
अतीत में हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान के फलसफे पर चलने वाली पार्टी जब 2014 में सत्ता में आई तभी से हिंदी प्रेमियों की उम्मीदें भी परवान चढऩे लगी थीं. भ्रष्टाचार के शोर के बीच जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़ी-बड़ी उम्मीदें जगाकर सत्ता संभाली थी, उससे लगा कि अब हिंदी के भी अच्छे दिन आने वाले हैं. उम्मीद तब और बढ़ गई जब उन्होंने हिंदी पर जोर दिया, खूब भाषण दिए और ट्वीट तक हिंदी में कर डाले. प्रधानमंत्री ने 2015 में अपनी धुआंधार विदेश यात्राओं के दौरान भी इस बात का खूब एहसास कराया कि हिंदी भी अब उनके एयर इंडिया वन की तरह बादलों पर सवार होकर दूर-दराज के देशों में पहुंच रही है. प्रधानमंत्री ब्रिक्स सम्मेलन से लेकर लंदन के वेम्बले तक में बड़ी बेबाकी के साथ वहां मौजूद लोगों से हिंदी में संवाद स्थापित करते नजर आए. उन्होंने हिंदी को लेकर हिंदीप्रेमियों मन में पैदा होने वाली झिझक और हिंदी बोलने से जुड़ी तथाकथित राष्ट्रीय शर्म को एक झटके में दूर कर दिया. उन्होंने दिखाया कि अगर प्रधानमंत्री इतने बड़े मंचों पर हिंदी बोल सकते हैं, तो फिर हम क्यों नहीं. हिंदी प्रेमियों के मन में भी यह बात जगी कि येस वी कैन...
2015 की शुरुआत में गणतंत्र दिवस के मौके पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा मुख्य अतिथि थे. 27 जनवरी को ओबामा दिल्ली के सीरीफोर्ट में इंडिया-यूएस बिजनेस समिट को संबोधित करते हुए बॉलीवुड की फिल्म दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे का मशहूर डायलॉग बोलना नहीं भूले, “सेनोरिटा...बड़े-बड़े शहरों में...यू नो व्हाट आइ मीन.” जाहिर तौर पर किसी देश में जाकर वहां की भाषा में अभिवादन या संबोधन करना आम चलन है, लेकिन भारत में इसकी खास अहमियत है.
केंद्र सरकार के कामकाज के मामले में हिंदी को लेकर कोई विवाद नहीं हुआ, जैसा 2014 में गृह मंत्रालय के उस निर्देश पर हुआ था, जिसमें उसने सरकारी विभाग के अधिकारियों को सोशल मीडिया पर हिंदी का इस्तेमाल करने को कहा था. तब जयललिता समेत गैर-हिंदी प्रदेश के अधिकांश नेताओं ने विरोध दर्ज कराया था. असल में 2015 में अनौपचारिक तौर पर विभागीय कार्यों में हिंदी की अहमियत कायम रही. अंदरखाने बड़ी खामोशी से सरकारी विभागों की ओर से हिंदी का इस्तेमाल खासकर सोशल मीडिया पर बढ़ता रहा. यह खुद प्रधानमंत्री के ट्विटर अकाउंट, उनके कार्यालय के अकाउंट और अन्य विभागों में भी नजर आया. अपने अकाउंट से प्रधानमंत्री अक्सर हिंदी में संदेश देते नजर आए. अप्रैल में रेल मंत्रालय के अधीन आने वाले रेलवे बोर्ड के पत्र में भी इसकी झलक मिलती है, जिसमें उसने अपने अधिकारियों और कर्मचारियों को सरकारी काम हिंदी में करने का आदेश दिया.
प्रो. कलबुर्गी की हत्या और असहिष्णुता की बहस में पुरस्कार वापसी अभियान का आगाज भी हिंदी लेखक उदय प्रकाश ने शुरू किया. हिंदी सबसे ज्यादा विवादों और सुर्खियों में भोपाल में 10-12 सितंबर को आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान रही. सरकार ने हिंदी साहित्यकारों को तकरीबन इससे दूर ही रखा. लिहाजा आमंत्रण न पाकर साहित्यकार इसके विरोध में आ गए और इसके औचित्य पर ही सवाल उठाते रहे. ऐसे में सरकार ने कहा कि यह साहित्य सम्मेलन नहीं बल्कि भाषा सम्मेलन है. वहीं व्यापम की मार झेल रहे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री इसके जरिए अपना सियासी दाग धोते नजर आए और उन्होंने कहा, बापू (महात्मा गांधी) के बाद मोदी दूसरे ऐसे गुजराती हैं जो हिंदी को विश्व पटल पर ला रहे हैं. प्रधानमंत्री ने यहां तक कहा, “मैंने चाय बेचते-बेचते हिंदी सीखी.” उनके इस बयान को सुर्खियां मिलनी ही थी. हालांकि प्रधानमंत्री ने कुछ जरूरी मुद्दे भी उठाए. उन्होंने कहा कि हिंदी को समृद्ध बनाने के लिए इसे अन्य भारतीय भाषाओं से जोडऩा होगा और डिजिटल दुनिया में इसका इस्तेमाल बढ़ाना होगा. सम्मेलन में शामिल विशेषज्ञों की अनुशंसाओं को विभिन्न मंत्रालयों और विभागों में भेजने की बात कही गई है, लेकिन विडंबना कि क्या-क्या अनुशंसाएं हुईं इसका जिक्र तक उसकी वेबसाइट पर अभी तक नहीं है.
हिंदी प्रभाव के इस हवाई किले पर प्रहार करते हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व प्राध्यापक और आलोचक प्रो. वीर भारत तलवार कहते हैं, “महज प्रधानमंत्री के हिंदी में भाषण देने से मुझे नहीं लगता कि 2015 में हिंदी को लेकर कोई गंभीर या उल्लेखनीय काम हुआ है. असल जरूरत सरकारी हिंदी की पारिभाषिक शब्दावली को लेकर काम की है. यह काफी कठिन है, जिसे सहज और सरल बनाए जाने की दरकार है.”
साल के आखिर में हिंदी उस दौरान भी सुर्खियों में रही जब सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका पर फैसला आना था जिसमें संविधान के अनुच्छेद-348 में संसोधन की मांग करते हुए हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में भी सुप्रीम कोर्ट और हाइकोर्ट की कार्यवाही की मांग की गई थी. सुप्रीम कोर्ट ने इस मांग को खारिज कर दिया. जाहिर है हिंदी को प्रधानमंत्री के साथ देश-विदेश में सैर का मौका तो मिला लेकिन अपने देश में उसके पांव अभी तक मजबूती से नहीं जम सके हैं.