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ओडिशा: केसरिया पलटन की छलांग

पंचायत चुनाव में भाजपा ने बंजर सियासी जमीन उपजाऊ तो बना ली, लेकिन सत्ता का सफर अभी लंबा है.

जीत का जश्नः स्थानीय चुनाव में बढ़त के बाद थिरकते प्रभारी अरुण सिंह और प्रदेश अध्यक्ष बसंत पांडा जीत का जश्नः स्थानीय चुनाव में बढ़त के बाद थिरकते प्रभारी अरुण सिंह और प्रदेश अध्यक्ष बसंत पांडा
संतोष कुमार
  • नई दिल्ली,
  • 09 मार्च 2017,
  • अपडेटेड 4:51 AM IST

इसी 24 फरवरी को उत्तर प्रदेश के गोंडा में चुनावी जनसभा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब ओडिशा के पिछड़ेपन, गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी को लेकर बीजद (बीजू जनता दल) सरकार पर तंज कस रहे थे तो उनके चेहरे पर त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में जीत का गुमान भी साफ झलक रहा था. लेकिन ठीक उसी दिन भुवनेश्वर में मुख्यमंत्री नवीन पटनायक पार्टी के लचर चुनावी प्रदर्शन पर अपने विधायकों के पेच कस रहे थे.

पटनायक ने विधानसभा चुनावों में उन विधायकों के पर कतरे जाने का संकेत भी दे दिया, जिनके क्षेत्रों में बीजद का प्रदर्शन बुरा रहा है. पटनायक की खीझ की वजह भी वाजिब है—दलीय चुनाव चिन्ह पर जिला परिषद की कुल 854 सीटों पर हुए चुनाव में भाजपा ने 2012 में मिली 36 सीटों के मुकाबले इस बार 297 पर जीत हासिल करके ओडिशा में सत्ताधारी बीजद के लिए खतरे की घंटी बजा दी है. बीजद का आंकड़ा पिछली बार के 651 से घटकर 473 पर पहुंच गया तो कांग्रेस 128 से घटकर 60 सीटों पर अटक गई. अन्य का खाता भी पिछली बार के 38 के मुकाबले 16 सीटें पर सिमट गया, बाकी सात सीटों पर अभी चुनाव नहीं हो पाया है.

इस अधूरी जीत के बाद भाजपा विधानसभा में पूरी जीत के सपने बुनने लगी है. लेकिन इस जीत का श्रेय लेने की होड़ भाजपा के उन नेताओं में ज्यादा है जो केंद्र की राजनीति में हैं और मुख्यमंत्री बनने की हसरत पाले बैठे हैं.

सपने पर भारी गुटबाजी
बीजेपी को मिली बढ़त पर केंद्रीय पेट्रोलियम राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) धर्मेंद्र प्रधान का कहना है कि ओडिशा में अगली सरकार भाजपा की होगी. वे कहते हैं, ''अगर धांधली न की जाती तो भाजपा 100 सीटें और जीतती. लेकिन राज्य की गरीब जनता ने नोटबंदी के निर्णय पर मोदी सरकार का साथ दिया है." ओडिशा भाजपा के प्रभारी महासचिव अरुण सिंह इस जीत के पीछे तीन वजहें गिनाते हैं, ''प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और केंद्र सरकार की योजनाएं, सूबे में 17 साल का बीजद सरकार का कुशासन और सबसे अहम संगठन को मिली मजबूती, इन तीन चीजों का नतीजा है कि भाजपा को जबरदस्त जीत हासिल हुई. जनता और कार्यकर्ताओं को हम धन्यवाद देते हैं क्योंकि हमारी ताकत प्रदेश में नौ गुना बढ़ी है और 2019 में भाजपा विधानसभा चुनाव जीतकर सरकार बनाएगी."

लेकिन इस उत्साह के बावजूद भाजपा की उम्मीदों पर उन्हीं नेताओं के इलाकों में पानी फिरा है जो मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदारों में शुमार किए जाते हैं. प्रधान के गृह जिले अंगुल और उससे सटे ढेंकनाल में बीजेपी जिला परिषद का चेयरमैन बनाने की स्थिति में नहीं पहुंच पाई है तो एक अन्य केंद्रीय मंत्री जुएल ओराम के जिले सुंदरगढ़ में भी पार्टी की स्थिति वैसी ही है. पांच बार के विधायक और मौजूदा विधायक दल के नेता के.वी. सिंहदेव के गृह जिले बलांगीर और उनकी पूर्व सांसद पत्नी संगीता सिंहदेव के जिले सोनपुर में भाजपा परचम लहराकर अपना चेयरमैन बनाने जा रही है. भाजपा पंचायत चुनाव में मिली बढ़त से उत्साहित है और प्रदेश अध्यक्ष बसंत पांडा थिरकते हुए नजर आते हैं. लेकिन उनके गृह जिले नुआंपाड़ा में भाजपा अपना खाता भी नहीं खोल पाई, जबकि पिछली बार इस जिले से पार्टी को पांच सीटें मिली थीं. पांडा भी प्रधान के करीबी माने जाते हैं.

गौरतलब है कि के.वी. सिंहदेव को हटाकर पांडा को अध्यक्ष बनाया गया था. लेकिन प्रदर्शन के मामले में सिंहदेव ने बाजी मारी है. वे कहते हैं, ''बीजद चुनाव को एकतरफा सोच रहा था, लेकिन केंद्र की मोदी सरकार की योजनाओं की वजह से भाजपा ने उन सीटों पर उम्दा प्रदर्शन किया है जहां लोकसभा-विधानसभा चुनाव में भाजपा पहले-दूसरे पायदान पर रही थी. उन इलाकों में भाजपा का आधार बढ़कर नंबर वन पर पहुंच गया है." ऐसे में जीत से आह्लादित पार्टी को एहसास हो रहा है कि बड़े नेताओं के जिलों में पार्टी उम्दा प्रदर्शन नहीं कर पाई. हालांकि उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में व्यस्त होने के बावजूद प्रधान ने पंचायत चुनाव में संसाधन जुटाने से लेकर प्रचार में काफी अहम भूमिका निभाई.

बीजद की 17 तो भाजपा की 8 जिला पंचायत बनने का रास्ता पक्का है. भाजपा को बलांगीर, बरगढ़, देवगढ़, कालाहांडी, संबलपुर, सोनपुर, मलकानगिरि और मयूरभंज में बहुमत मिल चुका है. जबकि बीजद को अंगुल, बालेश्वर, भद्रक, बौद्ध, कटक, ढेंकानाल, गंजाम, जगतसिंहपुर, जाजपुर, कंधमाल, केंद्रपाड़ा, खोरदा, कोरापुट, क्योंझर, नयागढ, नुवापाडा और पुरी में बहुमत मिला है. कांग्रेस को महज एक जिले झारसुगुडा में बहुमत मिल पाया है. बाकी सीटों पर बहुमत के लिए सियासी बिसात बिछाई जा रही है. लेकिन भाजपा की बढ़त पर बीजद सरकार में मंत्री संजय दासवर्मा कहते हैं, ''भाजपा सपना देखना छोड़ दे क्योंकि राज्य में बीजद अभी भी नंबर वन पार्टी है."

संगठन के शिल्पी बने सौदान
ओडिशा में बीजद का कितना दबदबा रहा है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2014 के आम चुनाव में मोदी लहर के बावजूद विधानसभा की 147 सीटों में से 117 और 21 संसदीय सीटों से 20 सीटें बीजद ने जीती थीं. कांग्रेस लोकसभा की एक सीट भी नहीं जीत सकी और विधानसभा में भी 16 सीटों पर सिमट गई. उस मोदी लहर में भी भाजपा को ओडिशा में कोई खास सफलता नही मिली थी. विधानसभा में महज 10 सीटें तो लोकसभा में एक सीट ही जीत पाई थी. हालांकि लोकसभा की 9 और वह विधानसभा की करीब 40 सीटों पर भाजपा दूसरे पायदान पर थी. पहली बार भाजपा का सदस्यता अभियान प्रदेश में 3.2 लाख से बढ़कर 36 लाख तक पहुंच गया.

सबसे दिलचस्प और चौंकाने वाला तथ्य यह है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह खुद ओडिशा से ही पार्टी के सक्रिय सदस्य हैं. शाह की रणनीति अध्यक्ष बनने के बाद से ही उन राज्यों पर पैनी नजर है जहां मोदी लहर में भी भाजपा सीटें हासिल नहीं कर पाई. इसलिए 2019 के चुनाव में ऐसे राज्यों से सीटें हासिल करना पार्टी के लिए बेहद जरूरी है क्योंकि अभी जहां से भाजपा को सीटें मिली हैं, वहां बढऩे की गुंजाइश नहीं है.

ऐसे में मई 2015 में शाह ने जब भाजपा के राष्ट्रीय संयुक्त संगठन महामंत्री सौदान सिंह को राजस्थान से मुन्न्त कर संगठनात्मक दृष्टि से ओडिशा की जिम्मेदारी भी सौंपी तो उन्होंने छत्तीसगढ़, झारखंड जैसे राज्यों में अपनाए गए अपने संगठन विस्तार के फॉर्मूले को ही अपनाया. उन्होंने ही ''बीजद हाफ, कांग्रेस साफ" का नारा देकर संगठन की व्यूह रचना की. भाजपा के एक नेता कहते हैं, ''सौदान सिंह संगठन के माहिर हैं. वे योजनाएं बनाते थे और हम उस पर अमल करते थे."

2008 तक नवीन पटनायक के साथ रही भाजपा का राज्य में करीब 100 से ज्यादा विधानसभा सीटों पर सांगठनिक वजूद ही नहीं था. इसलिए पार्टी ने सबसे पहले 451 मंडलों की जगह 999 मंडल बनाए. जिनमें से 850 का पूर्णतया गठन हो चुका है. सौदान सिंह की रणनीति के हिसाब से ही मंडल की और जिलों की कार्यकारिणी बनाई गई. जबकि पहले भाजपा भुवनेश्वर तक में जिला कार्यकारिणी गठित नहीं कर पाती थी.

कार्यकर्ताओं का उत्साह बनाए रखने के लिए पार्टी ने मंडल के स्थानीय मुद्दे पर तीन महीने में तीन प्रदर्शन और फिर जिला और आखिर में नवंबर 2016 में अमित शाह की अगुआई में भुवनेश्वर में विशाल प्रदर्शन किया. मंडल और जिला इकाई को सशक्त बनाकर सांगठनिक निर्णय के अधिकार दिए गए. 2014 के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रदेश में तीन बड़े कार्यक्रम के लिए भी संगठन स्तर पर प्रवास कर कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाया गया. प्रभारी अरुण सिंह ने महीने में कम से कम तीन दौरे सुनिश्चित कर लिए थे और उन्हें पार्टी में यूपी की जगह ओडिशा का नेता कहा जाने लगा.

भाजपा ने इस चुनाव को विधानसभा के सेमीफाइनल की तरह उसने लड़ा. हेलिकॉप्टर से छत्तीसगढ़-झारखंड के मुख्यमंत्रियों, पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा, केंद्रीय राज्यमंत्री विष्णुदेव साय सरीखे नेताओं को चुनाव में उसी तरह उतारा जैसे विधानसभा में प्रचार कराती है, जबकि अति आत्मविश्वास में बीजद फिल्मी सितारों के भरोसे ही प्रचार करता रहा. बीजद ने चुनाव में प्रदेश और केंद्र से जुड़े महानदी विवाद जैसे मुद्दे उठाए तो भाजपा ने पंचायत स्तर और जिला स्तर के मुद्दों पर फोकस कर नवीन पटनायक सरकार और उनके मंत्रियों-विधायकों को घेरा.

भाजपा को बढ़त तो मिली है, लेकिन संगठन की इस धार को आगे बढ़ाए बिना उसकी की छलांग पूरी नहीं हो सकती.

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