
कई हफ्तों की रस्साकशी के बाद अशोक गहलोत और सचिन पायलट ने बेशक अभी हाथ मिला लिया हो, लेकिन राजस्थान में राजनीतिक उठापटक ने बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के लिए एक अप्रत्याशित संकट खड़ा कर दिया है. बीएसपी सुप्रीमो मायावती को अब अदालत के फैसले का इंतजार है कि क्या बीएसपी के छह विधायकों का कांग्रेस में विलय अवैध था? अगर फैसला उनके खिलाफ जाता है, तो बीएसपी राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा खो सकती है.
पिछले साल हैरान करने वाले कदम में, गहलोत ने बीएसपी के विधायकों को बांटने की जगह इस पार्टी की पूरी छह सदस्यीय विधायी इकाई को ही कांग्रेस में मिला लिया था. मायावती ये भूली नहीं. पिछले महीने के अंत में, मायावती ने कहा था कि वह गहलोत को सबक सिखाने के लिए सही समय का इंतजार कर रही हैं.
इसके तुरंत बाद, बीएसपी ने अदालत में विलय को चुनौती दी. पार्टी ने अविश्वास प्रस्ताव के मामले में गहलोत के खिलाफ मतदान करने के लिए अपने छह विधायकों को व्हिप भी जारी किया था. हालांकि यह फैसला अदालत में लंबित है. लेकिन हाल में गहलोत का पायलट के साथ समझौता नहीं होता और बीएसपी विधायकों के कांग्रेस में विलय को अवैध घोषित कर दिया जाता तो गहलोत सरकार गिर गई होती.
क्या विलय अवैध है?
बीएसपी का दावा है कि वह एक राष्ट्रीय पार्टी है, विलय के बारे में निर्णय केवल राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा लिया जाना चाहिए था. लेकिन ये दलील दो कारणों से मजबूत नहीं बैठती.
एक, संविधान की 10 वीं अनुसूची के अनुसार किसी सदन में मूल राजनीतिक दल का विलय तब और केवल तब माना जाएगा जब उस दल के दो-तिहाई सदस्यों (विधायकों) ने पार्टी संबंधित ऐसे विलय के लिए सहमति दे दी हो. चूंकि राजस्थान में बीएसपी के सभी छह विधायकों ने कांग्रेस में विलय का फैसला लिया था, इसलिए यह संविधान की 10 वीं अनुसूची के मुताबिक मान्य है, बशर्ते कि सदन के स्पीकर ने भी इसे स्वीकार कर लिया हो. यहां यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यह राजस्थान में कांग्रेस के साथ विलय करने वाली बसपा राज्य इकाई नहीं है, बल्कि विधान सभा के बसपा सदस्य हैं, जिनके लिए पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व के बजाय अध्यक्ष की अनुमति आवश्यक है.
दूसरा कारण यह है कि यह पहली बार नहीं है जब राजस्थान में पूरी बीएसपी विधायी इकाई किसी अन्य पार्टी में विलय हुई है. 2008 में, तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बीएसपी के सभी छह विधायकों को कांग्रेस में विलय कर दिया था और जिसे स्पीकर की ओर से स्वीकार किया गया था. उस समय, बीएसपी ने यह दावा नहीं किया था कि विलय का निर्णय केवल राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा लिया जा सकता है. तब भी विलय के खिलाफ बीएसपी ने अदालत का दरवाजा खटखटाया लेकिन कानूनी लड़ाई में वो हार गई.
पिछले साल, तेलंगाना और गोवा में दो-तिहाई कांग्रेस विधायकों का क्रमशः टीआरएस और बीजेपी में विलय हो गया, और इन्हें स्पीकर्स की ओर से स्वीकार कर लिया गया. इन पर केस अदालतों में दायर हुए जिन पर फैसले लंबित हैं.
बीएसपी में दलबदल पहले भी होती रही है
बीएसपी के टिकट पर चुनाव जीतना और फिर किसी दूसरी पार्टी में विलय होना कोई नई घटना नहीं है. अकेले राजस्थान को छोड़ दें, लेकिन उत्तर प्रदेश में भी, जहां बीएसपी जहां तीन दशकों से मजबूत चुनावी प्लेयर रही, वहां भी इस पार्टी में बीजेपी और समाजवादी पार्टी कई बार सेंध लगाती रहीं. 1995 में, उत्तर प्रदेश में एसपी और बीएसपी सरकार का हिस्सा थे. लेकिन बाद में बीएसपी ने अलग राह पकड़ने का फैसला किया तो मुलायम सिंह यादव ने बड़े पैमाने पर बीएसपी में दलबदल कराने की योजना बनाई, हालांकि, वह अपनी सरकार को बचाने में फिर भी विफल रहे.
1997 में, बीएसपी ने फिर से कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला किया. सिंह ने तब अपनी सरकार को बचाने के लिए बसपा के 67 विधायकों में से एक तिहाई (जैसा कि तब नियम था) के दलबदल का प्लान तैयार किया.
2003 में फिर से, मुलायम सिंह यादव ने बीएसपी के 37 विधायकों का दलबदल किया, और तीसरी बार मुख्यमंत्री बने. बीएसपी ने इसे अदालत में चुनौती दी, लेकिन जब तक सुप्रीम कोर्ट ने दलबदलुओं को अयोग्य घोषित कर दिया, तब तक विधानसभा का कार्यकाल समाप्त हो चुका था.
राजनीति में कोई स्थायी दुश्मन-दोस्त नहीं होता
बीएसपी में सेंध अक्सर राजनीतिक बहस का विषय रही है. बीजेपी और बीएसपी, दोनों का ही उदय 1980 के दशक में कांग्रेस को मजबूत चुनौती देने के लिए हुआ. बाद के दशकों में, दोनों कैडर-आधारित दल मजबूत राजनीतिक दावेदार बन गए. हालांकि, जहां बीजेपी लगातार मजबूत होती जा रही है, वहीं बीएसपी को अलग-अलग राज्यों में मौजूदगी के बावजूद लंबा रास्ता तय करना है.
प्रयागराज में जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक और दलित राजनीति के जानकार प्रोफेसर बद्री नारायण बीएसपी के कमजोर होने के पीछे के कारण बताते हैं.
प्रो. बद्री नारायण के मुताबिक “राजनीति के आधार के रूप में जातिवाद संकट में है. ऐसा हिंदुत्व की राजनीति के उदय की वजह से है जिसने बीजेपी को लाभ पहुंचाया है. इसके अलावा, बीएसपी में नेतृत्वयोग्य प्रतिभा और एजेंडे का विकास स्थिर हो गया है. यह अपने कैडर और मतदाताओं को जुटाने के लिए अभिनव विचार और राजनीति देने में सक्षम नहीं हो रही."
राजस्थान में बीएसपी की लड़ाई सिर्फ अपने 6 विधायकों को वापस पाने की नहीं है, बल्कि एक राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा बरकरार रखने की है. राष्ट्रीय पार्टी के दर्जे के तीन मानदंडों में से (लगातार दो चुनावों में प्रदर्शन के आधार पर मान्यता), बीएसपी वर्तमान में उन मानदंडों को पूरा करती है, जो कहते हैं कि राष्ट्रीय पार्टी के दर्जे के लिए कम से कम चार राज्यों में राज्य पार्टी का दर्जा होना जरूरी है. वर्तमान में, बीएसपी को उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तराखंड में राज्य पार्टी के रूप में मान्यता प्राप्त है. अगर राजस्थान में अपने विधायकों के विलय का फैसला बीएसपी के खिलाफ जाता है, तो पार्टी राष्ट्रीय पार्टी के रूप में अपनी पहचान खोने के कगार पर होगी.