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आज भी प्रासंगिक हैं गुजराल सिद्धांत

1996 में पहली बार एक स्थानीय नीति बनाई थी जिसका उद्देश्य था भारत की छवि को एक क्षेत्रीय अधिनायक से बदलकर एक उदार देश की छवि बनाना जो पड़ोसियों से बिना कोई खास अपेक्षा रखे, उन्हें साथ लेकर चलने की इच्छा रखता हो. कंवल ‌‌‌

कंवल सिब्बल कंवल सिब्बल
aajtak.in
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  • 10 दिसंबर 2019,
  • अपडेटेड 7:30 PM IST

कंवल सिब्बल

पड़ोसियों के साथ संबंध सुधारना सभी सरकारों के तहत भारतीय विदेश नीति के केंद्र में रहा है. एक सर्वोत्कृष्ट नीति बनाने में कई चुनौतियों का समाधान खोजना पड़ता है. हमारे छोटे पड़ोसियों को हमारे आकार से खतरा महसूस होता है, वे अपनी संप्रभुता के किसी भी कथित उल्लंघन पर आग बबूला हो जाते हैं, संतुलन की रणनीति के रूप में दूसरी बड़ी शक्तियों से मेलजोल बढ़ाने लगते हैं, हमारे कथित 'अधिनायकवादी' जैसे रवैये के इर्द-गिर्द अपनी घरेलू राजनीति चलाते हैं, बदले में बिना किसी उदारता का प्रदर्शन करते हुए हमसे हर तरह की उदारता की उम्मीद करते हैं. इसके अलावा, एक जैसे क्षेत्रीय, जातीय, भाषाई, धार्मिक और सांस्कृतिक संबंधों के चलते वे पहचान खोने को लेकर आशंकित रहते हैं.

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इसी 4 दिसंबर को हमने पूर्व प्रधानमंत्री और दो बार के विदेश मंत्री इंद्र कुमार गुजरात की सौवीं जयंती मनाई. वही गुजराल जिन्होंने इन जटिलताओं को भली-भांति समझते हुए, सितंबर, 1996 में पहली बार एक स्थानीय नीति बनाई थी जिसका उद्देश्य था भारत की छवि को एक क्षेत्रीय अधिनायक से बदलकर एक उदार देश की छवि बनाना जो पड़ोसियों से बिना कोई खास अपेक्षा रखे, उन्हें साथ लेकर चलने की इच्छा रखता हो. इसे गुजराल सिद्धांत कहा जाता है जिसमें पांच मूल सिद्धांतों को रेखांकित किया गया. पहला, नेपाल, बांग्लादेश, मालदीव और श्रीलंका के साथ भारत प्रतिफल की आशा नहीं रखेगा पर सद्भाव और विश्वास बनाने को अपनी तरफ से जो भी संभव हो, करने को तत्पर रहेगा.

(भूटान को इस सूची से बाहर रखा गया क्योंकि यह भावना द्विपक्षीय संबंधों में अंतर्निहित थी). अन्य चार सिद्धांतों में अपनी धरती का उपयोग एक दूसरे के खिलाफ न होने देने, दूसरे के आंतरिक मामलों में दखल न देने, एक दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का सम्मान करने और द्विपक्षीय बातचीत के माध्यम से विवादों के शांतिपूर्ण निबटारे के संकल्प से जुड़े थे. पहला सिद्धांत पारंपरिक राजनयिक सोच से बहुत इतर विचार था.

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इस तरह के सिद्धांत पसंदीदा रणनीति को दर्शाते हैं वह भी सफलता के आश्वासन के बिना क्योंकि वह तो छोटे पड़ोसियों पर निर्भर करेगा कि वे इन सिद्धांतों का कितना पालन करते हैं. 1990 के दशक में जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद चरम पर था. ऐसे में यह उम्मीद करना बेमानी था कि वह गुजराल सिद्धांत के मूल तत्वों का सम्मान करेगा. फिर भी, जून 1996 में तत्कालीन प्रधानमंत्री गुजराल ने एक विदेश सचिव स्तर की बैठक को हरी झंडी दी, जिसमें समग्र वार्ता के बीज बोए गए थे.

हालांकि, वार्ता बेनतीजा रही क्योंकि गुजराल ने कश्मीर पर एक अलग कार्य समूह के निर्माण की मांग को ठुकरा दिया. समग्र वार्ता बाद में शुरू हुई पर टूट गई जिसने बताया कि भारत के साथ चिरशत्रुतापूर्ण व्यवहार करने वाले पाकिस्तान के साथ शांतिपूर्ण संबंधों के किसी भी सिद्धांत की अपनी सीमाएं हैं. आज, संविधान के अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिए जाने और पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर राज्य के नक्शे को फिर से परिभाषित करने के साथ कश्मीर पर पाकिस्तान के साथ किसी भी द्विपक्षीय वार्ता के मूल सिद्धांत पूरी तरह बदल गए हैं. बांग्लादेश के साथ दिसंबर 1996 की गंगा जल संधि गुजराल सिद्धांत की एक बड़ी उपलब्धि थी.

अंतरराष्ट्रीय दबाव के बावजूद गुजराल ने अक्तूबर, 1996 में व्यापक परीक्षण प्रतिबंध संधि (सीटीबीटी) पर हस्ताक्षर करने से दृढ़ता से इनकार कर दिया. साहस के साथ उस वक्त उन्होंने इंडिया टुडे को बताया था कि भारत न तो अपने परमाणु विकल्प का आत्मसमर्पण करेगा, न ही वह अलग-थलग कर दिए जाने से घबराता है. गुजराल ने कहा था कि ''इनसानों की तरह जो राष्ट्र घुटने टेक देते हैं या झुकते रहते हैं, उनका कभी सम्मान नहीं होता.'' उन्होंने चीन की धमकी और पाकिस्तान को दी जाने वाली मदद का हवाला दिया, और सीटीबीटी को परमाणु-हथियार संपन्न देशों का हितैषी बताया.

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काहिरा में मेरी ओर से आयोजित एक बैठक में गुजराल की टिप्पणी आज भी याद आती है. कश्मीर पर मध्यस्थता के ब्रिटेन के प्रस्तावों को खारिज करते हुए गुजराल ने टिप्पणी की थी, ''ब्रिटेन के दिमाग में औपनिवेशिक अतीत की भव्यता का भ्रम अब तक बना हुआ है. इसने भारत को विभाजित करते समय कश्मीर की समस्या खड़ी की. अब यह हमें एक समाधान देना चाहता है.'' यह बात महारानी एलिजाबेथ की भारत की राजकीय यात्रा से ठीक पहले की है. मौजूदा ब्रेग्जिट संकट के बीच ब्रिटेन की लगातार गिरती हैसियत, गुजराल के उस आकलन का स्मरण कराती है.

गुजराल नितांत सज्जन और सिद्धांतवादी व्यक्ति थे. स्वभाव से वे जितने शांत और संयत थे, विचारों में उतने ही सख्त. हमारी पड़ोस नीति के संदर्भ में वे एक महत्वपूर्ण विरासत छोड़ गए हैं. भले ही आज उसे गुजराल सिद्धांत के नाम से न जाना जाता हो लेकिन उसका अनुसरण उनके बाद के सभी प्रधानमंत्री करते रहे हैं. ऐसे राजनेता—आज दुर्लभ हैं—उन्हें यादों में बनाए रखने की जरूरत है.

लेखक पूर्व विदेश सचिव हैं

नितांत सज्जन और सिद्धांतादी गुजराल भारत की पड़ोस नीति के मामले में एक महत्वपूर्ण विरासत छोड़कर गए हैं

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