वर्ष 2007 की सर्दियों में भारतीय कांग्रेस कमेटी के नवनियुक्त महासचिव राहुल गांधी ने प्रस्ताव रखा कि युवा कांग्रेस के पदाधिकारी का निर्वाचन हो, न कि उनका चयन हो. राहुल की मंशा थी कि युवा कांग्रेस के दरवाजे सबके लिए खोल दिए जाएं जो अब तक सिर्फ राजनैतिक पृष्ठभूमि या इससे जुड़े लोगों तक ही सीमित थे. पार्टी के एक महासचिव कहते हैं, ''वे ऐसे नेता तैयार करना चाहते थे जो परिवारवाद से मुक्त हों और उन्हें भारतीय राजनैतिक व्यवस्था के रोग ने न जकड़ा हो. उनकी योजना थी कि जब वे पार्टी का नेतृत्व संभालें, युवा नेताओं की यह पौध सीनियर टीम की जगह लेने को तैयार हो जाए. इस तरह देश में एक नए तरह की राजनीति शुरू हो सके."
बदलाव की यह प्रक्रिया राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी, भोपाल के पूर्व प्रमुख और नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी, बेंगलूरू के पूर्व कुलपति जी. मोहन गोपाल और मिशिगन विश्वविद्यालय से एमबीए सचिन राव की देखरेख में शुरू हुई. महाराष्ट्र में राजीव सातव, कर्नाटक में रिजवान अरशद और असम में पीयूष हजारिका जैसे नेता इसी कवायद की देन हैं. इस सबसे पुरानी पार्टी में लंबे समय से बतौर अध्यक्ष राहुल की ताजपोशी की बात होती रही, पर आज एक दशक बाद भी गैर-राजनैतिक पृष्ठभूमि वाली अपनी युवा टीम तैयार करने की उनकी महत्वाकांक्षा पूरी होती नहीं दिख रही. बहरहाल, सातव लोकसभा में कांग्रेस के 44 सदस्यों में से एक हैं, लेकिन अरशद 2014 का आम चुनाव नहीं जीत सके. बाद में उन्हें कर्नाटक विधान परिषद भेजा गया. हजारिका अब बीजेपी के विधायक हैं.
इसी कारण कांग्रेस उपाध्यक्ष को राज्यों और केंद्र में पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए नेताओं की उसी पुरानी ब्रिगेड पर निर्भर होना पड़ा है जिससे कभी वे छुटकारा पाना चाहते थे. उत्तर प्रदेश, जहां अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं, राहुल के पसंदीदा रणनीतिकार मधुसूदन मिस्त्री को चलता कर दिग्गज गुलाम नबी आजाद को प्रभारी महासचिव बनाया गया है. राहुल के एक और प्रिय प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री को हटाकर राज बब्बर लाए गए हैं. खत्री अब चुनाव स्क्रीनिंग कमेटी के प्रमुख होंगे, जिसका टिकट वितरण में अहम रोल होगा. राहुल के पसंदीदा जितिन प्रसाद और आर.पी.एन. सिंह को यूपी में ही रहने दिया गया है और बतौर चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की सेवाएं ली गई है. एक शीर्ष सूत्र ने इंडिया टुडे से बातचीत में पुष्टि की कि कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को चुना है. एक अन्य घटनाक्रम में पार्टी आलाकमान ने चुनाव प्रबंधन समिति में अमेठी के पूर्व सांसद संजय सिंह को शामिल करने का फैसला किया. 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त संजय सिंह ने अमेठी में राहुल के खिलाफ चुनाव लडऩे की धमकी दी थी जिसके तुरंत बाद उन्हें असम से राज्यसभा सीट की पेशकश की गई थी. हकीकत यह है कि दिल्ली की गद्दी से बेदखल होने वाली 78 वर्षीया शीला दीक्षित पर कांग्रेस का भरोसा जताना इस बात का संकेत है कि दिग्गज नेताओं के बाहर होने के बाद उनकी जगह लेने के लिए नेताओं की दूसरी पंक्ति तैयार करने का राहुल का प्रयोग नाकामयाब रहा है. यह भी एक बड़ी वजह है कि राहुल पार्टी नेतृत्व संभालकर शीर्ष स्तर पर बहुप्रतीक्षित फेरबदल शुरू करने के मामले में अनमने-से हैं. 2014 की शिकस्त ने पार्टी को वक्त और मौका दोनों दिए, लेकिन तब से वह सिर्फ रिवर्स गियर में चल रही है.
2014 के चुनाव से पहले पत्रकारों से अनौपचारिक बातचीत में राहुल ने कहा था कि वे भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे लोगों को टिकट दिए जाने के खिलाफ हैं. संदर्भ महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण थे जिन्हें बाद में टिकट मिला और वे राज्य से जीतने वाले दो कांग्रेसी उम्मीदवारों में रहे. एक साल बाद उन्हें राज्य इकाई का अध्यक्ष बनाया गया. अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के एक सदस्य कहते हैं, ''चव्हाण की जीत राहुल के लिए सबक थी. उन्होंने जाना कि कागजी सिद्धांतों और जमीनी हालात में क्या अंतर है. वे ऐसे लोगों से घिरे हैं जिन्हें पासा फेंकना तो आता है, लेकिन मतदाताओं को कैसे जीतते हैं, इसका कोई अंदाजा नहीं. चव्हाण की नियुक्ति पहला बड़ा बदलाव थी."
ऐसी अटकलें थीं कि राहुल के नेतृत्व संभालते ही सोनिया गांधी के राजनैतिक सचिव अहमद पटेल का पत्ता साफ हो जाएगा, लेकिन राहुल के सबसे भरोसेमंद सहयोगी कनिष्क सिंह की छुट्टी हो गई. कांग्रेस के एक राज्यसभा सांसद के मुताबिक, उन्हें ''प्रियंका के साथ काम करने के लिए कहा गया है." लोकसभा में हार के बाद राहुल ने उन नए लोगों की सूची तैयार की थी जिन्हें पुनर्गठित अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में शामिल करना था, लेकिन कुछ नहीं हुआ जिन चार लोगों के पास वह सूची थी, उनमें से एक पटेल थे.
चुनाव का सामना कर रहे पंजाब में सबसे पहले कमान कमलनाथ को सौंपी गई, एक ऐसा दिग्गज जो राहुल का विश्वस्त नहीं था. दिल्ली में 1984 के सिख दंगों में भूमिका के आरोपों के बीच कमलनाथ का कार्यकाल दो दिन ही टिक सका. फिर कमान हिमाचल प्रदेश से विधायक आशा कुमारी को दी गई जो एक शाही परिवार से हैं और मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की भतीजी हैं. इतना ही नहीं, घूसखोरी के आरोप में इस्तीफा देने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्री पवन बंसल को राज्य में पार्टी के शहरी नवीकरण कार्यबल का प्रमुख बनाया गया. एकलोकसभा सांसद कहते हैं, ''युवा कांग्रेस अध्यक्ष अमरिंदर सिंह राजा तो राहुल के करीबी हैं. वे राज्य में विधायक हैं. हैरत की बात है कि उन्हें बड़ी भूमिका नहीं मिली."
पहले राहुल ने कैप्टन अमरिंदर की मांग के आगे झुकते हुए उन्हें पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया था, बेशक इसके लिए उन्हें अपनी पसंद प्रताप सिंह बाजवा को बरखास्त करना पड़ा था. कई अंदरूनी सूत्रों का दावा है कि यह असम के घटनाक्रम का सीधा असर था जहां पार्टी के कद्दावर नेता हेमंत बिस्व सरमा की रंजिशों को दूर करने से राहुल के बार-बार मना करने के बाद वे बीजेपी में चले गए थे.
एक महासचिव कहते हैं, ''राहुल ने सोचा भी न था कि हेमंत इस्तीफा दे देंगे. जिस दिन हेमंत अलग हुए, राहुल को अपनी गलती का एहसास हुआ. तब से वे क्षेत्रीय दिग्गजों के साथ सावधानी से पेश आते हैं. ''हरियाणा के एक शीर्ष नेता कहते हैं कि यह हेमंत का प्रभाव ही था कि पिछले माह राज्यसभा चुनाव में पार्टी उम्मीदवार आर.के. आनंद की हार में पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा की भूमिका के ठोस सबूत के बाद भी उन्होंने आलाकमान को कार्रवाई से रोक दिया था."
वैसे, बाजवा कुर्सी खोने वाले अकेले प्रदेश अध्यक्ष नहीं हैं. तमिलनाडु में प्रदेश अध्यक्ष ई.वी.के.एस. एलंगोवन को इस्तीफे के लिए मजबूर किया गया. मई में होने वाले चुनाव से पहले पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम, जिनके राहुल से सहज रिश्ते नहीं थे, ने कथित तौर पर उनसे कहा कि वे एलंगोवन के साथ काम नहीं कर सकते और वे चुनाव प्रचार रणनीति में ज्यादा योगदान नहीं कर पाएंगे. चिदंबरम को बाद में महाराष्ट्र से राज्यसभा सीट देकर पुरस्कृत किया गया और महत्वपूर्ण आर्थिक मुद्दों पर उनसे नियमित विचार-विमर्श किया जाता है. उम्मीद है कि राज्यसभा में जीएसटी पर चर्चा के दौरान पार्टी की ओर से मोर्चा थामने की जिम्मेदारी उन्हें ही दी जाएगी.
केरल में भी राहुल के पसंदीदा, प्रदेश अध्यक्ष वी.एम. सुधीरन को बरखास्त किए जाने की संभावना है, हालांकि आलाकमान अभी तक उनका विकल्प नहीं खोज सका है. कर्नाटक अकेला बड़ा राज्य है जहां पार्टी सत्ता में है. वहां भी पूर्व केंद्रीय मंत्री एस.एम. कृष्णा के खासमखास ऊर्जा मंत्री डी.के. शिवकुमार को जल्द ही नया अध्यक्ष बनाया जा सकता है. आलाकमान ने हाल ही में पूर्व मुख्यमंत्री गुंडू राव के बेटे दिनेश गुंडू राव को कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया है. दरअसल, राव की नियुक्ति राहुल की अपनी सेना चुनने के तरीके को बताती है जो वंशवाद से परहेज करने की उनकी शुरुआती रणनीति के उलट है. पिछले महीने असम प्रदेश अध्यक्ष अंजन दत्ता की मृत्यु के बाद पार्टी ने पूर्व मुख्यमंत्री हितेश्वर सैकिया के बेटे देवव्रत सैकिया को कमान सौंपी है. हकीकत तो यह है कि राहुल के समय में पार्टी में बरकरार रहने और बड़ा कद पाने वाले ज्यादातर लोग राजनैतिक परिवार से हैं. इसके दो बड़े उदाहरण लोकसभा में पार्टी के मुख्य नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया और राजस्थान के प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट हैं. हालांकि परिवारवाद के प्रति उनकी आसक्ति ने अप्रत्याशित मोड़ भी लिया और पार्टी को इसके घातक परिणाम भुगतने पड़े. असम कांग्रेस में कई लोगों का मानना है कि पार्टी को मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के बेटे गौरव के कारण हार का मुंह देखना पड़ा. गौरव के साथ तीखे सत्ता संघर्ष के कारण हेमंत को अलग होना पड़ा. पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं ने गौरव की मनमानी की शिकायत भी की, लेकिन राहुल ने उन्हें त्रिपुरा कांग्रेस का पर्यवेक्षक बनाया. उन्हें सी.पी. जोशी का साथ मिलेगा जो असम के प्रभारी महासचिव थे.
एलंगोवन, बाजवा और खत्री को पद छोडऩा पड़ता है, जबकि गौरव को पुरस्कृत किया जाता है. अलग-अलग तरह के पसंदीदा लोगों के लिए अलग पैमाने के इस्तेमाल की राहुल की इसी प्रवृत्ति ने उनके नेतृत्व में कांग्रेस को एक अनिश्चित राह का बंधक बना रखा है. संघर्ष पुराने और नए के बीच नहीं है, यह कामचलाऊ नियुक्तियों से परे जाकर एक व्यापक पुनर्गठित स्वरूप देने का है. और इस मोर्चे पर कांग्रेस उपाध्यक्ष ने अब तक कुछ भी नहीं किया है.