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गिरिजा देवी स्मृति शेषः गुरु नहीं जैसे मां गई

गिरिजा देवीः 1929-2017

गिरिजा देवी स्मृति शेष गिरिजा देवी स्मृति शेष

जब देवी सरस्वती ने स्वयं काया धारण कर सृष्टि में अवतरित होने की ठानी होगी, तभी सरस्वती बाबा विश्वनाथ की 'गिरिजा' बन काशी में अवतरित हुई होंगी.

विंध्याचल मंदिर में पहली बार दर्शन हुए थे. विंध्यवासिनी मां के रूप तेज जैसा ही रूप और तेज था हमारी अप्पा के व्यक्तित्व में! देवी के नाक में झूलती बड़ी नथ और अप्पा की हीरे की लौंग में एक-सा सम्मोहन था.

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पूरे बचपन, यौवन, उन्हें देखती-सुनती रही, दूर से प्रणाम करती रही. एकलव्य की तरह! ऐसा भी एक दिन चमत्कार हुआ जब स्वयं अप्पा ने मुझे सिखाने की पेशकश की. भातखंडे अंतिम वर्ष में मेरा नटबिहाग सुन अप्पा ने इच्छा प्रकट की, लेकिन तब यह संभव न हो सका. मैं विधि का विधान मान मौन रह गई. विवाह हुआ, जीवन अलग रंग में रंग गया.

पति ने विवाह बाद पहला उपहार दिया, अप्पा जी की ठुमरी और चैती का 'कैसेट' ! 

नाहक लाए गवनवा... मन में हर प्रहर अप्पा की भैरवी के सुर ही गूंजते. और फिर, मां विंध्यवासिनी की कृपा से नवरात्र में बनारस पहुंची और स्वयं को अप्पा जी को समर्पित कर दिया. अठारह वर्ष से बना यह गुरु-शिष्य का संबंध शब्दों में क्या साझा करूं, कैसे-कैसे अनुभव, कैसी नसीहतें, क्या-क्या स्मृतियां हैं! 

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बनारस में उनसे गंडा बंधवाया तो उन्हें गुरु मानकर लेकिन यह गुरु कब मां में बदल गई, मैं जान ही न सकी. जाना तो केवल इतना कि उनकी गोद में सिर रखकर निश्चिंत हुआ जा सकता है, उनका हाथ कांधे पर हो तो साहस अनुभव किया जा सकता है और संगीत के सुरों के साथ साड़ियों के रंगों पर भी घंटों बात की जा सकती है. अप्पा ने अनजाने में सिखाया कि आत्मबल हो तो नई इबारत लिखी जा सकती है! ठुमरी और दादरा की बंदिशों में व्यक्त भावों पर खुलकर चर्चा करती और ऐसे भी पल आए हैं जब प्रेम भाव पर उनसे विस्तृत चर्चा हई. प्रेम को लेकर अप्पा की मौलिक और स्वतंत्र सोच थी. वही सोच उनके भावों में दिखती थी.

अप्पा की संगीत साधना पर भला मैं क्या लिखूं. वे अपने में संस्थान थीं. गहन और विराट. नए बच्चों के लिए सीखने की बात हैकि इतनी ऊंचाइयां पा लेने के बाद वे अब भी घंटों रियाज करती थीं. संगीत उनके लिएसाधना थी, उनकी तपस्या थी. 

अप्पा को जीवन की कठिनाइयों ने पुष्ट किया था. उनके संघर्षों ने उन्हें दृढ़ता दी थी. वो सिखाने बैठतीं तो जहां सुर बिगड़ने पर कसकरडांट लगा देतीं, वहीं जब दुलराने पर आतीं तो कसर न छोड़तीं. अप्पा को जानने वालेजानते हैं कि उन्हें खाना बनाने और खिलाने का बड़ा शौक था. वे इतना स्वादिष्टचूड़ा मटर बनातीं थीं और इतना रच-रचकर खिलातीं कि पेट भर जाए पर मन न भरे.

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आज से दस वर्ष पूर्व अप्पा जी की बाइपास हार्टसर्जरी हुई. आठ दिन बाद ही उनसे मिलने की अनुमति हुई तो मैं कलकत्ता एक सप्ताह केलिए उनके पास गई. मैं उनके कष्ट का अनुमान लगाते हुए घबराती-सी उनके घर पहुंची,अप्पा जी बिस्तर पर थीं. सामान्य शिष्टाचार, कुशल क्षेम, ऑपरेशन की जानकारी केबाद, वे चिंतित हो उठीं मेरे भोजन की व्यवस्था को लेकर! मैंलज्जित हो गई, अप्पा इतनी अस्वस्थ और उसमें भी मेरे लिए व्यग्र

भोजन अभी शुरू ही किया था कि तभी देखा कि बिस्तरसे उठकर अप्पा आकर खड़ी हो गईं और बोलीं, फ्रिज से लीचीवाला संदेश निकालो मालिनी के लिए. हतप्रभ मैं खड़ी हो अप्पाको बिठाने लगी, तभी घर में मुन्नी दीदी और सबने बताया कि तुमआ रही थीं इसलिए अप्पा ने खुद लीची छील उसकी गुठली निकालकर उसमें संदेश का छेनाभरकर फ्रिज में जमाया है.  मैं निःशब्द अप्पा को देखने लगी, स्नेह का यहभाव सिर्फ एक शिष्या के लिए नहीं, एक मां का अपनी बेटी के लिए ही हो सकता था!कितना प्यार था अप्पा के भीतर! और कितनाआत्मबल!

बनारस में उनका घर हो या लखनऊ, मेरठ, नोएडा,दिल्ली में मेरे यहां उनके चरण पड़े हों, उनके साथ बिताए अनगिनत पल मेरी अनमोलनिधि हैं. वही स्मृतियां हैं जो मुझे आगे दिशा दिखाएंगी. अप्पा कहीं नहीं गईं. वेयहीं हैं. मेरे पास हैं. मेरे हृदय में हैं. उनसे मेरा संवाद चलता रहेगा, कभ लोकऔर शास्त्र के समन्वय पर, कभी प्रेम के रूप पर, कभी स्त्री पर! कोई राग, कोई सुर समझना होगा तो उन्हीं से पूछ लूंगी.

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बस, एक शून्य है. वो अब फोन पर उलाहना नहीं देंगीअब... अरे, मालिनी, पहले ये बताओ, तुम हो कहां! हमारे बाबू ठीक हैं न! मेरा कान्हा और कुहू कैसेहैं.” 

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