
सवाल उठता है कि क्या बढ़ता बजट, सितारों की आसमान छूती फीस, कमजोर कहानी या फिर नए दौर से बॉलीवुड का तालमेल न बिठा पाना इस हालत का जिम्मेदार है? फिल्म डायरेक्टर और प्रोड्यूसर महेश भट्ट के मुताबिक, फिल्मों की लागत आसमान छू रही है और कंटेंट गर्त में जा रहा है, जिससे फिल्मों की कामयाबी की दर में जबरदस्त गिरावट आ रही है. वे कहते हैं, ''रेत के महल बन रहे हैं तो गिरेंगे ही. कमजोर कथानक और मोटा बजट नाकामयाबी की वजह बन रहा है.''
ऊंची दुकान, फीके पकवान
हाल ही में इमरान हाशमी की मि. एक्स ने बॉक्स ऑफिस पर दस्तक दी. वीएफएक्स का कमाल. गायब आदमी की कहानी और थ्रीडी का मजा. फिर इमरान हाशमी किसिंग के साथ अपने टारगेट ऑडियंस को भी लुभा रहे थे. लेकिन 40 करोड़ रु. की लागत से बनी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर पस्त हो गई. फिल्म पहले पांच दिन में लगभग 16.50 करोड़ रु. की ही कमाई कर सकी. इस तरह इमरान की 2012 के बाद यह लगातार पांचवीं फ्लॉप थी. हालांकि इमरान इन झटकों से सबक नहीं ले सके हैं और कमजोर कहानी वाली फिल्में लगातार करते जा रहे हैं. मगर फिल्म के प्रोड्यूसर महेश भट्ट इसकी कुछ और ही वजह बताते हैं, ''हमने आशिकी-2 10 करोड़ रु. में बनाई थी और फिल्म ने 100 करोड़ रु. कमाए लेकिन इस बार हमारा बजट कुछ ज्यादा ही हो गया और ऐसी फिल्म बनाई जैसी फिल्में हॉलीवुड में धड़ल्ले से बनती हैं.''
फिल्म का बजट प्रोड्यूसर और इंडस्ट्री के लिए सिरदर्द बनता जा रहा है. बजट बढ़ने की मोटी वजह ऐक्टरों की बढ़ती फीस बताई जाती है. एक ट्रेड एक्सपर्ट बताते हैं कि बड़े स्टार वाली फिल्मों में करीब एक-तिहाई तो स्टारों की फीस ही हो जाती है यानी 50 करोड़ रु. की फिल्म है तो 30-35 करोड़ रु. तक उनकी फीस पर ही खर्च हो जाते हैं. इससे कमाई की मार्जिन लगातार कम होती जा रही है और कई मामलों में तो लागत तक नहीं निकल पाती. हाल में अमिताभ की शमिताभ रिलीज हुई, फिल्म का बजट 58 करोड़ रु. बताया जाता है पर यह बॉक्स ऑफिस पर 18 करोड़ रु. ही जुटा सकी.
पैशन बनाम बिजनेस
आज बॉलीवुड का सबसे बड़ा संकट शायद यही है कि यहां सब कुछ बिजनेस और करियर के ख्याल से होने लगा है. फिल्म बनाने का पैशन तो शायद ही किसी फिल्मकार या सितारे में दिखता है. गुरुदत्त या कमाल अमरोही जैसे पैशन वाले फिल्मकार तो पुराने जमाने की बात हो चुके हैं, कोई नया आइडिया भी अब किसी को नहीं सूझता. महज पैसा कमाना ही जब पैशन बन गया है, तो फिल्मों में कला पक्ष गौण होता गया है. सुपरस्टारों के दौर में तो रही-सही कसर भी पूरी हो गई. कलाकार कला से ऊपर होता चला गया. नई सदी में कदम रखने के साथ यह बात बॉलीवुड में हावी हो गई. ऐड गुरु प्रह्लाद कक्कड़ कहते हैं, ''अब डायरेक्टरों की फिल्में बनना बंद हो गई हैं. आज फिल्में सुपरस्टार्स के नाम पर टिकी होती हैं. बड़ा ऐक्टर साइन होना चाहिए, स्क्रिप्ट तो सेट पर भी तैयार हो जाती है. हमारे इंडस्ट्री के लोग ट्रेंड नहीं हैं.''
चट रिलीज, पट पलीता
पहले फिल्मों के कुछ ही प्रिंट रिलीज किए जाते थे और जनता की दिलचस्पी दिखने के बाद प्रिंट की संख्या बढ़ाई जाती थी. लेकिन, अब करण जौहर जैसे बड़े प्रोड्यूसरों ने थोक में एक साथ प्रिंट जारी करने का रिवाज शुरू कर दिया है. हालांकि इसकी एक वजह यह भी है कि प्रिंट बनाना काफी सस्ता हो गया है. पहले एक प्रिंट की कीमत एक लाख रु. तक पड़ती थी वहीं प्रिंट के डिजिटल होने से मामूली खर्च में ही सब हो जाता है. प्रह्लाद कक्कड़ कहते हैं, ''बड़े प्रोड्यूसर्स ने 4,000 प्रिंट एक साथ रिलीज करने शुरू किए और इस तरह फिल्म खराब भी हो तो पहले हफ्ते में अपनी लागत निकाल लेती थी. लेकिन सोशल मीडिया ने दर्शकों को सयाना बना दिया है. अब शनिवार आते-आते अगर फिल्म खराब है तो उसकी हवा निकल जाती है.''
ट्विटर पर पीके को लेकर हैशटैग वार काफी अहम रहा और इसने फिल्म को आगे ले जाने में अहम भूमिका भी निभाई. फिल्म के समर्थकों ने 'we support pk' हैशटैग वार चलाया तो फिल्म का विरोध करने वालों ने 'boycott pk' को हवा दी. इस तरह इस जंग की वजह से लोगों में जिज्ञासा जगी और फिल्म ने रफ्तार पकड़ी.
तो, उपाय क्या है? कक्कड़ कहते हैं, ''बड़े प्रोडक्शन हाउस और सितारों की मोनोपॉली को तोडऩा होगा. इससे छोटी फिल्में या तो डिब्बे में बंद रह जाती हैं या उन्हें पर्याप्त सिनेमाघर नहीं मिल पाते.'' बिलाशक, सिनेमा के बेहतर भविष्य के लिए यह एक बड़ा सूत्र है, और 2015 की सफल फिल्मों को देखकर संकेत मिलने लगे हैं कि वह दिन दूर नहीं जब यह बात सच हो जाएगी.