'लहर' या 'जनाधार', दीदी-अम्मा से मुकाबला

पांच राज्यों में होने वाले चुनाव में अगर बीजेपी को उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिली तो ये पार्टी और पीएम मोदी के लिए आगे का रास्ता और चुनौतीपूर्ण बना देगा.

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अमित कुमार दुबे

  • नई दिल्ली,
  • 12 मार्च 2016,
  • अपडेटेड 9:46 PM IST

देश के पांच राज्यों में चुनावी बिगुल बज चुका है. वैसे तो ये सभी राज्य हिन्दी भाषी नहीं हैं और यहां बीजेपी के पास खोने के लिए कुछ नहीं है. लेकिन पार्टी हासिल बहुत कुछ करना चाहती है. अपनी धमक हिन्दी भाषी राज्यों के साथ-साथ दूसरे राज्यों में भी दर्ज कराना चाहती है. साफ शब्दों में कहें तो ये चुनाव में बीजेपी के लिए यूपी और पंजाब में होने वाले फाइनल मुकाबले से पहले का सेमीफाइनल मुकाबला है.

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दांव पर पीएम की करिश्माई छवि
चार राज्यों पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और केंद्र शासित प्रदेश पुड्डुचेरी में राष्ट्रीय राजनीति का प्रभाव कम है, या यूं कहें कि दिल्ली की राजनीति का असर कम है. यहां के क्षेत्रीय नेता जनता में लोकप्रिय हैं. और चुनावी मुद्दे भी बिल्कुल अलग होते हैं. ऐसे में बीजेपी के लिए राह आसान नहीं है, बीजेपी के लिए इन राज्यों में सबसे बड़ी चुनौती ये है कि पार्टी में कोई यहां से बड़े जनाधार वाला चेहरा नहीं है, जिसपर दांव लगाए जाएं, खासकर पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल में मुकाबला बड़ा है और जिससे मुकाबला है वो बड़े चेहरे हैं. लोकसभा चुनाव में बड़ी जीत के बाद से ही बीजेपी राज्य में हुए चुनावों में भी पीएम मोदी का चेहरा आगे रखकर चुनावी लड़ाई लड़ी और दिल्ली, बिहार को छोड़कर सभी राज्यों में उम्मीद से बढ़कर कामयाबी मिली, बीजेपी इस चुनाव पीएम मोदी का चेहरा दांव पर लगाने से घरबाई रही है. क्योंकि अगर इन राज्यों में बेहतर परिणाम नहीं मिले तो इसका सीधा असर उत्तर प्रदेश और पंजाब में होने वाले विधानसभा चुनावों पर पड़ेंगे. इसकी बड़ी वजह ये है कि दिल्ली और बिहार की करारी हार को बीजेपी भूली नहीं है, यहां भी पीएम मोदी की करिश्माई छवि दांव पर थी. सवाल उठने लगे थे कि क्या अब नरेंद्र मोदी का जादू लोगों को प्रभावित नहीं कर रहा है? सवाल उठना भी लाजिमी है, और अब ये पांचों राज्यों के चुनाव पीएम मोदी के लिए किसी अग्नि-परीक्षा के कम नहीं है. यानी दांव पर बीजेपी ही नहीं, बल्कि पीएम की साख भी है.

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मुकाबला 'लहर' से नहीं, 'जनाधार' से
जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, वहां पर बीजेपी जमीनी स्तर पर बेहद कमजोर है. बीजेपी ने अपनी मौजूदगी तो इन राज्यों के लोगों तो पहुंचाई है, लेकिन केवल उसी के बल पर चुनावी नैया पार नहीं लग सकती. और फिर किसी मजबूत क्षेत्रीय पार्टी से भी गठबंधन के आसार फिलहाल नहीं दिख रहे हैं. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की पार्टी ने अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान भी कर दिया है तो वाम दलों के साथ गठबंधन संभव नहीं. यहां वैसे तो मुकाबला टीएमसी और वाम दलों के बीच है, पर बीजेपी ने मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी है. खुद पार्टी अध्यक्ष अमित शाह मोर्चा संभाले हुए हैं और चुनावी रणनीति को अंजाम देने में जुटे हैं.

ममता के किला में बीजेपी का नया दांव
बीजेपी ने ममता के खिलाफ नेताजी सुभाष चंद्र के परपोते चंद्र कुमार बोस को मैदान में उतारा है. बीजेपी ने हुंकार भरी दी है कि ममता बनर्जी के खिलाफ चंद्र कुमार बोस चुनाव लड़ेंगे. ममता भवानीपुर सीट से एमएलए हैं. इसके अलावा केंद्र सरकार ने ऐलान किया है कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से संबंधित 25 गुप्त और फाइलें संसद के चालू बजट सत्र के बाद जारी की जाएंगीं. इससे पहले सरकार ने जनवरी महीने में 16,600 पेजों की ऐतिहासिक दस्तावेजों वाली 100 फाइलें जारी की थीं. इसके पीछे केंद्र सरकार का तर्क है कि लोग नेताजी के जीवन को गहराई से जानना चाहते हैं. लेकिन इसी बहाने बीजेपी पश्चिम बंगाल चुनाव में अपनी मौजूदगी दर्ज करवाना चाहती है.

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ममता की छवि बड़ी चुनौती
वैसे तो बीजेपी अपनी रणनीति को राजनीतिक रूप देने में लोकसभा चुनाव के बाद से ही जुटी है और निशाने पर ममता बनर्जी हैं. वहीं टीएमसी के कई मंत्री पर सारदा स्कैम से लेकर दूसरे भ्रष्टाचार के आरोप लगे, कुछ को जेल की हवा भी खानी पड़ी. लेकिन ममता की खुद की छवि अब तक बेदाग हैं. मां, माटी और मानुष का नारा को ममता ने सरकार के दौरान भी दरकिनार नहीं किया. सिंगुर से टाटा नैनो का प्लांट हटवाने को लेकर ममता की आलोचना हुई थी, लेकिन सरकार बनने के बाद भी ममता ने कभी ये अहसास नहीं होने दिया कि उनके रूख में पूंजीपतियों और उद्योगपतियों को लेकर कोई बदलाव आया है. ममता का यही दांव विपक्षियों पर भारी पड़ता है और जनता के बीच उनकी लोकप्रियता बनी हुई है.

मोदी और ममता का फंडा एक समान
ममता केवल पश्चिम बंगाल की जनता की हित की बात करती हैं ताकि जनता से कनेक्शन टूट ना सके. जैसे कि गुजरात का सीएम रहते हुए नरेंद्र मोदी केवल 6 करोड़ गुजरातियों की बात करते थे. वैसे तो ममता ने पिछले चुनाव में ही लेफ्ट पार्टियों को सत्ता से बेदखल कर अपना राजनीतिक एजेंडा जाहिर कर दिया था. लेकिन लोकसभा चुनाव में बीजेपी की भारी जीत के बाद से ही ममत अपना किला बचाने में जुट गईं, उन्हें पता था कि बीजेपी का अगला निशाना पश्चिम बंगाल में ममता को कमजोर करना होगा. और इसकी बानगी पश्चिम बंगाल में हुए कुछ सांप्रदायिक दंगों के दौरान बीजेपी और टीएमसी नेताओं के बीच जुबानी जंग में देखने को मिली. बीजेपी पीएम मोदी का चेहरा यहां दांव पर लगाने से हिचक रही है. क्योंकि यहां के चुनाव परिणाम का असर दूसरे राज्यों को भी प्रभावित करेगा. लेकिन पार्टी के पास दूसरा कोई विकल्प भी नहीं है. विपक्ष भी ताक में है कि बीजेपी ने अगर पीएम मोदी का चेहरा आगे नहीं किया तो इस मुद्दे को तुल देंगे कि अब मोदी का जादू खत्म हो गया है और इसका अहसास बीजेपी को भी हो गया है.

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असम में मुकाबला रोचक
असम में बीजेपी थोड़ी जरूर सक्रिय दिख रही है, यहां पार्टी ने केंद्रीय मंत्री सर्वानंद सोनोवाल पर दांव लगाया है. साथ ही असम गण परिषद के साथ गठबंधन भी किया है. इस गठबंधन का उद्देश्य कांग्रेस विरोधी मतों का विभाजन रोकना है. लेकिन बीजेपी के अंदर ही इस गठबंधन के खिलाफ आवाज उठ रहे हैं. पार्टी के एक धड़े के नेताओं ने इस फैसले से नाराज होकर नई पार्टी बनाने की घोषणा कर दी है. और उन सभी 26 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान भी कर दिया है जो असम गण परिषद को दी गई हैं. हालांकि बीजेपी को यहां अपने नेतृत्व की करिश्माई छवि से ज्यादा सत्तारूढ़ कांग्रेस के अंदर मची घमाषान का फायदा मिलेगा. लेकिन सत्ता तक पहुंचने के लिए ये काफी नहीं है. पिछले दिनों पीएम मोदी की यहां सभा हुई थी. जिसमें उन्होंने मौजूदा कांग्रेस सरकार पर जमकर हमला बोला था और अपनी उपलब्धियां गिनाईं. वादों के सहारे ही सही, पर बीजेपी ने यहां मुकाबला रोचक बना दिया है.

अम्मा, इमोशन और गठजोड़
तमिलनाडु में चुनाव से पूर्व कांग्रेस और डीएमके के बीच गठबंधन सत्तारूढ़ दल के लिए बड़ी चुनौती है. सीएम जयललिता को भी पता है कि ये गठबंधन उनकी राह में मुश्किलें खड़ी कर सकता है. यहां की जनता भावनात्मक रूप से नेताओं से जुड़ी होती हैं. जो बीजेपी के पास नहीं है. बीजेपी के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं जो अपने दम पर यहां हवा की रुख को अपनी ओर मोड़ सके. फिर यहां चुनावी मुद्दे भी दूसरे राज्यों के मुकाबले बिल्कुल अलग होते हैं. जनता से साड़ी, टीवी, मोबाइल जैसी चीजें देने का वादा किया जाता है. और सत्ता में आने के बाद उसे पूरा भी किया जाता है. जयललिता सरकार ने भी चुनावी वादों को प्रमुखता से लागू किया. सीधे शब्दों में कहें तो तमिलनाडु की राजनीति तमिल मुद्दों के इर्द-गिर्द होती है. अभिनेता से नेता बने विजयकांत की पार्टी डीएमडीके ने भी अकेले विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर रोमांच पैदा कर दिया है. डीएमडीके 2014 के लोकसभा चुनाव में एनडीए का हिस्सा थी. लेकिन अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर पार्टी ने बीजेपी को जोर का झटका दिया है. बीजेपी गठबंधन के बने रहने की उम्मीद कर रही थी. इस बीच बीजेपी के लिए राहत की ये खबर है कि यहां मुलाबला अब एआईएडीएमके, डीएमके-कांग्रेस गठबंधन, बीजेपी, पीडडब्ल्यूएफ और डीएमडीके के बीच होने वाला है. यानी वोट बंटेंगे तो बीजेपी को फायदा मिलेगा.

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तमिलनाडु से बीजेपी को आस
लोकसभा चुनाव में बीजेपी को तमिलनाडु में एक सीट पर सफलता मिली थी. साथ ही वोट फीसदी में भी बढ़ोतरी हुई थी, लेकिन इसे पार्टी की पकड़ नहीं कह सकते. बीजेपी केंद्र की नीतियों के साथ अपनी जड़ें यहां फैलना चाहती है. लेकिन वही चेहरा के अभाव से पार्टी बैकफुट पर आ जाती है. केंद्र सरकार तमिल की हित की बात करती तो है कि लेकिन उसे वोटरों में विश्वास में जगाना होगा. वैसे तो यहां बीजेपी के पास खोने के लिए कुछ नहीं है, परंतु पाने की चाह में पीएम मोदी का चेहरा जरूर दांव पर हैं. तमिलनाडु बड़ा राज्य है और मुकाबला भी बड़ा है. क्षेत्रीय हिसाब से बीजेपी के लिए यहां दशा और दिशा दोनों का अभाव है. केवल उम्मीद के बल पर बीजेपी दम भर रही है. ऐसे में पीएम मोदी का करिश्माई जादू जयललिता और करुणानिधि के इमोशनल वोटर्स पर क्या असर करता है ये साफ 19 मई को ही हो पाएगा.

उनकी खामियां, अपनी ताकत
केरल और पुड्डुचेरी में भी बीजेपी अपनी मौजूदगी दर्ज कराना चाहती है, इसी क्रम में केरल में बीजेपी ने पिछले दिनों भारतीय धर्म जन सेना(BDJS) जैसी क्षेत्रीय पार्टी से गठबंधन किया. वहीं ओमान चांडी सरकार पर लगे सोलर स्कैम को विपक्ष चुनावी रंग देने में विपक्ष जुट गया है. इस घोटाले की आंच ने ओमान चांडी के परिवार को भी लपेटे में ले लिया है. लोकसभा चुनाव में तिरुवनंतपुरम सीट पर बीजेपी ने मुकाबले को रोमांचक बना दिया था. जीत तो नहीं मिली थी लेकिन अपनी मौजूदगी जरूर दर्ज करा दी थी. अब बीजेपी लोकसभा चुनाव में रही कमी को दूर करना चाहती है. पार्टी को लगता है कि थोड़ी ताकत लगाया जाए तो अपनी ताकत दक्षिण भारत में भी बढ़ाई जा सकती है. अगर बीजेपी का पीएम मोदी पर लगाया दांव यहां काम कर गया तो पार्टी की आगे की राह थोड़ी आसान हो जाएगी. साथ ही पीएम मोदी का करिश्माई चेहरा यूपी और पंजाब चुनाव में पार्टी की जीत को और सुनिश्चित कर देगा. लेकिन इन पांचों में अगर बीजेपी को उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिली तो ये पार्टी और पीएम मोदी के लिए आगे का रास्ता और चुनौतीपूर्ण बना देगा.

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