मेरे पास लोहे का पैर है: अरुणिमा

अरुणिमा पद्मावत एक्सप्रेस से लखनऊ से नई दिल्ली जा रही थीं कि बरेली के पास कुछ लुटेरों ने लूटपाट में नाकाम रहने पर उन्हें चलती गाड़ी से नीचे फेंक दिया.

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Arunima Sinha Arunima Sinha

आशीष मिश्र

  • नई दिल्ली,
  • 31 मार्च 2015,
  • अपडेटेड 1:10 PM IST

आंबेडकर नगर में शाहजाद-पुर इलाके में एक मुहल्ला है पंडाटोला. वहीं एक छोटे-से मकान में रहने वाली अरुणिमा सिन्हा के जीवन का बस एक ही लक्ष्य थाः भारत को वॉलीबॉल में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाना. छठी कक्षा से ही वे इसी जूनून के साथ पढ़ाई कर रही थीं.

समय गुजरता गया. समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर और कानून की डिग्री लेने के साथ अरुणिमा राष्ट्रीय स्तर की वॉलीबॉल खिलाड़ी के रूप में पहचान बनाने लगीं. इसी बीच 11 अप्रैल, 2011 की एक घटना ने उनकी जिंदगी ही बदल कर रख दी.

वे पद्मावत एक्सप्रेस से लखनऊ से नई दिल्ली जा रही थीं कि बरेली के पास कुछ लुटेरों ने लूटपाट में नाकाम रहने पर उन्हें चलती गाड़ी से नीचे फेंक दिया. इस हादसे में अरुणिमा का बायां पैर ट्रेन के पहियों के नीचे आ गया. पैर कटने के साथ ही पूरा शरीर लहुलुहान हो गया. अचानक मिले इस शारीरिक और मानसिक आघात ने अरुणिमा ही नहीं, पूरे समाज को झकझोर कर रख दिया. पर अपने जीवन पर आए इस भीषण संकट में भी अरुणिमा ने हार नहीं मानी. जिंदगी और मौत के बीच झूलते हुए वे नई दिल्ली के ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) में चार महीने तक भर्ती रहीं.

अगस्त 2011 के अंतिम हफ्ते में जब अरुणिमा को एम्स से छुट्टी मिली तो वे अपने साथ हुए हादसे को भूलकर एक बेहद कठिन और असंभव-से प्रतीत होने वाले लक्ष्य को साथ लेकर अस्पताल से बाहर निकलीं. यह लक्ष्य था विश्व की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट को फतह करने का. अब तक कोई भी विकलांग ऐसा नहीं कर पाया था. कटा हुआ बायां पैर, दाएं पैर की हड्डियों में पड़ी लोहे की छड़ और शरीर पर जख्मों के निशान के साथ एम्स से बाहर आते ही अरुणिमा सीधे अपने घर न आकर एवरेस्ट पर चढऩे वाली पहली भारतीय महिला पर्वतारोही बछेंद्री पॉल से मिलने जमशेदपुर जा पहुंचीं.

पॉल ने पहले तो अरुणिमा की हालत देखते हुए उन्हें आराम करने की सलाह दी लेकिन उनके बुलंद हौसलों के आगे आखिर वे भी हार मान गईं. अरुणिमा ने पॉल की निगरानी में नेपाल से लेकर लेह, लद्दाख में पर्वतारोहण के गुर सीखे. उत्तराखंड में नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग और टाटा स्टील ऑफ एडवेंचर फाउंडेशन से प्रशिक्षण लेने के बाद 1 अप्रैल, 2013 को उन्होंने एवरेस्ट की चढ़ाई शुरू की. 53 दिनों की बेहद दुश्वार पहाड़ी चढ़ाई के बाद आखिरकार 21 मई को वे एवरेस्ट की चोटी फतह करने वाली विश्व की पहली महिला विकलांग पर्वतारोही बन गईं. वे यहीं नहीं रुकीं. युवाओं और जीवन में किसी भी प्रकार के अभाव के चलते निराशापूर्ण जीवन जी रहे लोगों में प्रेरणा और उत्साह जगाने के लिए उन्होंने अब दुनिया के सभी सातों महाद्वीपों की सबसे ऊंची चोटियों को लांघने का लक्ष्य तय किया है. इस क्रम में वे अब तक अफ्रीका की किलिमंजारो और यूरोप की एलब्रुस चोटी पर तिरंगा फहरा चुकी हैं.

अरुणिमा ने केवल पर्वतारोहण ही नहीं, आर्टीफीशियल ब्लेड रनिंग में भी अपनी धाक जमाई है. इसी वर्ष चेन्नै में हुए ओपन नेशनल गेम्स (पैरा) में उन्होंने 100 मीटर की दौड़ में स्वर्ण पदक जीता. इस बीच समय निकाल कर वे उन्नाव के बेथर गांव में शहीद चंद्रशेखर आजाद खेल अकादमी और प्रोस्थेटिक लिंब रिसर्च सेंटर के रूप में अपने सपने को आकार देने में भी जुटी हैं. 

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