
अखिलेश यादव को घरवाले प्यार से टीपू नाम से बुलाते हैं. अब इसी नाम के मुताबिक परिवार के इस युवा योद्दा ने अपनी तलवार की ताकत दिखा दी है. उन्होंने अपने विरोधियों के टुकड़े कर दिए हैं. पार्टी पर अपना मजबूत शिकंजा कस लिया है. साथ ही पिता (मुलायम सिंह), चाचा (शिवपाल यादव) और अंकल (अमर सिंह) की तिकड़ी को हाशिए पर धकेल दिया है. अखिलेश अब उत्तर प्रदेश के अगले मुख्यमंत्री के लिए सबसे लोकप्रिय पसंद के तौर पर उभरे हैं. लेकिन इतना होने पर भी अखिलेश संतुष्ट या प्रफुल्लित नहीं, बल्कि आशंकित हैं. सिर्फ एक बात है जिससे अखिलेश घबराए हुए हैं और वह है कि कहीं उन्हें 'औरंगजेब' कह कर ना बुलाया जाए. औरंगजेब... वह मुगल बादशाह जिसने सिंहासन पर कब्जे के लिए अपने पिता शाहजहां को कैद कर दिया था.
अखिलेश सिर्फ अपने बूते आगे बढ़ने की पूरी तैयारी कर चुके हैं. इसके बावजूद वह विरोधी खेमे के साथ सुलह का हाथ बढ़ाने के लिए तैयार हैं, इसके लिए 5 वजह गिनाई जा सकती हैं-
1. 'गद्दार' औरंगजेब : चुनाव सिर्फ अवधारणा का खेल है. अखिलेश यादव के समर्थकों की ओर से जय, जय, जय अखिलेश के उद्घोष के बावजूद युवा मुख्यमंत्री देख सकते हैं कि अगर सुलह की कोशिशें नाकाम रहीं और मुलायम वृद्ध, हताश और बेटे द्वारा हाशिए पर धकेले गए एक पिता के तौर पर चुनाव में उतरते हैं, तो राज्य भर में उनके लिए सहानुभूति की लहर भी दौड़ सकती है. अखिलेश की जो शालीन, सौम्य, मृदुभाषी और होनहार युवा बेटे की छवि है, वह एक ही झटके में सारी सद्भावना खो सकती है. अमर सिंह जैसे साथी की मौजूदगी में बहुत संभव है कि मुलायम चुनाव प्रचार के दौरान सुबक सकते हैं. सिर्फ एक वायरल वीडियो जिसमें मुलायम सार्वजनिक तौर पर रोते दिखें और शिवपाल उनके साथ बैठे हों, सिर्फ इसलिए कि उम्र के इस पड़ाव पर उनके बेटे ने छोड़ दिया. मुलायम की ऐसी एक झलक पर अखिलेश को बचाव करना मुश्किल हो सकता है. बीजेपी और बीएसपी पहले से ही ये पंचलाइन तैयार किए बैठे है कि जो अपने पिता को छोड़ सकता है, वह किसी को भी छोड़ सकता है. अखिलेश कोई नौसिखिए नहीं हैं, जो इस आशंका को भांप ना सकें. सर्वविदित है कि जब एक अंग्रेजी अखबार ने अखिलेश की तुलना औरंगजेब से करते हुए एक लेख छापा था तो अखिलेश आगबबूला हो उठे थे. अखिलेश उस वक्त क्या करेंगे, जब यही शब्द पूरे प्रदेश में गूंजने लगेगा!
2. साइकिल सा भरोसेमंद कोई और नहीं : अखिलेश यादव सरकार ने एक्सप्रेस-वे पर फाइटर जेट लैंड करा कर बेशक सुर्खियां बटोरी हों, लेकिन वह अच्छी तरह जानते हैं कि यूपी की सियासी गलियों को नापना हो तो साइकिल से बेहतर कुछ और नहीं है. चुनाव आयोग में साइकिल पर दावे को लेकर लड़ाई छिड़ी है, ऐसे में अखिलेश को साइकिल पर चढ़ने का मौका नहीं भी मिल सकता. साइकिल चुनाव चिह्न को फ्रीज भी किया जा सकता है. सपा में संग्राम जारी पर यह चुनाव चिह्न अगर मुलायम धड़े को मिल जाता है, तो अखिलेश के लिए और बुरी स्थिति होगी. अखिलेश समर्थक बढ़चढ़ कर दावा कर सकते हैं कि वे ब्रैंड अखिलेश की ताकत के दम पर चुनाव में उतरेंगे, लेकिन ये करने की तुलना में बोलना आसान है. चुनाव प्रक्रिया पहले ही शुरू हो चुकी है, ऐसे में अखिलेश के लिए नया चुनाव चिह्न लेना और फिर अपने मतदाताओं को उससे जागरूक कराना टेढ़ी खीर साबित होगा. यहां चर्चा मोटरसाइकिल चुनाव चिह्न की है, जो सुनने में तो बेशक आकर्षक लगे, लेकिन साइकिल अच्छी तरह आजमाई और परखी हुई है.
3. यादव नंबर वन : अखिलेश बेशक युवाओं के आइकन हैं, विकास के चैम्पियन हैं, लेकिन यूपी में कोई भी आपको बता सकता है कि यादव सिर्फ और सिर्फ मुलायम सिंह को ही यादव वंश का असली हीरो मानते हैं. मुलायम की राजनीति हमेशा जाति समीकरणों पर ही केंद्रित रही है. साथ ही यादव उनके 'MY' जीत के फॉर्मूले का आधार स्तंभ रहे हैं. बिना मुलायम का आशीर्वाद प्राप्त किए अखिलेश निश्चित तौर पर यादव वोटों का बड़ा हिस्सा खो देंगे. खास तौर पर इटावा, मैनपुरी, एटा, आगरा बेल्ट में, जहां समाजवादी पार्टी का सबसे ज्यादा असर रहा है.
4. 'M' यानि मुलायम, 'M' यानि मुस्लिम : मुलायम सिंह यादव के विरोधियों ने बेशक उनका मखौल बनाने के लिए 'मुल्ला मुलायम' का जुमला गढ़ा हो, लेकिन 'नेताजी' ने हमेशा इस पहचान को अपने साथ जोड़े रखना पसंद किया. मुलायम ऐसा एक भी मौका नहीं छोड़ते, जब वह बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए कारसेवकों पर गोली चलाने के अपने आदेश का हवाला देना भूलते हों. मुस्लिम अखिलेश राज में मुजफ्फरनगर दंगे होने के बावजूद उत्तर प्रदेश में बीजेपी के रथ को रोकने के लिए समाजवादी पार्टी को वोट देना पसंद करते. लेकिन मुलायम के बिना भी मुस्लिम क्या इतने आश्वस्त होंगे? स्थिति को और मुश्किल बनाते हुए बीएसपी भी कोई कसर नहीं छोड़ रही है. बीएसपी बड़ा दांव खेलते हुए 100 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतार रही है. समाजवादी पार्टी में पूरी भ्रम की स्थिति की आशंका को देखकर मुस्लिम मायावती के दलित-मुस्लिम समीकरण की ओर शिफ्ट होते हैं तो ऐसे हालात में अखिलेश के लिए कोई मौका नहीं बचेगा.
5. परिवार सबसे पहले : आप कहीं भी जाएं, लेकिन परिवार में वापस आते हैं. अखिलेश यादव सियासी तौर पर मुलायम सिंह और शिवपाल को अलग-थलग कर सकते हैं, लेकिन घर पर अब भी मुलायम के लिए सबसे ज्यादा सम्मान है. ये नोटिस किया गया कि धर्मेंद्र यादव जो कुनबे की कलह के दौरान लगातार अखिलेश के साथ खड़े दिखे, पिछले कुछ दिनों से नजर नहीं आ रहे हैं. कारण यह है कि उनके पिता अभय यादव ने उन्हें मुलायम को हाशिए पर डालने की साजिश का हिस्सा होने के लिए तगड़ी झाड़ लगाई. अखिलेश से चुनौती मिलने के बाद मुलायम ने दोनों भाइयों अभय यादव और राजपाल यादव को इटावा से लखनऊ बुलाया. अभय यादव और राजपाल यादव दोनों ही शिवपाल के साथ जरूरत के इस वक्त पर मुलायम के साथ चट्टान की तरह डटे हैं. ऐसे में अखिलेश के ऊपर परिवार के अंदर बहुत दबाव है कि वह पिता के सामने झुक जाएं. वह पिता जिन्होंने अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाया, उनके राजनीतिक करियर का ताना-बाना बुना. अखिलेश भी दिल की तह से ये जानते हैं कि परिवार आखिरकार परिवार होता है. वो ये भी जानते हैं कि नरेश अग्रवाल, किरनमय नंदा, आजम खान और गायत्री प्रजापति सिर्फ अच्छे मौसमी दोस्त हैं और अगर स्थिति उनके विपरीत गईं तो ये साथ मौजूद नहीं होंगे. ये भी सर्वविदित है कि अखिलेश यादव पहले रामगोपाल यादव को इतना पसंद नहीं करते थे, जो कि इन दिनों उनके मुख्य सलाहकार हैं. अखिलेश ने अगर आजम खान और रामगोपाल यादव के साथ हाथ मिलाया है तो वो सिर्फ उस व्यक्ति की काट के लिए जिसे वो फूटी आंख देखना पसंद नहीं करते यानि अमर सिंह.