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ब्लैक टॉरनैडो: द थ्री सीज ऑफ मुंबई 26/11: दर्दनाक मंजर की यादें

मुंबई के 26/11 हमले के दौरान फंसे लोगों को ताज से निकालने और आतंकवादियों के खात्मे के लिए एनएसजी के ऑपरेशन के बारे में संदीप उन्नीथन की किताब के कुछ खास अंश:

संदीप उन्नीथन
  • नई दिल्ली,
  • 25 नवंबर 2014,
  • अपडेटेड 11:45 AM IST

रात करीब पौने बारह बजे संयुक्त पुलिस आयुक्त देवेन भारती को पुलिस कंट्रोल रूम से एक महिला के बारे में कॉल आई जो ताज में फंसी हुई थी. भारती ताज में एनएसजी के साथ कोऑर्डिनेशन का काम देख रहे थे. भारती के पास यह कॉल सीधे नहीं आई थी बल्कि ताज में गोलीबारी शुरू होने के समय से ही उसके डेटा सेंटर में छिपी प्रिया फ्लोरेंस मार्टिस ने अपने अंकल को फोन किया था, जिन्होंने इसकी सूचना पुलिस कंट्रोल रूम को दी. उनका साथी मनीष सर्वर रूम के एक अन्य हिस्से में छिपा हुआ था. आतंकी हमले के बाद से ही उनके पास खाने-पीने को कुछ नहीं था.

भारती ब्रिगेडियर सिसोदिया के साथ रिसेप्शन तक गए. उन्होंने फ्लोरेंस के दफ्तर के एक्सटेंशन पर डायल किया. दूसरी ओर से एक डरी हुई आवाज सुनाई दी. भारती ने सिसोदिया के सुनने के लिए फोन को स्पीकर पर डाल दिया. सिसोदिया ने पूछा, ''मैम, आप कहां हैं?”
प्रिया ऐसे माहौल में पूरी तरह कन्फ्यूज हो चुकी थीं. उन्हें होटल के रास्ते याद नहीं थे. उन्होंने बस इतना ही कहा, ''दूसरी मंजिल पर...”

सिसोदिया ने उन्हें तसल्ली दी, ''घबराएं नहीं, मेरे कमांडो आपको ले जाएंगे.” फिर उन्होंने प्रिया की बताई जगह को होटल के एक कागज पर लिखा और उसे श्योराण को दे दिया.

श्योराण ने मेजर उन्नीकृष्णन को उन्हें लाने के निर्देश दिए. एनएसजी के अफसरों ने उन तक पहुंचने के लिए वैकल्पिक रास्ता निकाला—यह रास्ता हेरिटेज विंग की भव्य सीढिय़ों वाला था. इससे दूसरी मंजिल तक जाने के लिए उन्नी ने योजना बनाई. इन रास्तों को अब भी साफ  नहीं किया गया था. पिछली रात इसी इलाके में डीसीपी नांग्रे-पाटील के सिपाहियों को आतंकियों की भारी गोलीबारी झेलनी पड़ी थी. उन्नी को इस बारे में जानकारी नहीं थी.

मेजर संदीप 28 नवंबर की रात एक बजे सुनील जोधा, मनोज कुमार, बाबूलाल और किशोर कुमार की अपनी टीम को इसी रास्ते लेकर ऊपर की ओर बढ़े: वह शानदार सीढ़ी जो काफी लंबी और सीधी थी, आगे जाकर अंग्रेजी के वाइ अक्षर की तरह दो रास्तों में बंट जाती थी. दो हिस्सों में बंटने से ठीक पहले सीढ़ी पर जमशेदजी टाटा की एक कांस्य प्रतिमा लगी हुई थी जिस पर मालाएं थीं, जिन्होंने टाटा के कारोबार को स्थापित किया था और 1903 में इस होटल को बनाया था. यह टीम जैसे ही सीढिय़ों से ऊपर की ओर बढ़ी, अचानक अंधेरे में गोलीबारी हुई. पता चला कि आतंकवादी ऊपर से फायर कर रहे थे.

उन्नी ने बाबूलाल और सुनील को बाईं ओर जाने का संकेत दिया, जिधर भूरे रंग के विशाल दरवाजे थे जिनसे होकर पाम लाउंज और बॉलरूम तक पहुंचा जा सकता था. उन्हें ग्रेनेड फेंककर पाम लाउंज का रास्ता साफ करना था. दोनों कमांडो चुपचाप हथियार नीचे कर आगे बढ़े. उन्होंने दरवाजे के दोनों ओर पोजिशन संभाल ली. दरवाजे बंद थे.

(ताज के किचन में काम करने वाले कर्मचारियों के शव)

अचानक अंधेरे में कहीं से एक ग्रेनेड उड़ता हुआ आया,
कालीन वाली सीढ़ी पर गिरा और फट गया. ऊपर से एके47 के चलने की आवाज आई. उसकी गोलियों ने सीढ़ियों को छेद दिया था. गोलियां दरवाजे के इर्द-गिर्द दीवारों को भेद गई थीं और दीवारों से पत्थर और चूना झ्ड़ रहा था. टाटा की प्रतिमा को घेरने वाला कांच टूट चुका था. यह छुपकर किया गया हमला था. आतंकियों ने एनएसजी कमांडो के कपड़े देख लिए थे और उन्होंने इनके आने तक इंतजार किया था. वे मजबूत स्थिति में थे. अब यहां मौत का खेल होना बाकी था. मेजर उन्नीकृष्णन अपने दो कमांडो के कवर फायर के बीच आगे बढ़ते रहे.

उसके बाद एक और ग्रेनेड ऊपर की किसी मंजिल से लहराता हुआ आया और ग्रेनाइट के फर्श पर फटा. ग्रेनेड में से निकले करीब 5,000 बॉल बेयरिंग ने सीढिय़ों के इर्द-गिर्द मौत का मंजर रच दिया था. सुनील जोधा की देह को गोलियां और छर्रे पूरी तरह छेद गए थे. वे गिरे और सीढिय़ों से नीचे टाटा की प्रतिमा तक लुढ़कते गए. कवर फायर दे रहे कमांडो ने अपने अदृश्य दुश्मन पर गोलियों की बौछार कर दी. सुनील के शरीर से खून बह रहा था. दो गोलियां उनकी छाती में लगी थीं. एक उनकी बुलेटप्रूफ  जैकेट में लगे सिरेमिक राइफल प्लेट में फंस गई थी. उनका बायां हाथ स्टील के बेयरिंग से चोटिल हो चुका था. फर्श पर बेसुध पड़े-पड़े उन्हें लगा, ''मेरा बायां हाथ तो गया.”

उन्नी भागकर सुनील के पास आए. उनकी देह से रिसता खून देख कर बाबूलाल से उन्होंने कहा, ''इसे फस्र्ट एड के लिए ले जाओ.” और ऐसा कहकर अचानक एक झटके में वे अकेले ऊपर पाम लाउंज तक पहुंच गए.

(हार्बर बार के बाहर कमांडो)
उन्नी ने अपनी एमपी5 लहराते हुए एट्रियम की ओर गोलियों की बौछार कर दी. गोलियां दीवारों को छेद गईं. इसके बाद वे पाम लाउंज में खुलने वाले दूसरे दरवाजों की ओर जाने के लिए सीढिय़ों पर चढ़े. यह एक जोखिम भरा कदम था क्योंकि उन्हें कवर करने के लिए कोई नहीं था. अगर नीचे से उनका संपर्क टूटा तो चूहे-बिल्ली का खेल दोबारा शुरू होने वाला था. उन्होंने तय किया कि उन्हें अचानक हमला कर के आतंकवादियों को चौंका देना है. वे इतनी सावधानी से चल रहे थे कि उनके जूतों की आवाज भी नहीं हो रही थी. उन्हें अपने सामने बिखरी हुई विशाल कुर्सियां और टेबल नजर आई.

उन्होंने कारतूस पेटी को टटोला. सिर्फ एक ग्रेनेड बचा था. उन्होंने ग्रेनेड का पिन उखाड़ा और लाउंज में उछाल दिया. ग्रेनेड काफी आवाज के साथ फटा, जिससे खिड़कियां चकनाचूर हो गईं. उन्नी इस विस्फोट के बीच भीतर घुस गए. फिर उन्होंने समुद्र की ओर खुलने वाली खिड़कियों की ओर गोलीबारी की. उनके सामने एक भूरे रंग की ग्रिल थी, जो किसी धातु के आवरण की तरह बॉलरूम को ढके हुए थी. उनके निशाने पर यही बॉलरूम था. गलियारे में काफी तेजी से आगे बढ़ते हुए उन्होंने एमपी5 अपने ठीक सामने ताने रखी. उनकी बाईं ओर छोटी-सी आंगननुमा जगह थी जिसमें दो सोफे और एक गोल आकार का ग्रेनाइट टेबलटॉप रखा हुआ था. अचानक टेबल के नीचे से हमला हुआ और दो आवाजें तकरीबन एक-साथ सुनाई दीं—एक एके-47 की और दूसरी एमपी5 से गोलीबारी की.

(होटल की लॉबी में एमपी5 रीलोड करते कमांडो)

'सिएरा फाइव, सिएरा फाइव...दिस इज सिएरा वन, कम इन. ओवर.’
कर्नल श्योराण का संदेश ताज की फिजाओं में गूंज रहा था लेकिन उसे सुनने वाला कोई न था. कोई जवाब नहीं आया. ब्रिगेडियर सिसोदिया ने कहा, ''शायद वे उनके काफी करीब हैं, इसलिए नहीं बोल रहे हैं....” एनएसजी ने काफी तेजी से होटल के जल चुके दक्षिणी सिरे को यानी दूसरी मंजिल पर समुद्र की ओर वाले लाउंज को साफ  किया. अब होटल के उत्तरी हिस्से में संपर्क के सारे अहम रास्तों पर एनएसजी कमांडो का कब्जा था.

शुक्रवार 28 नवंबर की सुबह तीन बजे तक मेजर कांडवाल की टीम ने ताज टावर की सभी 21 मंजिलों को खाली करवा लिया था. कांडवाल ने टावर मुंबई पुलिस के कब्जे में सौंप दिया. चार घंटे बाद दोनों होटलों में सारे कमरों से संभावित बंधकों को निकाल लिया गया था. अब आतंकियों की तलाश का समय था. लेकिन मेजर उन्नीकृष्णन कहां थे?

श्योराण चौथी मंजिल पर पहुंचे और सीढिय़ों से नीचे उन्होंने एट्रियम में झंककर देखा. एट्रियम के इर्द-गिर्द गलियारे क्षत-विक्षत शवों से भरे पड़े थे. उनके कमांडो हवलदार दीघराम ने फुसफुसाकर कहा, ''साहबजी, इन लाशों को देखो.” लाशें फूल रही थीं. आतंकी हमला हुए 36 घंटे बीत चुके थे. फिजा में दुर्गंध तैर रही थी. सड़े हुए खाने और सड़ी हुई लाशों की मिजी-जुली बदबू थी. दिक्कत यह थी कि इन लाशों को हटाया नहीं जा सकता था क्योंकि बूबी ट्रैप साफ करने के बाद 'रेंडर सेफ  प्रोसीजर’ पूर्ण होने पर ही एनएसजी ऐसा कर सकती थी. इसके लिए जरूरी था कि इमारतों से आतंकियों का सफाया किया जाए.

श्योराण को हालांकि उन्नी की चिंता थी और वे उन्हें ही खोज रहे थे. उन्होंने सबसे पहले पहली मंजिल पर देखा जहां उनकी पहली मुठभेड़ आतंकियों से हुई थी. उसके चार दरवाजे थे. इनमें एक दरवाजा खुला था, जो टाटा की प्रतिमा की तिर्यक दिशा में था. यह होटल के भीतर ले जाता था. उन्नी उलटी दिशा में आतंकियों की तलाश में गए थे.

सवेरे साढ़े छह बजे एक आवासीय भवन की छत पर तैनात जसरोटिया के रेडियो में अचानक हरकत हुई, ''सिएरा सिक्स, दिस इज सिएरा वन, कम टु ऑपरेशन सेंटर. ओवर.” श्योराण को लापता मेजर की तलाश के लिए और लोगों की जरूरत थी. टीम का आकार छोटा कर दिया गया था. जसरोटिया को दो हिट टीमें दी गईं और पहली मंजिल पर उन्नी को तलाशने का काम दिया गया. उन्हें तलाशी किचन वाले इलाके से शुरू करनी थी, जहां एक नए आए अधिकारी मेजर जॉन तैनात थे. श्योराण के अधिकारी लगातार उन्नी के मोबाइल पर डायल कर रहे थे. लेकिन वह स्विच ऑफ  था...

करीब साढ़े नौ बजे मेजर कांडवाल और मेजर जसरोटिया ने उन्नी के कदमों के निशान देखते हुए उस ओर चलना शुरू किया. वे एक जोड़ी की तरह आगे बढ़ते रहे. जसरोटिया ने अपनी एमपी5 सामने की ओर तान रखी थी. कांडवाल पीछे का हिस्सा कवर करते हुए अपनी एमपी5 ऊपर ताने हुए थे. अचानक संगमरमर के फर्श पर एक काली आकृति पड़ी हुई दिखाई दी. उन्नी! उसकी बाईं टांग दाईं के नीचे मुड़ी हुई थी. दायां बाजू फैला हुआ था और बायां छाती पर था. देह गोलियों से छलनी थी. उनकी लाश जम चुके खून के ढेर में पड़ी हुई थी. सारी गोलियां बाईं ओर से मारी गई थीं. जिस गोली से उनकी मौत हुई, वह निचले जबड़े से घुसी और सिर को चीरती हुई ऊपर निकल गई थी. वॉकी-टॉकी सिर से दो फुट दूर बिल्कुल दुरुस्त पड़ा था और स्विच ऑफ था. उनके अंगूठे से एक ग्रेनेड की पिन की रिंग लटक रही थी.

यह पता चलने में ज्यादा देर नहीं लगी कि आखिर क्या हुआ होगा. आतंकवादी मूर्ति के पीछे टेबल और सोफे के नीचे छिपे थे. कॉरिडोर में आगे बढ़ते हुए उन्नी को उन्होंने निशाना बनाया था. उन्नी को एके-47 की गोलियां लगी थीं. आतंकी उनका हथियार लेकर होटल के उत्तरी हिस्से में निकल लिए थे. ऐसा नहीं कि उन्नी ने उन्हें जवाब नहीं दिया. उन्होंने अपने हमलावरों पर खूब गोलीबारी की थी जिसका पता इस बात से लगता है कि उन्नी की एमपी5 की गोलियां दीवारों और लकड़ी की जाली में धंसी थीं. वहीं एक आतंकी का खून में सना जूता छूट गया था. बॉलरूम की ओर बढ़ते हुए खून के निशान बता रहे थे कि उन्नी ने भागते आतंकी को जख्मी कर डाला था.

कांडवाल ने अपने मोबाइल से कॉल किया. किसी को पता नहीं लगना चाहिए कि एक अधिकारी मारा गया है. वे बोले, ''सर, उन्नी नहीं रहे. कन्फर्म.” कुछ देर का सन्नाटा. दूसरी ओर कर्नल श्योराण की आवाज उनके आक्रोश को छिपा नहीं सकी, ''ओके, रुको. किसी को भेजता हूं.”

(27 नवंबर, 2008 को एसएजी कमांडो को लाए एयरक्राफ्ट में पूर्व गृहमंत्री शिवराज पाटिल)

मेजर संदीप उन्नीकृष्णन इस हमले में मारे गए
एनएसजी के पहले अफसर थे. उनकी शहादत ने 51 एसएजी को हिला दिया. यह एक प्यारे दोस्त की विदाई थी जो उन्हें नश्वर होने का एहसास दिला गई.

मेजर उन्नीकृष्णन के आखिरी हमले की वजह से आतंकी ताज के उत्तरी हिस्से में रेस्तरां की ओर जाने को मजबूर हुए थे. उससे आगे वे नहीं जा सकते थे. श्योराण ने तय किया कि उन्नी की मौत को बेकार नहीं जाने देंगे. उन्होंने उत्तरी हिस्से को कवर करने के लिए अपने स्नाइपर लगा दिए...इसके बाद श्योराण ने अपनी टीम को बॉलरूम में घुसने का निर्देश दे दिया.

कमांडो जब उसमें घुसे तो घुप अंधेरा था. उन्होंने काफी सावधानी से खिड़कियों के परदे फाडऩे शुरू किए और कमरे की तलाशी लेने लगे. इस तलाशी में करीब पांच घंटे लगे. बॉलरूम अब साफ  था.

इस दौरान डेटा सेंटर में फंसी प्रिया फ्लोरेंस मार्टिस अपने फोन पर मित्रों और परिजनों से संपर्क में थीं.

अपने कमरे में काली आकृति को आता देख वे डर गई थीं. उन्हें बंदूक की नली दिखाई दी. उन्हें यह तो नहीं पता था कि यह व्यक्ति कौन है, लेकिन वह कुछ तलाश रहा था, इतना उन्हें समझ् में आया. वह कुछ देर कमरे का चक्कर लगाकर निकल लिया. वे अपने कोने में भूखी-प्यासी और थकी दुबकी रहीं. वह आकृति कर्नल श्योराण की थी. वे वापस होटल की लॉबी में नीचे आए और उन्होंने नंबर मिलाया. प्रिया ने जवाब दिया, ''जब आप मेरे कमरे में आएं तो मेरा नाम पुकारें, वरना मैं बाहर नहीं आऊंगी.”

श्योराण दोबारा चुपचाप दूसरी मंजिल पर स्थित डेटा सेंटर में पहुंचे. दरवाजा खुला था. भीतर किसी के होने का संकेत नहीं था. वे चारों ओर देखकर बोले, ''फ्लोरेंस, फ्लोरेंस, हम आपको बचाने आए हैं...”

नीचे से कमजोर आवाज आई, ''मैं यहां हूं...”

प्रिया फ्लोरेंस एक छोटी-सी टेबल के नीचे पिछले 36 घंटे से ऐसे दुबकी हुई थी जैसे गर्भ में भ्रूण होता है. वे चल नहीं पा रही थीं. श्योराण ने उनकी मदद की, लेकिन उन्होंने वहां से निकलने से इनकार कर

दिया. वे बोलीं, ''प्लीज मनीष को बचा लो...मैं उसके बगैर नहीं जाऊंगी.”

उन्हीं के विभाग में उनका सहकर्मी रहा मनीष गोलियों से कांच का दरवाजा चकनाचूर होने के बाद से ही सर्वर रूम में था. श्योराण उसकी तलाश में गए, लेकिन वहां कोई नहीं था.

उन्होंने प्रिया को बताया, ''कमरे में तो कोई भी नहीं है.” प्रिया ने सवालिया अंदाज में पूछा: ''आर यू श्योर?” श्योराण वापस कमरे में गए. उनका धैर्य जवाब दे रहा था. अचानक उन्हें फर्श पर कुछ हरकत होती दिखी. फ्लोरबोर्ड हिल रहा था. श्योराण ने धीरे से पैनल को उठाया और उन्होंने जो देखा,उसे देख चौंक गए. मनीष फ्लोरबोर्ड के नीचे उस जगह पर छिपे हुए थे, जहां तारों को छिपाया जाता है. बमुश्किल एक फुट गहरी जगह रही होगी. वे काफी थके हुए और सदमे में थे. दो कमांडो ने उन्हें बड़ी मुश्किल से निकाला और खड़े होने में मदद की.
एक घंटे बाद फ्लोरेंस, मनीष और बचाए गए पांच सैलानियों को नीचे सुरक्षित लाया गया. अब होटल में कोई बंधक नहीं बचा था.    

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