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ग्राउंड रिपोर्ट: ‘मोदी जी ने कहा था- फाइल चलेगी, काम होगा, पता नहीं फाइल कहां चल रही है

सापुतारा से थोड़ी ही दूरी पर स्थित नवागांव में रह रहे 270 डांग परिवारों के लिए इस जगह के मायने बदल जाते हैं. इनके लिए सापुतारा उस टीस की तरह है, जो सालों इनके भीतर उठ रहा है. उस महल की तरह है, जो इनकी जमीन पर बना, बिना इनकी मर्जी के बना और अब ये सब लोग उस महल की चाकरी करते हैं.

सापुतारा से विस्थापित किसान सापुतारा से विस्थापित किसान
विकास कुमार/वंदना भारती
  • सापुतारा ,
  • 28 नवंबर 2017,
  • अपडेटेड 4:39 PM IST

‘गुजरात के आंखों का तारा है-सापुतारा, इस हिल स्टेशन पर बात करने के लिए कोई नहीं है सिवाए बादलों के’

ये एक लाइन उस एक मिनट पांच सेकेंड के ऐड फिल्म से ली गई है, जो अमिताभ बच्चन ने गुजरात टूरिजम के लिए शूट किया है. इसमें कोई शक नहीं है कि सापुतारा गुजरात के आंखों का तारा है. एक आम गुजराती या खासकर सूरतवासी के लिए डांग जिले में स्थित यह हिल स्टेशन उनके लिए विकेंड में मस्ती लूटने का अड्डा है. पिकनिक स्पॉट है. हो भी क्यों ना जब यह गुजरात का अकेला हिल स्टेशन है.

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लेकिन सापुतारा से थोड़ी ही दूरी पर स्थित नवागांव में रह रहे 270 डांग परिवारों के लिए इस जगह के मायने बदल जाते हैं. इनके लिए सापुतारा उस टीस की तरह है, जो सालों इनके भीतर उठ रहा है. उस महल की तरह है, जो इनकी जमीन पर बना, बिना इनकी मर्जी के बना और अब ये सब लोग उस महल की चाकरी करते हैं.

1970 से पहले सापुतारा और नवागांव का नामोनिशान नहीं था. एक ही नाम था-जुनागांव. जुनागांव में तब डांग आदिवासियों के 42 घर थे और वो वहां आराम से रहते थे. लेकिन साल 1970 में इन 42 डांग परिवारों को वहां से हटा दिया गया और तब अस्तित्व में आया, सापुतारा. यह है उस मानवीय विनाश से स्थापित खोखली विकास यात्रा.

इसके साथ ही जुनागांव का अस्तित्व मिट गया और वहां रहने वाले डांग आदिवासी उससे थोड़ी दूर पर बस गए जो कहलाया, नवागांव.

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सवाल यह उठता है कि सालों से रह रहे आदिवासियों को जब उनके जमीन से हटाया गया तो किस तरह से? क्या उनसे उनकी सहमती ली गई? क्या उन्हें सम्मानपूर्वक तरीके से वहां से हटाया गया? या फिर आदिवासी वहां से हटने के लिए खुद ही तैयार हो गए थे? उन सभी आदिवासियों को हटाने से पहले कहां बसाने की योजना थी? वो आज कहां-किन हालातों में जी रहे हैं?

इन सभी सवालों का जवाब रतन भाई हरी भाई गांगुलके दे रहे हैं. क्योंकि उन्होंने वो वक्त देखा है, जब यह विस्थापन हुआ था. हरी भाई को हिंदी नहीं आती. वो अपनी बात डांगी बोली में रखते हैं, जिसे बस्ती के एक लड़के ने हिंदी में अनुवाद किया है. वो कहते हैं, ‘हमें जब हटाया गया था तो बारिश का मौसम था. हम वहां से उठना ही नहीं चाहते थे; उस जमाने में ज्यादा लोग पढ़े नहीं थे, सो उन्होंने सबसे जबरदस्ती अंगूठा का निशान लिया था और फिर पुलिस ने आकर जबरदस्ती हमारे घर का छप्पर तोड़ के हमें हटाया था.

उस विस्थापन में कांग्रेस की सरकार थी और हितेंद्र कन्हैयालाल देसाई मुख्यमंत्री थे. सत्ता परिवर्तन हुआ और भारतीय जनता पार्टी राज्य में अब लम्बे समय से शासन में है. वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्य में सबसे अधिक समय तक मुख्यमंत्री रहे.  

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इस दौरान सारे समीकरण बदल गए. स्थितियां बदल गईं. सापतारा का पर्यटन स्थल के तौर पर बड़ी तेजी से विकास हुआ, लेकिन जो नहीं बदला वो है विस्थापित हुए आदिवासियों की स्थिति. 

कभी खेती-किसानी करने वाले ये डांग आदिवासी आज महाराष्ट्र में जाकर अंगूर की खेती में मजदूरी करते हैं. सापुतारा में ठेला लगाते हैं या किसी बड़े होटल में जाकर लोकगीत गाते हैं या लोकनृत्य करते हैं. इन्हीं से इनके घर का चूल्हा जलता है.

नवागांव में इनके 270 परिवार हैं और पूरे जिले के 311 गांवों में से यही एक ऐसा गांव है, जिसके पास खेती के लिए कोई जमीन नहीं है. जिस जमीन पर ये फि‍लहाल बसे हैं, उस पर भी इनका अधिकार नहीं है. विस्थापन के बाद से ही ये लोग सरकार से मांग कर रहे हैं कि कम-से-कम जहां ये रह रहे हैं, उस जमीन को तो इनके नाम से कर दिया जाए, लेकिन अभी तक सफलता नहीं मिली है.

रामू भाई कहते हैं, ‘हम सरकार से ज्यादा कहां मांग रहे हैं. रहने के लिए घर और खाने-कमाने ले लिए थोड़ी जमीन ही तो मांग रहे हैं. लेकिन इतना भी नहीं मिल रहा है. उलटे कुछ साल पहले एक और सरकारी नोटिस मिला है, जिसमें यह जमीन भी खाली करने के लिए कहा गया है. क्योंकि टूरिस्टों के लिए सरकार यहां पार्क बनाना चाह रही है.’

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अपनी मांग को लेकर इस समुदाय के कुछ लोग साल 2012 में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले भी थे और उन्होंने भरोसा दिलाया था कि वो नवागांव का कुछ करेंगे. उस बारे में रामचंद्र चीमन हड्स बताते हैं, ‘हम गए थे मिलने. मोदी जी से सामने-सामने मिले थे. उन्होंने एक लेटर भी दिया था. बोले थे कि काम हो जाएगा. फाइल चलेगी, लेकिन आज तक कहां कुछ हुआ? पता नहीं फाइल कहां चल रही है?

 इन परिवारों तक बिजली पहुंचती है. इंटरनेट पहुंचता है. लेकिन इनके घरों में शौचालय नहीं है. इसकी वजह स्थानीय पत्रकार हेमंत कहते हैं, ‘देखिए इनमें से किसी के नाम पर जमीन नहीं है. कागज में यह कोई गांव है ही नहीं. अब ऐसे में ना तो इन्हें शौचलाय बनवाने की योजना का फायदा मिलता है और ना ही इनके पास इतने पैसे हैं कि ये शौचलाय बनवा लें.’

हेमंत हमें यह कह ही रहे थे कि पास खड़े डांग आदिवासी युवाओं के झुंड से किसी लड़के ने आवाज लगाई, ‘टीवी पर अमिताभ बच्चन रोज कहते हैं- खुले में शौच करोगे तो बाघ आ जाएग, बाघ आ जाएगा. रहेगा शौचालय तभी ना घर में करेंगे? नहीं तो बाहर ही जाएंगे ना? अब बाघ आता है तो आने दो?

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झुंड में खड़े बाकी लड़के जोर से हंस पड़ते हैं. 

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