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जंग के मैदान में जरूरी नहीं कि शहादत ही दी जाए: पर्रिकर

पूर्व रक्षा मंत्री और गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर ने कहा है कि अपने कार्यकाल में उनका पूरा ध्यान जवानों की सुरक्षा पर था. पर्रिकर ने कहा शहादत सर्वोच्च बलिदान है, लेकिन उनका ज्यादा जोर इस बात पर रहता था कि लड़ाई में शहीद होने की बजाए हमारे जवान दुश्मनों को मार गिराएं.

पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर
राहुल विश्वकर्मा
  • पणजी,
  • 05 नवंबर 2017,
  • अपडेटेड 5:21 PM IST

पूर्व रक्षा मंत्री और गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर ने कहा है कि अपने कार्यकाल में उनका पूरा ध्यान जवानों की सुरक्षा पर था. पर्रिकर ने कहा शहादत सर्वोच्च बलिदान है, लेकिन उनका ज्यादा जोर इस बात पर रहता था कि लड़ाई में शहीद होने की बजाए हमारे जवान दुश्मनों को मार गिराएं.

जवानों का कम नुकसान थी प्राथमिकता

देश के पहले दिव्यांग मैराथन धावक और मेजर (रिटायर्ड) डीपी सिंह ने पणजी में मैराथन का आयोजन किया था. कार्यक्रम में शिरकत करने पहुंचे पर्रिकर ने कहा कि मेरी कोशिश रहती थी कि ऑपरेशन के दौरान जवानों को कम से कम नुकसान हो. पर्रिकर ने कहा कि वे जवानों से यही कहते थे कि खुद की जान देने से बेहतर दुश्मन को मारना है. देश की हिफाजत के लिए जान दे देना अच्छा है, लेकिन जरूरी नहीं कि शहादत ही दी जाए.

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इस बात का है सुकून

पर्रिकर ने कहा कि उन्हें इस बात का सुकून है कि उनके दौर में जवानों का नुकसान कम से कम हुआ. मोदी सरकार में नवंबर 2014 से मार्च 2017 तक रक्षा मंत्री रहे पर्रिकर ने कहा कि जवानों की शहादत और उनके परिवार के बलिदान के चलते ही हमारे देश की सीमाएं सुरक्षित हैं.

दिव्यांग जवानों का था प्रमुख मुद्दा

उन्होंने कहा कि हमारे सामने कई मुद्दे थे. इनमें से दिव्यांग जवानों का मुद्दा प्रमुख था. उन्होंने इस बात पर खुशी जताई कि ऐसे बहादुर जवानों की भलाई के लिए वे कुछ कर सके. उन्होंने शहीद जवानों की विधवाओं को भी सैल्यूट करते हुए कहा कि देश के निर्माण में उनका भी बड़ा योगदान है.

मेजर सिंह ने कराया आयोजन

उन्होंने कहा कि मेजर सिंह देश की सेवा करना चाहते थे, लेकिन घायल होने के चलते वे ऐसा नहीं कर सके. इसके बावजूद उन्होंने आर्टिफीशियल लिम्ब्स लगवाए. उसके बाद भी वे सामान्य लोगों के मुकाबले ज्यादा एक्टिव रहते हैं. मेजर सिंह ने कारगिल वार में हिस्सा लिया था. उस लड़ाई में वे दिव्यांग हो गए थे. उसके बाद भी उनका हौसला कम नहीं हुआ. बाद में वे ब्लेड रनर बन गए.

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