बहुत संभालकर रखते हैं सुखबीर बादल अपने सभी पत्ते. अपनी पसंद के किसी भी नेता को वे अपनी पार्टी में ले आ सकते हैं.” यह कह रहे हैं पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष प्रताप सिंह बाजवा. जाहिरा तौर पर वे आजकल बेहाल और परेशान दिखाई देते हैं.
ये वही बाजवा हैं, जिन्हें राहुल गांधी ने राजनैतिक मंच पर नाउम्मीदी झेल रही पार्टी में ऐतिहासिक दूसरी पारी खेलने के लिए मार्च में खास तौर पर चुना था. बाजवा की इस हताशा की वजह है कांग्रेस नेताओं का एक-एक कर अकाली दल की राह लेना. सुखबीर ने ऐसे नेताओं को एक सुनियोजित रणनीति के तहत अपने पाले में ले लिया है. इस तरह से पार्टी पर ढीली होती बाजवा की पकड़ उन्हें परेशान कर रही है.
30 अक्तूबर की दोपहर को कांग्रेस के सबसे पुराने और जाने-माने चेहरे 82 वर्षीय अवतार सिंह बरार ने फरीदकोट के दक्षिण-पश्चिम इलाके से चंडीगढ़ के सेक्टर-27 तक का सफर तय किया और शिरोमणि अकाली दल के कॉर्पोरेट अंदाज में सजे शानदार मुख्यालय में एक अलग तरह का फोटो खिंचवाने के लिए आ पहुंचे.
एक कांग्रेसी के रूप में उन्होंने बेअंत सिंह की सरकार के समय बतौर मंत्री 1992 से 1997 तक काम किया और अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्य रहे. 40 वर्षों तक कांग्रेसी के रूप में काम करने के बाद इस वरिष्ठ नेता ने अब पाला बदलने का फैसला किया था.
शिरोमणि अकाली दल के सबसे युवा अध्यक्ष और पंजाब के उप-मुख्यमंत्री सुखबीर बादल की बगल में फोटो खिंचवाने के लिए मुस्कान भरे चेहरे के साथ खड़े बरार उन कांग्रेस नेताओं की लाइन में जुडऩे वाला एक और नाम हैं जिन्हें कांग्रेस छोडऩे का कोई मलाल नहीं. फरवरी 2012 के विधानसभा चुनाव में अपनी शानदार जीत के तुरंत बाद सुखबीर ने अपने राजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों को कमजोर करने का एक भी मौका नहीं गंवाया.
पटियाला लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में केंद्रीय मंत्री प्रणीत कौर के सबसे भरोसेमंद सहयोगी पंजाब और हरियाणा हाइकोर्ट के सीनियर वकील 52 वर्षीय दीपिंदर सिंह ढिल्लों उन पहले कांग्रेसियों में से हैं जिन्होंने 5 जुलाई, 2012 को नाराज होकर पार्टी छोड़ दी थी. उन्हें शिकायत थी कि 2002 से अब तक लगातार तीन विधानसभा चुनावों में उन्हें टिकट नहीं दिया गया.
उनकी नाराजगी भांपते हुए बादल परिवार और सुखबीर के बहनोई बिक्रम मजीठिया ने ढिल्लों को अपने घर बुलाकर उनसे बातचीत की और उन्हें अपनी पार्टी में शामिल होने के लिए लुभा लिया. वे उनके प्रति आभार जताते हुए कहते हैं, ''बादल साहब, सुखबीरजी और बिक्रमजी के रूप में अकाली दल के शीर्ष नेतृत्व ने व्यक्तिगत तौर पर मुझसे मिलकर पार्टी में शामिल होने का न्योता दिया.”
पटियाला जिला योजना बोर्ड के अध्यक्ष ढिल्लों को अब बताते हैं, 2014 के आम चुनाव में उनकी बीते दिनों की मार्गदर्शक (कौर) के खिलाफ उतारने के लिए तैयार किया जा रहा है.
कांग्रेस नेताओं को लुभाने की यह कवायद, खुद सुखबीर के शब्दों में, उनकी एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है. इसके जरिए वे ऐसे नेताओं को पार्टी में लाने की कोशिश कर रहे हैं, जिनका कि पार्टी विशेष से इतर खुद का भी अपना जनाधार है.
वे इंडिया टुडे से कहते हैं, ''अकाली दल के अध्यक्ष के रूप में यह अपनी पार्टी को मजबूत करने की मेरी दीर्घकालिक योजना का एक अहम हिस्सा है.” अकाली दल के कामकाज को वर्षों से नजदीक से देखते आए एक राजनैतिक विश्लेषक और पंजाबी पत्रकार बलजीत सिंह भी कहते हैं, ''ये दल-बदल एक सधी हुई योजना का हिस्सा हैं.”
सुखबीर कहते हैं कि वे किसी प्रतिद्वंद्वी को जीतने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं, ''दो महीने पहले अपनी टीम के लोगों से मैंने कहा था कि निहालसिंह वाला के नेता अजीत सिंह शांत मुझे अपने साथ चाहिए. तीन दिन बाद वे अकाली दल के सदस्य बन चुके थे.” सुखबीर आगे जोड़ते हैं कि कांग्रेस के पूर्व विधायक शांत के जुडऩे से मोगा जिले में अकाली दल का अब तक कमजोर रहा जनाधार मजबूत हो गया है.
उनका कहना है कि हर नेता ''अपने इलाके में अर्जित की गई वर्षों की साख के साथ-साथ अपने समर्थकों को भी तो लेकर आता है.” इस तरह वे लगातार नेताओं को छीनकर, पहले ही कमजोर पड़े विपक्ष को और अशक्त किए दे रहे हैं. बाजवा भी मानते हैं कि इस तरह से मची भगदड़ पार्टी का मनोबल तोडऩे वाली है.
दबी जबान में वे कहते हैं, ''लोग पार्टी छोड़कर जा रहे हैं क्योंकि लगातार दो कार्यकाल तक विपक्ष में रहने की वजह से वे कांग्रेस के भविष्य पर सवाल उठाने लगे हैं. लेकिन राजनैतिक दलों पर जब बुरा वक्त आता है तो ऐसी बातें हमेशा होती हैं.” कांग्रेस प्रमुख बाजवा इस बात पर अफसोस जताते हैं कि ये नेता ''एक लालबत्ती वाली गाड़ी और चंद बंदूकधारियों के लिए” पार्टी छोड़ रहे हैं.
पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी मानते हैं कि दलबदलुओं की वजह से पंजाब में कांग्रेस कमजोर हो रही है. हालांकि उन्हें भरोसा है कि ''अकाली-बीजेपी सरकार की सुशासन दे पाने में हद दर्जे की नाकामी की वजह से अगले लोकसभा चुनावों के पहले ही कांग्रेस के कार्यकर्ता और उसके वोटर वापस उसके खेमें में आ जाएंगे.”
पर फिलहाल हालात खासे निराशाजनक दिख रहे हैं. पार्टी से नेताओं का लगातार पलायन तो चिंता की वजह है ही, खुद बाजवा पर दो मामलों में राज्य प्रशासन की ओर से कसता कानूनी शिकंजा भी कम परेशानी का सबब नहीं. उन पर 2012 में चंडीगढ़ के आसपास ग्राम पंचायत की जमीन अवैध रूप से हथियाने का आरोप है.
उन पर दूसरा और भी गंभीर आरोप लोक निर्माण विभाग के मंत्री के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान 2002 से 2007 के बीच करोड़ों रुपए के डामर की खरीद में हुई अनियमितताओं से जुड़ा है. सुखबीर ने भी इस मामले में जांच की पुष्टि की है. बाजवा ने पहले आरोप को तो सार्वजनिक रूप से खारिज किया लेकिन 'डामर घोटाले’ पर अभी तक कुछ नहीं कहा है.
बाजवा अपनी ही पार्टी के अंदर उभर रहे कड़े विरोध की वजह से भी अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं. उन्हें प्रदेश पार्टी अध्यक्ष पद से खुद को हटा दिए जाने का अंदेशा भी लगातार सताता रहता है. किसी का नाम लिए बगैर वे कहते हैं, ''पार्टी के कई वरिष्ठ नेता चाहते हैं कि मैं नाकाम हो जाऊं, जिससे कि वे 2014 के चुनावों के नजदीक आते-आते कुर्सी हासिल कर लें.”
उनका इशारा अमरिंदर सिंह और कांग्रेस कार्य समिति के पूर्व सदस्य जगमीत सिंह बरार जैसे नेताओं की ओर है.
चंडीगढ़ में अपने आलीशान घर में बैठे सुखबीर बादल पहले से ही अपने अगले कदम की योजना बनाने में जुट गए हैं. वे कहते हैं, ''संपर्क में रहना, बहुत जल्द मैं कांग्रेस के दो विधायकों को अपने पाले में लाने वाला हूं.” वे भविष्यवाणी भी करते हैं, ''2017 में होने वाले अगले विधानसभा चुनावों तक कांग्रेस बस एक पार्टी का ढांचा भर बनकर रह जाएगी.” कहीं यह खामख्याली तो नहीं?