के जुर्म में पकड़े गए डॉक्टर गायब हो जाते हैं. मातमपुर्सी के लिए पहुंचा हैदर देखता है कि उसकी मां गजाला तो उसके चाचा और पेशे से वकील खुर्रम के साथ कहकहे लगा रही है. हैदर के भीतर कुछ दरक सा जाता है. और इसके साथ ही एक कशमकश की शुरुआत होती है.
आखिर खलनायक कौन है? भारतीय स्टेट, जो हैदर पिता को पकड़कर ले गया. पाकिस्तान, जो इन चरमपंथियों को बढ़ावा दे रहा है. इन दोनों के प्यादे बने कश्मीर के सियासतदां. उसकी मां, जिसके चेहरे पर उस वक्त शिकन नहीं है, जिस वक्त हैदर मौजूद नहीं है. उसका चाचा खुर्रम, जो उसकी मां से दिल्लगी कर रहा है और आखिर में दोनों की रजामंदी से उनका निकाह भी हो जाता है या फिर खुद हैदर की बेइंतहां बेबसी और उलझन.
बहरहाल, हैदर अपनी दोस्त और माशूका और पेशे से पत्रकार आर्शिया और उसके पुलिस कप्तान पिता के साये तले बाप की तलाश शुरू करता है. इस दौरान वह मां और चाचा के बीच पनपते रिश्ते की तपिश से भी झुलसता है. खुद अपने हिस्से की ऊष्मा भी आर्शिया से हासिल करता है. और तभी सियासत दो अलग अलग चेहरों के साथ उसकी जिंदगी में भी नुमायां होती है. एक उजबक चाल वाला आदमी रूहदार उसे उसके बाप के बारे में, उनके पैगाम के बारे में बताता है. इधर खुर्रम है, जो इन सिलसिलों के बारे में अपने हिस्से का सच या कहें कि बयान हैदर के सामने पढ़ता है. इन सबके बीच हैदर अपने इंतकाम के मंसूबों को अमली जामा पहनाने में जुट जाता है.
'हैदर' फिल्म के हर किरदार को एक रंग में नहीं रंगा जा सकता है. और यही इस फिल्म की एक बहुत बड़ी खूबी बन जाती है. आर्शिया का बेपरवाह नाच देखकर मुग्ध खिलखिलाहट के सिंहासन पर राजाओं सा बैठा हैदर. लाल चौक पर राजनीति की खिल्ली उड़ाता हैदर. बाप से प्यार करता, मगर मां के इमोशनल ब्लैकमेल से संचालित होता हैदर. खूंरेजी अंदाज में मिशनरी तरीके अख्तियार करता हैदर.
ये सिर्फ एक नमूना है. हर किरदार की यूं हीं कई परतें नजर आती हैं. और जाहिर है कि यह मुमकिन हुआ है सबसे पहले गहराई में उतरकर लिखी गई कहानी, स्क्रीनप्ले और संवादों के चलते. कश्मीर बेस्ड पत्रकार बशारत पीर की किताब 'कर्फ्यूड नाइट्स' आप सबको पढ़नी चाहिए. कश्मीरियों के हिस्से आया एक सच समझने के लिए. और इन्हीं बशारत ने विशाल के साथ मिलकर पहले 'हैमलेट' के मूल ढांचे को समझा. और फिर उसे भारतीय जमीन पर जिंदा किया.
एक्टिंग ऐसी कि जिस्म धड़कना बंद कर दे
एक्टिंग की अगर बात करें, तो मुझे याद आ रहा है तमाम लोगों का शाहिद कपूर को चला हुआ हथियार बताना. इसकी उनके पास अपनी वजहें भी थीं. मगर इस फिल्म के जरिए शाहिद ने बता दिया कि 'कमीने' महज एक इत्तफाक नहीं थी. इस लड़के ने कई जगह ऐसा अभिनय किया है कि उसे देखते हुए जिस्म धड़कना और सांस लेना भी भूल जाता है.
श्रद्धा कपूर ने भी आर्शिया के रोल को जो जिंदगी बख्शी है. वह एक किस्म की तसल्ली और आस्था मुहैया कराती है. सो कॉल्ड मेनस्ट्रीम सिनेमा की यह ग्लैमरस न्यू एंट्री ऐसा बेदाग किरदार किस खूबसूरती से निभाती है. अब बात तब्बू, केके मेनन और इरफान की. मुझे याद आ रहा है तुलसीदास जी का लिखा कुछ. महाकवि ने रामचरित मानस में एक जगह जब ये समझा कि सारी उपमाएं चुक गई हैं, तब लिखा, 'राम से राम. सिया सी सिया.' यानी इन दोनों को और किसी भी चीज के सहारे बखाना जाए, तो वह नाकाफी है. कुछ ऐसा ही इन तीन एक्टरों के बारे में कहने का जी करता है.
हैदर का नाम अगर गजाला भी होता, तो कुछ कमबेशी नहीं होती. इसी से आप समझ लीजिए कि फिल्म की रीढ़ तब्बू का किरदार है. और कहानी का द्वंद्व भी हैदर और गजाला का ही है. खुर्रम के चालबाज, मगर एकांत में दुआ के लिए थरथराते हाढ़ बढ़ाए इंसान को खूब जिया. उन्होंने मर्द के अधिकारीवादी और अपने कथित हक को पाने के लिए हर मुमकिन साजिश करते रवैये को सलाहियत दी है. इरफान रूहदार के रोल में कुछ देर को आते हैं. मगर जब वह आते हैं, तो जैसे नसीम आती है. और उस वक्त आप सब कुछ भूलकर एक सांप की तरह हो जाते हैं. सपेरे की बीन पर सुध बिसार डोलते.
फिल्म के बाकी किरदारों के लिए भी जितना लिखा जाए उतना कम है. हैदर के बाप के रोल में नरेंद्र झा हों. या फिर सलमान का रोल करते दो एक्टर. भारतीय नाट्य परंपरा में विदूषक के जिम्मे हास के हालात पैदा करने का जिम्मा आता है. शेक्सपियर के यहां भी ऐसा ही है, मगर एक अतिरिक्त जिम्मेदारी के साथ. उनके कॉमिक किरदार त्रासदी के भी अंतरंग साझेदार होते हैं. 'हैदर' में वीडियो लाइब्रेरी चलाने वाले दो भाई और सलमान के महा विकट फैन इस फर्ज को बखूबी अंजाम देते हैं. उनका होना फिल्म को एक अलग ही कोने में लेकर जाता है.
'हैदर' के किरदार सिर्फ जिस्म, जुबान और जान वाले ही नहीं है. घाटी भी अपनी मौजूदगी का बिना बोले एहसास कराती है. और यही तर्क संगीत के ऐवज में भी दिया जा सकता है. गुलजार के लिखे एक एक गीत को आप एकांतिक साधना के दौरान धूनी रमाने के लिए बार बार लगातार सुन सकते हैं. और ये शब्द जिस सुर की अलगनी पर लटक झूमते हैं. उसे बनाया है विशाल ने. कहीं सरल, तो कहीं प्रवाहमान तो कहीं भरपूर नाटकीयता लिए ये संगीत फिल्म का एक और अहम किरदार है.
फिल्म के डायलॉग विषय की पेचीदगी को बिना लाउड हुए व्यक्त कर देते हैं. अपने पैगाम में हैदर से डॉ. मीर बकौल रूहदार कहते हैं. मेरा इंतकाम लेना बेटे. रूहदार पूछता है. और बीवी का क्या. तो मीर बोलता है. उसे अल्लाह के इंसाफ के लिए छोड़ देना. और जब इंसाफ की तराजू हैदर के हाथ लगती है. तो वह बोलता है. अपनी मां. आप जहर खूबसूरत हैं. खूबसूरती किसी एक टुकड़े तक महदूद नहीं रहती. अपनी कब्र खोदो और सो जाओ. या फिर, किसका जनाजा जा रहा है, किसी मुर्दे का, जैसे संवाद सूक्ति की तरह हजार व्याख्याएं अपने गर्भ में पाल सकते हैं.
विशाल भारद्वाज अदभुद चितेरे हैं. 'मकड़ी', 'ब्लू अंब्रेला' और 'कमीने' जैसी फिल्में उनके खाते में हैं. और एक अलग ही अलमारी है शेक्सपीयर की, जहां विशाल और भी विशाल हो जाते हैं. और मैं दावे के साथ कहना चाहूंगा कि 'हैदर' इस निर्देशक विशाल की अब तक की सबसे शानदार फिल्म है.
बात कश्मीर की...
ये तो बात हुई फिल्म की. अब बात कश्मीर की सियासत और उसे इस फिल्म में जो पैरहन दिया गया, उसकी.
फर्ज कीजिए कि कश्मीर एक औरत है. एक खूबसूरत और अपनी ही दिल्लगी में मसरूफ औरत. एक दिन, ताकत की लड़ाई का मुजरा सजाने के लिए दो मर्द इस औरत को चुन लेते हैं. दोनों के अपने अपने दावे हैं. और इन दावेदारियों में जो हलकान हो रही है, वह ये एक औरत है.
फिल्म 'हैदर' की खासियत ये है कि यह दुख की कहानी कहती है. दुख जो खुद एक औरत ही है. और ये कहानी कहते हुए ये किसी के भी प्रति सहानुभूति पैदा करने की हड़बड़ाहट नहीं दिखाती. दुख अपने आप में बहुत निर्लिप्त सा हो सकता है. तमाम वजहों और लोगों के बावजूद, ये 'हैदर' के आत्मराग को सुन समझा जा सकता है.
'हैदर' एक औरत की भी कहानी है. गजाला की कहानी. जिसका अस्तित्व और अहमियत परिवार नाम की संस्था और पुरुष नाम के स्तंभ के सहारे टिकी है. ये औरत पति के साथ है और बेटे के मोह में है. मगर जब यही औरत किसी और का रुख करती है. तो बेटे के भीतर का पुरुष जाग जाता है. ये यौनिकता का विचित्र द्वंद्व है. और अगर हैदर की तरफ खड़े होकर देखें. तो ये आग से आग को जलाने की कोशिश जैसा है. हैदर, एक जगह रूंधे गले से कहता भी है. अब्बू से अलग होने के और भी तो तरीके थे. बेटे को मां का ये प्रेमिका वाला तरीका एक किस्म के विश्वासघात सा लगा. और मां, वह बेटे के सामने चुप है. भले ही उसके भीतर की औरत मुखर होना चाहती हो. क्योंकि वह जानती है कि वह उसे उसकी स्थितिजन्य सोच समझ के लिए चलते यह सच नहीं समझा सकती.
तो ऐसे में 'हैदर' एक औरत के प्यार पर अपने अपने हिसाब से कब्जे की लड़ाई भी बन जाती है. जिसमें एक तरफ खुर्रम है, तो दूसरी तरफ हैदर. और ऐन इस जगह गजाला गजाला न रहकर कश्मीर बन जाती है.
अगर बात करें कश्मीर की, तो सिनेमा इसको लेकर कुछ दशकों से ठिठका ही रहा है. अगर वहां के लोगों की आवाज बुलंद करो तो तुरंत आपकी देशभक्ति पर सवाल उठा दिए जाएंगे. अगर सेना के रवैये के हिसाब से ऐड़ी गड़ाओ, तो आपको निर्मम और सीमा की सीमाओं में बंधा बता दिया जाएगा. ऐसे में डायरेक्टर और राइटर के लिए बड़ी मुश्किल थी. मगर उसे बड़े जतन से निभाया गया. उग्रवादियों के तौर तरीके, कश्मीरी पंडितों का पलायन, गायब होते लोग, बेवा औरतें, यतीम बच्चे, फौज, क्लाशिनकोव, सीमा पार जाना, सियासत चमकाना. या फिर ऐसे वक्त में जवान होना. कितना दिक्कत भरा है ये सब.
और इन सब दिक्कतों की दास्तान सुनाने के बाद हैदर को आखिर में एक ऐसी खंदक में धकेल दिया जाता है. जहां उसे चुनाव करना ही है. बाप कहता है. मेरा इंतकाम लेना हैदर. मां कहती है. इंतकाम से सिर्फ इंतकाम ही पैदा होता है, आजादी नहीं. हैदर चुनता है और इसीलिए यह फिल्म साहसी भी हो जाती है.
'हैदर' सिर्फ इंतकाम की कहानी ही नहीं. ये कई प्रेम कहानियों का भी समुच्चय है. अपने अब्बू से फैज अहमद फैज के शेर सुनता बेटा. जो उन्हें भगवान की तरह मानता है और उनसे एक पल को भी दूर नहीं होना चाहता. अपने बेटे से बेइंतहां मुहब्बत करती मां. आर्शिया और हैदर का प्यार, जो चिनार के एक दरख्त के खोखल के बीच जब लिपटता है, तो खुद गुलजार के ही शब्दों में कहें तो 'मैं आसमान, तू मेरी जमीन' वाला हिसाब हो जाता है.
एक प्रेम कहानी सलमान खान और उनके दीवाने दो सलमान की भी है. एक प्रेम कहानी आर्शिया और उसके पुलिस वाले पापा की भी है. देखिए तो जरा. यहां कैसे औरत बुनती है, उधेड़ती है और फिर उसी में लिपट खत्म हो जाती है. आर्शिया अपने प्यारे पापा के लिए एक लाल ऊन का मफलर बनाती है. फिर वही मफलर उसके पापा अपनी समझदारी और साझेदारी की खातिर हैदर के हाथों में बांध देते हैं, ताकि वह भाग न जाए. और जब आधी दुनिया खत्म होती है, तो बाकी आधे को याद करते हुए आर्शिया उसे उधेड़ देती है. ऊन ऊन नहीं रहती, एक जाल बन जाता है, जिसमें वह कैद है.
वल्लाह, ये आदमी विशाल भारद्वाज सेल्युलाइड पर कितनी मार्मिक, पवित्र और सुरीली कथा कविताएं रचता है. जाइए और इसे सुनिए, निहारिए और फिर बरसों बरस गुनिए.