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सुबह नींद खुलते ही कॉफी की भीनी-भीनी खुशबू! वाह! लेकिन एक मिनट! जरा ठहरिए. आखिर कौन चाहेगा कि एक नए दिन की शुरुआत इस आशंका से हो कि जिस पेय का पहला घूंट आप गटक रहे हैं, उसमें कॉफी के स्वाद वाली मिट्टी, स्टार्च या फिर कोई और खतरनाक चीज मिली हो? चलिए, फिर एक कप चाय ले लेते हैं. अगर इसमें कोलतार का रंग मिला हो तो? तब तो आपको त्वचा या फेफड़े का कैंसर होना तय है. कोई बात नहीं, सेब का रस ही सही. लेकिन इसमें भी पेटुलिन नाम का फंगस हो सकता है. एक गिलास ठंडे दूध के बारे में क्या ख्याल है? बहुत बुरा, क्योंकि इसमें एक साथ मौजूद कई खतरनाक रसायन आपको अपना शिकार बना सकते हैं. खासकर वह एंटीबायोटिक जेंटामायसिन जिसे गायों को दिया जाता है जिससे आपको लाइलाज संक्रमण हो सकते हैं; कीटनाशक बोरिक एसिड हो सकता है जो तिलचट्टों को मारने के काम आता है और इंसानों में सीसे का जहर घोल देता है; और फॉर्मेलिन जैसा प्रिजर्वेटिव भी मौजूद है जो आपकी किडनियों का क्रिया-कर्म कर सकता है. कुल मिलाकर एक गिलास पानी ही बचता है पीने के लिए, तो चलिए यही सही. बस ईश्वर से एक विनती करते रहिएगा कि इसमें कहीं ब्रोमेट न मिला हो वरना वह आपके शरीर में मौजूद कैंसर वाले जीन को सक्रिय कर देगा.
खाने के दुश्मन
पिछले कुछ दिनों में नूडल्स को लेकर फैले डर ने पूरे देश को अब अपनी चपेट में ले लिया है. आपकी थाली में जो कुछ है, वह संदिग्ध हैः ऊपर हमने जिन चीजों के भी नाम गिनाए हैं, उन्हें भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआइ) ने 2011 में अपने गठन के बाद से मिलावटी पदार्थों के रूप में दर्ज किया है या बाजार से वापस मंगवा लिया है. धीरे-धीरे खतरनाक, जहरीले, अनजाने रसायन और अखाद्य पदार्थ हमारे जीवन पर कब्जा करते जा रहे हैं जो हमारी खाद्य आपूर्ति शृंखला को जकड़े गहरे लालच का परिणाम हैः खेतों से लेकर चम्मच तक लालच की यह जीभ पसरी हुई है. इस शृंखला के स्पर्श बिंदुओं पर किसी भी वक्त कोई न कोई अस्वीकार्य प्रक्रियाओं और पदार्थों की ओर से आंखें मूंदकर, उनकी मिलावट करके या उनमें फेरबदल करके पैसे बनाने की कोशिश कर रहा है. इस पूरी प्रक्रिया की मानवीय और आर्थिक कीमत बहुत भयानक और डरावनी होने वाली है.
दुनिया भर में भारत खाद्य मानकों का उल्लंघन करने वाला सबसे बड़ा देश है, ऐसा फूड सोर्स मॉनिटरिंग कंपनी फूड सेंट्री का कहना है. चीन भारत के काफी करीब है और अमेरिका भी ऐसे शीर्ष दस देशों में शामिल है. अधिकतर खाद्य पदार्थ जिनमें मानकों का उल्लंघन होता है, वे या तो कच्चे हैं या कम से कम प्रसंस्करित, जैसे समुद्री आहार, सब्जियां, फल, मसाले, डेयरी उत्पाद, मीट और अनाज. खाने में जालसाजी के एक-तिहाई से ज्यादा मामले “अत्यधिक या गैर-कानूनी कीटनाशकों,” पैथोजेन के दूषण अथवा कूड़े-कचरे और साफ-सफाई की स्थितियों के साथ जुड़े हैं. क्रेडिट इन्फॉर्मेशन ब्यूरो में सीनियर वाइस प्रेसिडेंट और बाजार की जानकार हर्षला चंदोरकर कहती हैं, “डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों के उत्पादों पर गलत लेबल परेशान करने वाली बात है. वे सभी स्वस्थ होने का दावा करते हैं लेकिन परीक्षणों ने दिखाया है कि ऐसा नहीं है.”
बेहद गंभीर मसला
संसद के बजट सत्र में स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्डा ने मार्च में इस बारे में कहा था, “यह एक बेहद गंभीर मसला है.” एफएसएसएआइ की सालाना सार्वजनिक प्रयोगशाला परीक्षण रिपोर्ट 2014-15 कहती है कि हर पांच में से एक खाद्य नमूना भारत में गुणवत्ता परीक्षण में नाकाम हो जाता है. इस संस्था द्वारा परीक्षण किए गए 49,290 खाद्य नमूनों में से 8,469 खाद्य नमूने खाद्य सुरक्षा के मानकों पर प्रयोगशाला का परीक्षण पास नहीं कर पाए, जिसके चलते खाने में जालसाजी की दर यानी मिलावट, दूषण अथवा गलत लेबल लगाए जाने की दर 20 फीसदी तक पहुंच गई. यह 2011-12 में 13 फीसदी थी. इसके बावजूद खाने में आर्थिक मुनाफे के लिए की जाने वाली मिलावट के लिए दंडित किए जाने की दर 2013-14 के 3,845 से अब गिरकर 1,256 पर आ गई है. एफएसएसएआइ द्वारा देश भर से जुटाए गए आंकड़े बताते हैं कि खाने में जालसाजी की दर में काफी तेजी से बढ़ोतरी हुई है, जहां कुल लगाए गए जुर्मानों में सिर्फ पांच राज्यों&उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, केरल और आंध्र प्रदेश&का हिस्सा 90 फीसदी है.
यह मसला इसलिए बेहद गंभीर है क्योंकि मिलावटी खाने का इंसानी सेहत पर असली प्रभाव अब भी पूरी तरह अज्ञात है. खाने से जुड़ी बीमारियां कई प्रकार की हो सकती हैं और दुनिया भर में स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं में इनका अनुपात बढ़ता जा रहा है, ऐसा विश्व स्वास्थ्य संगठन की विश्व स्वास्थ्य दिवस 2015 पर जारी रिपोर्ट “हाउ सेफ इज योर फूड.” का कहना है. इन बीमारियों में गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल, न्यूरोलॉजिकल और गायनकोलॉजिकल, इम्यूनोलॉजिकल बीमारियों से लेकर एकाधिक अंगों की निष्क्रियता और कैंसर तक शामिल हैं. सूक्ष्मदर्शी पैथोजन या परजीवियों के चलते ये बीमारियां काफी तेजी से सामने आ सकती हैं. जैसा कि उन चार लाख से ज्यादा बच्चों के मामले में होता है, जो हर साल भारत में हैजे से मरते हैं. यह भी हो सकता है कि रासायनिक तत्व शरीर में धीरे-धीरे जमा होते जाएं और दीमक की तरह आपके शरीर को चाटते जाएं. विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि असुरक्षित भोजन के इंसानी सेहत पर असर का अब तक पूरा आकलन नहीं हो सका है, लेकिन वैश्विक स्वास्थ्य, व्यापार और विकास पर इसका प्रभाव काफी है.
मेरी मैगी किसने चुराई?
जिद्दी बच्चों के लिए खाना पकाने वाली मांएं, घर से दूर रहने वाले छात्र, खाना पकाने पर समय न दे पाने वाले नौकरीपेशा लोग, पैसे को लेकर चिंतित बूढ़े लोग&हर कोई आज की तारीख में उस पीली पट्टी वाले पैकेट का मर्सिया गा रहा है जिसे हम मैगी कहते हैं. पिछले 33 साल से आपसे सिर्फ दो मिनट वक्त मांगने वाला स्थापित ब्रांड मैगी एफएसएसएआइ द्वारा मानवीय उपभोग के लिए खतरनाक घोषित किया जा चुका है. इसे अब देश में न बनाया जाएगा, न प्रसंस्करित किया जाएगा, न वितरित किया जाएगा, न बेचा जाएगा और न ही इसका आयात किया जाएगा. इसे बनाने वाली स्विस कंपनी नेस्ले ने हालांकि परीक्षणों की वैधता को चुनौती दी है, लेकिन बाजार से दो करोड़ पैकेट वापस मंगा लिए गए हैं जिनकी कीमत 1,000 करोड़ रु. है.
सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वायनरमेंट में खाद्य सुरक्षा और जहरीले पदार्थों के विभाग में प्रोग्राम मैनेजर अमित खुराना कहते हैं, “बार-बार हमारे रोजमर्रा के खाने में मिलावट की बात साबित की गई है, लेकिन यह मामला औरों की तरह नहीं है. इसमें भारी धातु है. यह मिलावट का निहायत ही नया चरण है.” चंदोरकर कहती हैं, “मैं यह समझ नहीं पा रही हूं कि मैगी के नमूनों में सीसा कैसे आ गया.” सीसा ज्यादातर औद्योगिक प्रदूषकों से आता है. भारत में फसलों और सब्जियों में यह पानी से आता है. वे कहती हैं, “हो सकता है कि यह मशीन के किसी गड़बड़ हो चुके हिस्से से आया हो.” भारत के एसोसिएशन ऑफ फूड साइंटिस्ट्स ऐंड टेक्नॉलोजिस्ट्स के निदेशक नरपिंदर सिंह के मुताबिक, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पैक किए गए प्रसंस्करित खाद्य उत्पादों में मिलावट तो सिर्फ एक झलक भर है. वे कहते हैं, “रेहड़ी लगाने वालों का क्या कीजिएगा? वे क्या इस्तेमाल करते हैं, उस पर कोई निगरानी नहीं है.” मैगी नूडल्स की जांच से तो दोषी पक्ष पकड़े जाएंगे लेकिन इस घपले ने भारत में खानपान की असली कहानी को ही बेपरदा कर डाला है.
नाश्ते का संकट
अपने फ्राइंग पैन में एक अंडे को फोड़ने से ज्यादा सुकूनदायक कोई नाश्ता नहीं होता, लेकिन क्या आप ऐसा करके साल्मोनेला के दूषण से होने वाले ग्रीन डायरिया का शिकार बनना चाहेंगे? देश भर से बेतरतीब तरीके से चुने गए नमूने दिखाते हैं कि 5-7 फीसदी अंडों में जानलेवा बैक्टीरिया साल्मोनेला मौजूद होता है. इंडियन वेटेरिनरी रिसर्च इंस्टिट्यूट के 2012 में किए गए एक शोध में बताया गया है कि इसकी वजह अमानवीय स्थितियां, भीड़भाड़ वाले पिंजरे और गंदगी होती है. मुनाफे के लिए मुर्गियों को भूखा रखने का चलन है, हालांकि इस पर कानूनी रोक है. अंडे देने वाली मुर्गियों को 14 दिन भूखा रखने से पोल्ट्री मालिक दाने पर होने वाला खर्च बचा लेते हैं और अंडा देने के चक्र को अपने हिसाब से मोड़ देते हैं. इसी पीड़ा के कारण मुर्गियों का वजन घटता जाता है और उनमें सोल्मोनेला संक्रमित अंडे देने की आशंका बढ़ जाती है.
आइए, ब्रेड यानी पावरोटी को लें. अगर आपको लगता है कि अच्छी ब्रेड आपके दिन की शानदार शुरुआत कर सकती है तो दोबारा सोचें. आपकी पावरोटी, रोटी, परांठे या चपाती को बनाने के लिए जिस आटे का इस्तेमाल किया जाता है उसमें ब्लीच होती है और 25 से ज्यादा रसायन मिले होते हैं, जिसमें मिट्टी, धूल, कीड़ों और फंगस के अलावा धूमक भी होते हैं. परिणाम? आपको लिवर की दिक्कत से लेकर मधुमेह तक और किडनी से लेकर स्नायुतंत्र को नुक्सान तक कुछ भी हो सकता है. इतना ही नहीं, वैज्ञानिक अब गेहूं, जौ, मक्के और बाजरे में खेती के खराब तरीकों के चलते माइकोटॉक्सिन के होने की शिकायत तक कर रहे हैं. लखनऊ स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टॉक्सिकोलॉजिकल रिसर्च की साक्षी मिश्र से पूछकर देखिए, जिन्होंने 30 फीसदी नमूनों में जहरीले फंगस की खोज की, उनमें सात फीसदी में इसकी मात्रा स्वीकार्य सीमा से ज्यादा है. पिछले साल जर्नल ऑफ द साइंस ऑफ फूड ऐंड एग्रीकल्चर में प्रकाशित एक अध्ययन ने कर्नाटक, आंध्र और तमिलनाडु में इसका अत्यधिक स्तर पाया था. यह फंगस कई बीमारियां पैदा कर सकता हैः पीलिया से लेकर आंतों से खून के रिसाव तक कुछ भी.
आप सोचते हैं कि फलों में एंटीऑक्सिडेंट, रेशे और स्वास्थ्यप्रद पोषक तत्व आपको मिलते हैं, इसलिए इन्हें खाना ठीक है. यहां भी व्यापारी आपके साथ धोखा कर रहे हैं. अप्रैल में 12,000 किलो आम को गोवा में खाद्य सुरक्षा अधिकारियों ने नष्ट कर दिया क्योंकि उन्हें कृत्रिम तरीके से पकाया गया था जिसमें एथेफॉन नामक रसायन का प्रयोग किया गया था जिसे नियामकों ने “खतरनाक” और “क्षयकारी” की श्रेणी में रखा है. तेजी से पैसा बनाने की ख्वाहिश रखने वाला फल व्यापारी जानता था कि वह क्या कर रहा है. इसीलिए उसने आमों को रसायन में डुबोने के लिए प्लास्टिक के दस्ताने पहन लिए थे.
खाने के जासूस
यह करीने से लिपटा साफ-सुथरा पैकेट आशंका और संदेह से भरा हुआ है, जिसे किसी ने दीवार में एक चैकोर खिड़की से अभी-अभी बाहर पकड़ाया है. तुरंत इसका वजन किया जाता है. जांचने के बाद इस पर बारकोड लगाया जाता है और फिर कोलकाता के बाहरी इलाके बारासात में स्थित इस खाद्य निरीक्षण प्रयोगशाला से इसके सफर की शुरुआत होती है. इस प्रयोगशाला में स्वच्छ हवा के फव्वारे हैं, अनुर्वरता (स्टरिलिटी) के लिए इनॉक्युलेशन कक्ष हैं, पोषण जांचने के लिए क्रोमैटोग्राफी कक्ष है और रंग जांचने के लिए स्पेक्ट्रोफोटोमीटर भी है. नीले कपड़ों और सफेद कोट में दिख रहे वैज्ञानिक उन सफेद मशीनों पर चुपचाप झुके हुए हैं जो आवाज के साथ आंकड़े उगल रही हैः भारी धातु, कीटनाशक, एंटीबायोटिक, कार्सिनोजेन. ये लोग परदे के पीछे रह कर काम करने वाले खाने के जासूस हैं जो प्रतिष्ठित निजी लैब एडवर्ड फूड रिसर्च ऐंड एनालिसिस सेंटर (एफ्रैक) में काम करते हैं. इस प्रयोगशाला को भारत सरकार और अमेरिकी फूड ऐंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन से 12 प्रमाणपत्र प्राप्त हैं. यहां काम करने वालों को जांच पर पूरा भरोसा हैः पिछले एक माह में इन्होंने कुल 800 मैगी के नमूनों की जांच की है और एक में भी हानिकारक रसायन का अस्वीकार्य स्तर नहीं पाया गया है. सीईओ और माइक्रोबायोलॉजिस्ट बलविंदर बाजवा कहते हैं, “मेरी मशीनें 21 सीएफआर पार्ट 11 अनुपालक हैं, जो खाद्य सुरक्षा के लिए यूएसएफडीए का नया मानक है. मैं मैगी की नहीं, अपने नतीजों की पुष्टि कर रहा हूं.”
इस परिणाम ने हमारे खाने की किस्मत को एक और सवालों के घेरे में ला दिया हैरू वह यह कि कुछ प्रयोगशालाओं ने मैगी में सीसा और एमएसजी क्यों पाया जबकि दूसरों में ऐसा नहीं मिला? क्या हम अपनी प्रयोगशालाओं पर भरोसा कर सकते हैं? देश के कई हिस्सों में मौजूद कई प्रयोगशालाओं ने मैगी में सीसा होने की पुष्टि की थी लेकिन कुछ राज्यों ने इसे क्लीन चिट दे दी है. करीब 11 राज्यों ने पहले ही मैगी को प्रतिबंधित कर दिया है और इतने ही राज्यों ने इसकी स्वतंत्र जांच शुरू की है. खाद्य उद्योग के पुराने नुमाइंदे और ब्रिटैनिया के पूर्व सीईओ सुनील अलघ ने देश की खाद्य निरीक्षण प्रक्रिया को “विनाशक” करार दिया है और सरकार पर एक ब्रांड को बरबाद करने का आरोप लगाया है. बायोकॉन की मुखिया किरण मजूमदार शॉ ने भी ट्वीट किया है, “मैं सुनील अलघ से सहमत हूं कि बिना उपयुक्त साक्ष्य के मैगी ब्रांड को नष्ट किया गया है. मुझे इसमें साजिश की बू आ रही है और नेस्ले को इसकी तह में जाना चाहिए.”
उपभोक्ता नीति के जानकार बिजन मिश्र कहते हैं, “भारत के सामने जो चुनौती है उसमें आरोप-प्रत्यारोप का खेल मदद नहीं करेगा.” आज हमारे पास खाने के मामले में ज्यादा विकल्प हैं और उन तक पहुंच है. हमारे सुपरबाजारों में दुनिया भर से आ रहे पैकेज्ड और प्रसंस्करित खाद्य पदार्थों की भरमार है. समस्या यह है कि हम किसी चीज को जो मानकर खा रहे होते हैं, वह उससे अक्सर काफी अलग होती है जिसका हम वास्तव में उपभोग करते हैं. वे कहते हैं, “जनता में आक्रोश इतना ज्यादा है कि इसने हमारी खाद्य शृंखला के और कठोर नियंत्रण की जरूरत को पैदा कर दिया है. पहली बार सरकार ने एक बड़ी खाद्य कंपनी के खिलाफ राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निबटारा आयोग के समक्ष उपभोक्ताओं की ओर से मुकदमा किया है.” कई कंपनियां अपनी आपूर्ति शृंखला की अग्रिम जांच नहीं करती हैं और मामूली दंड देकर बच निकलती हैं. मिश्र कहते हैं, “आखिरकार भारत खाद्य पदार्थों को वापस लेने के नियामकों को लागू करने की ओर बढ़ रहा है और इसका सम्मान किया जाना चाहिए.” असुरक्षित खाद्य उत्पादों वाली कंपनियों को अब उपभोक्ताओं को मिलावट, स्वास्थ्य के खतरों और जहां वह उत्पाद पाया गया, उसके आउटलेट के पते के साथ जानकारी के लिए एक फोन नंबर भी देना होगा.
एफएसएसएआइ इस बार पीछे हटने को तैयार नहीं है. 2006 के खाद्य सुरक्षा और मानक कानून के तहत गठित यह संस्था 2011 से सक्रिय है. बड़े से लेकर छोटे खिलाड़ियों तक को यह संस्था अपने जाल में फांसने के लिए कृतसंकल्प है ताकि खाद्य सुरक्षा और मानकों को सुनिश्चित किया जा सके. पिछले कुछ वर्षों के दौरान इसने बड़ी खाद्य और पेय कंपनियों को घसीटा है&हाइंज, मेरिको, केलॉग्स, ब्रिटैनिया, कैडबरी, हिंदुस्तान लीवर, पार्ले और ऐमवे तक ऐसे कई बड़े नाम हैं जिन्हें कई कारणों से दोषी ठहराया गया है. इनमें भ्रामक विज्ञापनों से लेकर रसायनों के असुरक्षित या अत्यधिक उपयोग तक शामिल हैं. इसी साल मई में एफएसएसएआइ ने एनर्जी ड्रिंक मॉन्सटर, जिंगा और क्लाउड 9 को वापस मंगवाने का निर्देश दिया था. उसका कहना था कि इनमें जिनसेंग और कैफीन का “बेमेल मिश्रण” है. जनवरी 2015 में एफएसएसएआइ ने रोजाना उपभोग किए जाने वाले खाद्य पदार्थों का राष्ट्रव्यापी सर्वे और परीक्षण शुरू किया था&डेयरी उत्पाद, दालें, तिलहन, पोल्ट्री, फल और सब्जियां, ताकि मिलावट और दूषण के खिलाफ नीतिगत हस्तक्षेप का ढांचा तैयार किया जा सके.
नए तरीके, नए खतरे
बाजार में आए एक नए खतरे पर नजर रखिए. यह सीधे चीन के शांक्सी प्रांत से आया है और केरल के बाजारों को इसने पाट दिया है. एक झटके में यह सामान्य चावल की तरह दिखता है. इसी वजह से किसी ने भी इसे करीब से देखने की जहमत नहीं उठाई. यह काफी चिकना और दूधिया सफेद है और इसका हर दाना बिल्कुल बराबर आकार का है. इसे आप पानी में डालेंगे तो यह तैरने लगेगा. इसे उबालेंगे तो यह मोम की तरह कड़ा और चिपचिपा हो जाएगा. इसे आग में डालेंगे तो यह आग पकड़ लेगा. इसे अगर आपने खा लिया तो आपको तुरंत अस्पताल में भर्ती होना पड़ेगा, जैसा कि केरल में कई लोगों के साथ हुआ. बिल्कुल मामूली लागत से आलू, शकरकंद और पॉलिमर से बना यह फर्जी प्लास्टिक वाला चावल देश की थाली में हुआ नया फर्जीवाड़ा है. इस चावल को खरीदने के बाद लोग जब बीमार पड़ने लगे तो इसके पैकेटों को जब्त कर लिया गया.
मिलावट के तरीके और महीन होते जा रहे हैं. जानकार कहते हैं कि इसका पता लगाने के तरीके भी उतने ही आधुनिक होने चाहिए. पहले फलों के रस में पानी या चावल में कंकड़ मिला दिया जाता था लेकिन आज मामला जानलेवा कीटनाशकों, प्रतिबंधित सिंथेटिक रंगों, एंटीबायोटिक्स और डीएनए में बदलाव करने की क्षमता रखने वाले कार्सिनोजेन तक पहुंच चुका है. प्रिवेंशन ऑफ फूड एडल्टरेशन कानून, 1954 के तहत आठ सिंथेटिक रंगों का जिक्र था. आज यह सूची लंबी हो चुकी है. हल्दी, मसालों और दालों को ताजा दिखाने के लिए मेटैनिल पीला रंग, लाल मिर्च पाउडर को चमकदार बनाने के लिए लाल लेड ऑक्साइड की मिलावट, रंगीन मिठाइयां और अचार वगैरह लंबी अवधि में इंसानी सेहत पर बुरा असर डाल रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा परामर्शदाता और नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन, हैदराबाद के फूड टॉक्सिकोलॉजी विभाग के पूर्व प्रमुख रमेश वी. भट्ट कहते हैं, “ऐसा इसलिए होता है क्योंकि नियमों पर लचर तरीके से अमल किया जाता है और प्रसंस्करित खाद्य पदार्थों के निर्माता कठोर गुणवत्ता नियंत्रण नहीं अपनाते हैं. राज्य सरकारों के खाद्य निरीक्षक और प्रयोगशाला विश्लेषकों में अधिकतर तो अदालतों के ही चक्कर लगाते रहते हैं.”
राज्यों में मिलावट पर नियंत्रण के लिए मौजूद बुनियादी ढांचे की हालत बहुत खस्ता है. उत्तर प्रदेश को ही लें जो देश का सबसे बड़ा राज्य है. यहां सिर्फ पांच सार्वजनिक जांच प्रयोगशालाएं हैः लखनऊ, आगरा, बनारस, गोरखपुर और झांसी में. ये सभी अस्सी के दशक के दौर की हैं जिसके चलते इनके पास जटिल मामलों की जांच की क्षमता ही नहीं है, जिसमें आधुनिक प्रौद्योगिकी और पर्याप्त कार्यबल की जरूरत पड़ती है. गोरखपुर और झांसी की प्रयोगशालाएं पब्लिक एनालिस्ट अफसर के बगैर ही चल रही हैं. बाकी तीन के लिए सिर्फ एक अधिकारी है. करीब 430 खाद्य निरीक्षकों के पद खाली पड़े हैं जबकि तकनीकी कार्यबल आवश्यकता का सिर्फ 40 फीसदी है. यह कमी अपने आप में एक कहानी है. उत्तर प्रदेश फूड सेक्रटी ऐंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन के आंकड़े बताते हैं कि इन प्रयोगशालाओं में 2014-15 में भेजे गए 43,512 नमूनों में सिर्फ 30 फीसदी की जांच हो सकी. इसी तरह राजस्थान में छह प्रयोगशालाओं में काम कर रहे करीब 73 खाद्य सुरक्षा अधिकारियों को महीने में कम से कम 10 नमूनों की जांच करने की दरकार होती है.
अपने खाने पर नजर रखें
एक औसत शहरी भारतीय के घरेलू बजट में खाने-पीने पर आधा हिस्सा खर्च हो जाता है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (2014) कहता है कि सबसे ज्यादा व्यय खाने पर होता है. सबसे ऊपर इस सूची में अनाज और दालें हैं. उसके बाद फलों और सब्जियों की बारी आती है. फिर दूध, अंडा, मछली, तेल वगैरह आते हैं. स्नैक्स यानी नाश्ते की हिस्सेदारी चार फीसदी है, जबकि सिर्फ एक फीसदी नूडल्स पर खर्च होता है. इस हिसाब से मैगी पर लोगों में उभरा गुस्सा समझने लायक है. इसके नीचे आएं तो ऐसी खतरनाक आपराधिक गतिविधियों का एक समूचा जाल है जो जीवन और स्वास्थ्य के हमारे बुनियादी अधिकारों के साथ खिलवाड़ में लगा हैः किसी शवगृह में लाशों को जैसे रखा जाता है, उसी तरीके से अमोनिया और फॉर्मलडिहाइड में मछलियों को रखा जाता है; फार्म में पाले गए जानवरों को एंटीबायोटिक दिए जाते हैं ताकि वे जल्दी से बड़े हों और बेहद गंदे वातावरण में भी जिंदा रह सकें; फलों और सब्जियों को कॉपर सल्फेट से रंगा जाता है और इन्हें आकर्षक व ताजा बनाने के लिए इनमें ऑक्सीटोसिन हार्मोन डाला जाता है. यह सब कुछ हमारी घरेलू अर्थव्यवस्था का 49 फीसदी हिस्सा है जो हमें रोजाना नए-नए खतरों से रू-ब-रू कराता है. इसके बावजूद न कहीं गुस्सा है, न कोई शिकवा और शिकायत.
हमारे खाने के साथ जो कुछ हो रहा है उसका जिम्मेदार कौन है? हमारी थालियों में परोसे जाने वाले हर माल का अपनी लैब में रोजाना परीक्षण करने वाले बलविंदर बाजवा कहते हैं, “उपभोक्ता जिम्मेदार है. हमें हर चीज सस्ती चाहिए. ऐसा लगता है कि हमारे जैसे लोगों की मदद करने की एक प्रतिस्पर्धा-सी है. यही पक्षपातपूर्ण व्यापार गतिविधियों को बढ़ावा देता है.” नरपिंदर सिंह की मानें तो एक राष्ट्र के बतौर हमारे यहां के मानक ही शर्मनाक रूप से सस्ते हैं जो अपने आप में एक बाधा हैं. वे कहते हैं, “भारत में न्यूनतम मानक और डेटाबेस नहीं है. हम अब भी उन रसायनों का इस्तेमाल करते हैं जो अमेरिका में साठ के दशक में प्रतिबंधित कर दिए गए थे. हमारी प्रयोगशालाओं में भी अत्याधुनिक तकनीक नहीं है और प्रशिक्षित पेशेवर लोग नहीं हैं. नतीजतन, खाद्य निर्माता अपने मानक गढ़ लेते हैं और उसे लेबल पर लिख देते हैं.”
हर्षला चंदोरकर कहती हैं, “हमने करीब 200 पैक किए गए खाद्य उत्पादों का अध्ययन किया है और पाया है कि वे अपने लेबलों पर या तो कम रिपोर्ट करते हैं या गलत जानकारी देते हैं.” वे कहती हैं, “इसे रोकने के लिए हमें ज्यादा कठोर कानून और कहीं ज्यादा कठोर निगरानी रखनी होगी.” अमित खुराना कहते हैं कि उपभोक्ताओं को ही ज्यादा सचेत रहना होगा. वे कहते हैं, “हमें और ज्यादा पारदर्शिता की मांग करनी चाहिए. यह उपभोक्ता का अधिकार है.”
अगली बार से आप जिस भी दुकान से अपना राशन खरीदें उसमें दिलचस्पी जरूर रखें. इस बात की पड़ताल करें कि क्या वह साफ है? क्या वहां खाद्य निरीक्षक जांच करते हैं? क्या पैकेजिंग ठोस है? बेचने की तारीख क्या है? क्या सामान पर इस्तेमाल करने की तारीख भी लिखी है? लोगों से बात करें. उन पर नजर रखें कि क्या किसी रेस्तरां में खाने या किसी दुकान से सामान खरीदने के बाद कोई बीमार पड़ा है? अगर ऐसा हो तो अपनी जबान खोलें. हल्ला करें. सिर्फ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ ही नहीं बल्कि हर उस शख्स के खिलाफ जो यह तय करने की कोशिश में लगा है कि आपको क्या खाना चाहिए और क्या नहीं.
(साथ में अमरनाथ के. मेनन हैदराबाद, शांतनु दत्त दिल्ली, आशीष मिश्रा लखनऊ और
रोहित परिहार, जयपुर में)