
पंजाब के जिरकपुर में गरमी से भरी एक सुबह को एक फार्महाउस के बड़े से मैदान में बाहर से झांकने पर एक अलग ही दुनिया का नजारा दिखाई देता है. गौर से देखें तो आपको लगेगा कि आप सीधे रियो डि जेनेरियो पहुंच गए हैं, खासकर ब्राजील के उत्तर-पश्चिमी किनारे पर बसे इस सबसे मशहूर शहर के ओलंपिक शूटिंग सेंटर में. और तारीख, मान लीजिए 8 अगस्त, 2016 की सुबह. वहां आपको भारत के एकमात्र व्यक्तिगत ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता अभिनव बिंद्रा दिखाई देते हैं, जो हरे-भरे मैदान की पृष्ठभूमि में निश्शब्दता की तस्वीर मालूम होते हैं. वे वहां 10 मीटर की दूरी पर बने छोटे-से गोल घेरों पर निशाना साध रहे हैं. आप उन्हें चुपचाप लगातार निशाना लगाते हुए देखते हैं, और मुंह से एक भी शब्द निकालने से डरते हैं कि कहीं उनकी एकाग्रता में किसी तरह का व्यवधान न पड़ जाए. कई महीनों से बिंद्रा अपने इस फार्महाउस के जरिए ओलंपिक के मैदान तक पहुंचने के लिए गुप्त मार्ग का इस्तेमाल कर रहे हैं.
और वास्तविकता, जो हालांकि उतनी शानदार नहीं दिख रही, लेकिन प्रेरणा देने वाली जरूर है. बिंद्रा जब 2015 में तैयारियों को परखने वाले एक आयोजन के लिए रियो गए थे तो उन्होंने वहां हर कोण से शूटिंग रेंज की तस्वीरें खींची थीं और उन तस्वीरों को अपनी मां बबली को भेज दिया था. वे जब रियो से वापस लौटे, तब तक उनकी मां ने अपने घर के पीछे के बगीचे में बने उनके निजी शूटिंग रेंज को हू-ब-हू रियो के शूटिंग रेंज में तब्दील कर दिया था, ताकि जब वे वहां शूटिंग करें—अपने दूसरे ओलंपिक स्वर्ण के लिए—तो उन्हें कुछ इस तरह महसूस हो कि जैसे वे अपने घर पर ही हैं.
लेकिन हर एथलीट को बिंद्रा की तरह जन्म से ही इतनी सुविधाएं हासिल होने का सौभाग्य नहीं प्राप्त है. फिर भी ओलंपिक में हिस्सा लेने के लिए रियो जा रहा भारत का हर खिलाड़ी दीवानगी की हद तक जोश से लबालब भरा है और शारीरिक तथा मानसिक रूप से खुद को तैयार करने में जुटा है. अगर पहलवान योगेश्वर दत्त, जिन्होंने 2012 के लंदन ओलंपिक में कांस्य पदक जीता था, एक ऐसे कमरे में दिन में पांच घंटे अभ्यास करके अपना दमखम बढ़ाने में लगे हैं, जिसका तापमान पहाड़ की ऊंचाई पर स्थित जगह के तापमान जैसा है, तो दीपा करमाकर, जो ओलंपिक के लिए क्वालीफाइ करने वाली पहली भारतीय महिला जिमनास्ट हैं, ने खुद को दिल्ली के इंदिरा गांधी इनडोर स्टेडियम में कैद कर रखा है.
इस बार ओलंपिक में हिस्सा लेने जा रहे 121 भारतीय खिलाडिय़ों का दल इससे पहले के ओलंपिक आयोजनों में गए किसी भी दल से बिल्कुल अलग है. आप इस दल के एथलीटों से बात करें तो पाएंगे कि पिछले आठ वर्षों—तभी से जब से बीजिंग में बिंद्रा ने सुबह-सुबह इतिहास रचा था—में इन खिलाडिय़ों के सोचने के तरीके में कितना बड़ा बदलाव आ चुका है. वे सिर्फ कोई भी पदक मिल जाने की उम्मीद नहीं कर रहे हैं, बल्कि अब वे सीधे स्वर्ण पदक जीतने का जज्बा पाले हुए हैं. भले ही वे स्वर्ण पदक जीतते हैं, या नहीं, यह बात अब कोई मायने नहीं रखती है. असली बात यह है कि अब उन्हें लगता है, वे जीत सकते हैं, वे सिर्फ हारने वाले नाकाबिल प्रतियोगी नहीं हैं, वे सिर्फ गिनती पूरी करने के लिए नहीं जा रहे हैं, वे वहां अपना सपना पूरा करने के लिए हरसंभव प्रयास कर रहे हैं—भारतीय स्पोर्ट के क्षेत्र में यह सब पहली बार देखने को मिल रहा है.
वे दिन लद गए जब भारतीयों को हर चार साल बाद यह सचाई याद आती थी कि वे ओलंपिक में हिस्सा लेने जा रहे हैं.
हमेशा से ही यही कहानी रही हैः तीन हफ्ते का मातम, जो संयोगवश पदक मिल जाने से एकाएक उमंग में तब्दील हो जाता था, और फिर हम अगले ओलंपिक में भी वही कहानी दोहराने का इंतजार करते थे. जीने का यह तरीका अच्छा था—सुखद और सुविधाजनक, भले ही वह कितना ही नीरस क्यों न हो. जब आप किसी चीज की उम्मीद नहीं करते हैं, तो आम तौर पर कुछ हाथ लग जाता है. इस तरह एकाध पदक लेकर हम खेल के नाम पर क्रिकेट की दीवानगी लिए हुए चुपचाप लौट आते थे और जिंदगी पहले की तरह चलती रहती थी.
इस बीच खेल प्रशासकों के सैर-सपाटे वाले दौरे, भ्रष्टाचार के स्कैंडल, खेल संघों पर अध्यक्ष के रूप में दशकों से कुंडली मारकर बैठने की कहानियां सुनने को मिलती रहती थीं, जबकि हमारे एथलीटों के बारे में पेट पालने के लिए संघर्ष करने की कहानियां सुनने को मिलती थीं. उन्हें होटलों की जगह लावारिस पड़े रेल के डिब्बों में रहने को कहा जाता था, उन्हें बुनियादी कोचिंग तक नहीं मुहैया कराई जाती थी और क्रिकेट के सुपरस्टारों की तुलना में उनके साथ दूसरे दर्जे के नागरिकों की तरह व्यवहार किया जाता था. भारत में ओलंपिक खेल एक दुष्चक्र में फंसकर रह गए थे, जहां एथलीट का नाम तभी चर्चा में आता था जब वे अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में कोई नाटकीय सफलता हासिल कर लेते थे, जो कि बहुत मुश्किल काम होता था, क्योंकि उन्हें सफलता हासिल करने के लिए जरूरी सुविधाएं नहीं दी जाती थीं.
लेकिन पिछले दो ओलंपिक से भारत के लंबे समय से दबे-कुचले एथलीट मामले को अपने हाथों में लेने में कामयाब रहे हैं और स्थिति काफी हद तक बदल चुकी है. बीजिंग से तीन और लंदन से छह पदक लेकर लौटने के बाद उन्होंने अब तक उपेक्षा का भाव रखने वाले देश का ध्यान अपनी तरफ खींचा है.
भारतीय खेल प्राधिकरण (एसएआइ) के सोनीपत स्थित केंद्र में कुश्ती के हॉल में युवा खिलाडिय़ों ने सुशील कुमार और योगेश्वर दत्त की तस्वीरें लगा रखी हैं. वे कुश्ती के इन धुरंधर खिलाडिय़ों की तस्वीरों के सामने अभ्यास करते हैं ताकि उनकी तरह सफलता हासिल कर सकें. उनके नायकों ने लगभग अजेय बाधाओं का सामना करते हुए उन्हें पार किया है—निर्मम अधिकारी, जरूरी सुविधाओं का अभाव, सरकारी उदासीनता, अपने समर्थन में बोलने वाले एक भी प्रशंसक का न होना.
ओलंपिक में ऐसा क्या है, जो इसे इनसानी उपलब्धि की अंतिम कसौटी बनाता है. ऐसी कौन-सी शक्ति है जो खिलाड़ी को खेल की सबसे बड़ी चुनौती से पार पाने के लिए जमकर अञ्जयास करने के लिए विवश करती है. ऐसा क्या है जो ओलंपिक के गौरव को निराशा से भरी दुनिया में उम्मीद का प्रतीक बना देता है. इसका उत्तर शायद एक छोटे कद के आदमी पियरे डि कुबरटिन की परिकल्पना में निहित है. पांचवें आधुनिक ओलंपिक से ठीक पहले 1912 में फ्रांस के इस कुलीन के दिमाग में एक विचार का आविर्भाव हुआ. उन्होंने प्रत्येक पांच महाद्वीपों के लिए एक-एक छल्ले का रेखाचित्र खींचा, उन्हें एक-दूसरे से गूंथा और उन्हें दुनिया भर के राष्ट्रीय झंडों के सबसे चटख रंगों से रंग दिया. और इस तरह से ओलंपिक के महान प्रतीक का जन्म हो गया. पांच छल्ले जो शांति और भाईचारे का प्रतीक हैं. पांच छल्ले जो दंभ से नहीं, बल्कि परस्पर सम्मान के जरिए देशों को आपस में जोड़ते हैं. पांच छल्ले जो प्रतियोगिता में ईष्र्या की जगह प्रशंसा के भाव का प्रतीक हैं.
कुबरटीन का कहना था कि ओलंपिक का मतलब जीतना या हारना नहीं है, बल्कि यह दिखाना है कि आप कैसा खेले. और इसी में उनकी अंतिम चुनौती निहित है. आप कैसा खेले का मतलब सिर्फ सक्वमान और ईमानदारी के साथ खेलना भर नहीं है, बल्कि अपनी पूरी क्षमता के साथ खेलना है, जिसमें आप अपनी पूरी ताकत झोंक दें, अपनी सीमाएं तोड़ दें, और इसी के साथ इनसानी कोशिश की सीमाएं भी.
भारत में हमने कभी भी वास्तव में ओलंपिक को इस नजरिए से नहीं देखा. हॉकी को छोड़ दें तो हमारे पास गर्व करने के लिए सिर्फ इतना ही कहने को होता था कि हम कुछेक मुकाबलों में जीतते-जीतते रह गए, जैसे कि 1960 और 1984 में. इसके अलावा व्यक्तिगत प्रदर्शन के तौर पर कुछ प्रसन्नता मिश्रित आश्चर्य भी देखने को मिले, जैसे कि 1952, 1996, 2000 और 2004 में क्रमशः खशाबा जाधव, लिएंडर पेस, करणम मल्लेश्वरी और राज्यवर्धन राठौड़ का प्रदर्शन. लेकिन हमारी मौजूदा एथलीटों की पीढ़ी ने आखिरकार तस्वीर बदल दी है, जिसमें ओलंपिक गोल्ड क्वेस्ट (ओजीक्यू) जैसी संस्थाओं का भी भरपूर योगदान रहा है, जिन्होंने प्रतिभाशाली खिलाडिय़ों को अपनी प्रतिभा दिखाने और अंततः ओलंपिक की वास्तविक भावना को खोज निकालने का पूरा अवसर प्रदान किया है.
निश्चित ही भारत को सही मायने में एक खेलकूद वाला राष्ट्र बनने के लिए अभी लंबा सफर तय करना होगा. उसके लिए हमारे समाज को खेल को एक संस्कृति के तौर पर अपनाने की जरूरत होगी, उसे अपने जीवन का एक अंग बनाना होगा. हमने अभी बहुत छोटा कदम उठाया है, लेकिन इसके बावजूद हमने महत्वपूर्ण प्रयास किए हैं. इंडिया टुडे कान्क्लेव 2016 में ऑल-इंग्लैंड बैडमिंटन चैंपियन और भारत के राष्ट्रीय कोच पुलेला गोपीचंद ने भारत के सामने आने वाली समस्या के मूल स्वभाव को उजागर किया था. गोपीचंद ने दो बराबर भुजाओं वाले एक त्रिभुज का रेखाचित्र बनाया और फिर इसमें क्षैतिज रेखाएं खींचकर त्रिभुज के तीन हिस्से कर दिए. उन्होंने कहा कि नीचे का सबसे बड़ा हिस्सा उन लोगों की संख्या है जो भारत में खेलों में भागीदारी करते हैं. बीच का हिस्सा उन लोगों की संख्या बताता है जो खेल को प्रतियोगिता के तौर पर खेलते हैं. और तीसरा सबसे छोटा हिस्सा उत्कृष्ट एथलीटों का है, जो चोटी पर पहुंच गया है. उन्होंने कहा कि इस तरह के ज्यादा उत्कृष्ट खिलाड़ी पाने के लिए इस त्रिभुज को बड़ा बनाने की जरूरत होगी ताकि त्रिभुज का सबसे छोटा हिस्सा समानुपात के हिसाब से बड़ा हो सके. यही एकमात्र तरीका है. समस्या यह रही है कि सरकार ने खेलों को बढ़ावा देने के लिए कुछ भी सहयोग नहीं दिया है और जहां चोटी के एथलीटों, जो अपने बल पर किसी तरह शिखर तक पहुंचने में कामयाब रहे हैं, के लिए सुविधाएं उपलब्ध हैं, वहीं उन खिलाडिय़ों के लिए अब भी कोई सुविधा नहीं दी जा रही है जो अभी ऊपर चढऩे की कोशिश कर रहे हैं.
लेकिन गोपीचंद का सटीक विश्लेषण एक स्वाभाविक परिणाम की तस्वीर पेश करता है. यानी हमारे चोटी के खिलाड़ी जितना अच्छा प्रदर्शन करते हैं, उतना ही ज्यादा वे टीवी के परदे पर पदक के लिए मुकाबला करते नजर आते हैं, उनकी तस्वीरें जितना ज्यादा देश भर के मुक्केबाजी के जिमों, कुश्ती के अखाड़ों और शूटिंग रेंजों में दिखाई देंगी, उतने ही ज्यादा लोग खेल को अपनाने के लिए प्रेरित होंगे. और इस तरह देश में खेल की बुनियाद तेजी से मजबूत होगी.
इसलिए रियो 2016 भारत की खेल यात्रा में अगला बड़ा कदम साबित होगा. हमारे चुनिंदा खिलाड़ी अब वह सपना देखने का साहस कर रहे हैं. और अब समय आ गया है कि हममें से बाकी लोग भी उनके साथ सपने देखें. इसलिए हमारे अगले कुछ पन्ने बताएंगे कि हमारे चोटी के एथलीटों ने देश को उम्मीद की झलक दिखाने से कहीं ज्यादा कुछ करने के लिए किस तरह बाधाओं को पार किया. और अब खेल शुरू होने का इंतजार है.