Advertisement

तो क्या वाकई उच्च शिक्षा से हाथ खींचना चाहती है सरकार !

केंद्रीय विश्वविद्यालयों को हेफा से मिलने वाले कुल फंड का कम-से-कम 10 फीसदी खुद जुटाना होगा. आइआइटी, एनआइटी और आइआइएम जैसे संस्थानों को 25 फीसदी और स्वायत्तत संस्थानों को वेतन के लिए 30 फीसदी फंड खुद जुटाना होगा.

उच्च शिक्षा महंगी करने की कवायद उच्च शिक्षा महंगी करने की कवायद
संध्या द्विवेदी/मंजीत ठाकुर
  • ,
  • 21 फरवरी 2018,
  • अपडेटेड 4:31 PM IST

शैक्षणिक संस्थानों में निवेश बढ़ाने के लिए रिवाइटलाइजिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर ऐंड सिस्टम्स इन एजुकेशन (राइज) नाम के अभियान को लांच करने के प्रस्ताव पर जहां केंद्र सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है वहीं शिक्षक संघ और छात्र संघ इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने बजट भाषण में यह भी कहा था कि इस अभियान को फंड करने के लिए हायर एजुकेशन फाइनेंसिंग एजेंसी (हेफा) को उपयुक्त तरीके से तैयार किया जाएगा.

Advertisement

हंगामा क्यों?

दरअसल सरकार ने केंद्रीय विश्वविद्यालयों और आइआइटी, आइआइएम जैसे अग्रणी संस्थानों को अपने फंड का कुछ हिस्सा खुद जुटाने की योजना बनाई है. और इसको लेकर शिक्षक-संघों और छात्र संगठनों नाराज हैं. अब इन संस्थानों को सीधे सरकार फंड न मिलकर हेफा के जरिए फंड मिलेगा. सरकार ने सितंबर 2016 में ही हेफा के गठन के प्रस्ताव पर मुहर लगा दी थी.

हेफा केनरा बैंक की साझेदारी में बना है, जो मार्केट से भी फंड हासिल करेगा. नई शिक्षा नीति के तहत यह योजना बनाई गई है. केंद्रीय विश्वविद्यालयों को हेफा से मिलने वाले कुल फंड का कम-से-कम 10 फीसदी खुद जुटाना होगा बाकी 90 फीसदी सरकार चुकाएगी. आइआइटी, एनआइटी और आइआइएम जैसे संस्थानों को 25 फीसदी खुद जनरेट करना होगा. स्वायत्तत संस्थान के बतौर विश्वविद्यालयों को वेतन के लिए 30 फीसदी फंड खुद जुटाना होगा.

Advertisement

इस नई नीति के खिलाफ क्या हैं तर्क

डूटा के उपाध्यक्ष सुधांशु कुमार कहते हैं, ''यह साफ तौर पर उच्च शिक्षा से सरकार का हाथ खींचना है." विश्वविद्यालयों के मिलने वाले फंड को लेकर शिक्षक संघ की नाराजगी की वजह खुद शिक्षकों और प्रोफेसरों को मिलने वाले वेतन से भी जुड़ी है.

दरअसल, 30 जनवरी को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने सातवें वेतन आयोग के तहत पे-रीविजन को लेकर सभी विश्वविद्यालयों को पत्र लिखा कि इसे 13 जनवरी 2016 को भेजे गए वित्त मंत्रालय के दिशा-निर्देश से ही कार्यान्वित किया जाएगा. उसके मुताबिक, स्वायत्तत संस्थान के बतौर विश्वविद्यालयों को वेतन के लिए 30 फीसदी फंड खुद जुटाना होगा. इससे भी सरकार की नई फंडिंग नीति का खुलासा होता है.

सुधांशु का कहना है, ''सरकारी विश्वविद्यालय भला फंड कहां से जुटाएंगे, ये कोई मुनाफा कमाने वाले निजी कंपनी तो हैं नहीं?" शिक्षकों-कर्मचारियों की एक प्रमुख मांग सरकार की ओर से 100 फीसदी फंड देना जारी रखना है. एमएचआरडी के राज्य मंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने इंडिया टुडे से कहा, ''कॉर्पोरेट रिसर्च के जरिए संस्थान फंड अर्जित कर सकें, ऐसी व्यवस्था है. मसलन, फैकल्टी और छात्र कॉर्पोरेट कंपनियों के साथ रिसर्च करके फंड जनरेट कर सकते हैं." लेकिन डूटा के पूर्व अध्यक्ष आदित्य नारायण मिश्र कहते हैं, ''30 प्रतिशत रकम कोई छोटी रकम नहीं है."

Advertisement

हालांकि सुधांशु बताते हैं, ''यूजीसी, एमएचआरडी और केंद्रीय विश्वविद्यालयों के बीच एक मेमोरेंडम साइन करने की योजना सरकार ने बनाई है. इसके फॉर्मेट में 30 फीसदी के फंड जनरेशन के तरीके में एलम्नाइ, यूजर चार्ज और फीस बढ़ाने के उपाय बताए गए हैं. अब एलुमिनी के फंड से कहीं संस्थान चल सकता है क्या?" वहीं यूजर चार्ज और फीस बढ़ाने से जाहिर तौर पर छात्र प्रभावित होंगे.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की छात्रसंघ अध्यक्ष गीता कुमारी कहती हैं, ''सरकार की जिम्मेदारी है कि वह सभी के लिए शिक्षा अफोर्डेबल बनाए लेकिन वह तो इसका उल्टा करने को विश्वविद्यालयों को मजबूर कर रही है."

कुछ ऐसा ही तर्क आदित्यनारायण मिश्र का है. वे सरकार के राइज अभियान और हेफा के जरिए फंडिंग की नीति को उच्च शिक्षा के निजीकरण की कवायद बताते हैं. उनका कहना है, ''आजादी के बाद से अगर सामाजिक परिवर्तन संभव हो पाए हैं तो वे शिक्षा के जरिए ही हुए हैं, खासकर उच्च शिक्षा से. सरकार ने इसका अनुदान लगातार कम करते हुए इसे ही कमजोर कर दिया. अब भाजपा सरकार दरअसल अनुदान आधारित शिक्षा को लोन आधारित शिक्षा बनाने पर तुली है."

वहीं यूजीसी के एक पूर्व चेयरमैन नाम न जाहिर करने की शर्त पर बताते हैं कि फंड का कुछ हिस्सा खुद जनरेट करने की नीति से संस्थानों की स्वायत्तता प्रभावित होगी. हालांकि शिक्षाविद् और अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच के अध्यक्ष मंडल के सदस्य अनिल सदगोपाल का मानना है कि यह कोई नई नीति नहीं है. वे कहते हैं, ''मोदी सरकार पिछले तीन साल से यही कर रही है. उसने आते ही आइआइटी, केंद्रीय विश्वविद्यालयों आदि संस्थानों को अपना फंड खुद जनरेट करने को कह दिया, वे एलम्नाइ, कॉर्पोरेट आदि से फंड जुटाएं. इसीलिए आइआइटी-आइआइएम वगैरह की फीस पिछले तीन साल में करीब तीन गुना बढ़ चुकी है.

Advertisement

कुल मिलाकर सरकार का फैसला यही है कि वह शिक्षा को फंडिंग नहीं करेगी." वे यह भी कहते हैं, ''वर्तमान सरकार का महामंत्र है कि जिसकी कुव्वत है तो शिक्षा पाए, जिसकी नहीं है वह शिक्षा से बाहर निकल जाए."

कुछ अग्रणी संस्थान तो फंडिंग जुटा भी सकते हैं लेकिन अधिकतर संस्थानों और केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए फंडिंग जुटाना टेढ़ी खीर साबित होगा. सुधांशु कहते हैं कि विश्वविद्यालयों के पास छात्रों की फीस बढ़ाने के सिवाय और कोई चारा नहीं रहेगा.

सुधांशु कहते हैं, ''असल में हमारे संस्थानों पर भी संकट आ गया है. सो, हम चुप नहीं रहेंगे. 16 फरवरी को हम एमएचआरडी के सामने प्रदर्शन करेंगे जिसमें विभिन्न संस्थानों के छात्र भी शामिल होंगे. उसके बाद 27 फरवरी को डीयू में शिक्षकों की जनरल बॉडी मीटिंग रखी है. अगर सरकार अपने कदम से पीछे नहीं हटती है तो हम फिर और बड़े स्ट्राइक की ओर बढ़ेंगे." जाहिर है, सरकार के लिए आगे की राह आसान नहीं और शिक्षक तथा छात्र आर-पार के मूड में हैं.

बजट में शिक्षा को नहीं मिली तवज्जोः

उच्च शिक्षा के कुल बजट में जहां बेहद मामूली बढ़त हुई है, वहीं केंद्रीय विश्वविद्यालयों सरीखे स्वायत्त संस्थानों की बजट में कटौती ने भी शिक्षकों और छात्रों को अंदेशों से भर दिया है.

Advertisement

—साथ में सुजीत ठाकुर

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement