राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने 26 अप्रैल को गुजरात का प्रभारी महासचिव नियुक्त कर दिया जहां साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं. गहलोत चार साल पहले खुद अपना राज्य नहीं बचा पाए थे, लिहाजा यह फैसला देखने में एकाबारगी अतार्किक लगता है. उन्होंने गुरदास कामत की जगह ली है जो अपने गृह राज्य महाराष्ट्र में किनारे लगाए जाने को लेकर नाराज हैं. अपने से काफी छोटी उम्र के सचिन पायलट के सामने गहलोत खुद दिक्कतों का सामना कर रहे हैं जिन्हें 2018 के विधानसभा चुनाव के लिए राजस्थान की कमान सौंपी गई है. गहलोत ने भले ही उस स्क्रीनिंग कमेटी की अगुआई की हो जिसने पंजाब चुनाव के लिए उम्मीदवारों की छंटाई की थी और नतीजतन दशक भर बाद पार्टी वहां की सत्ता में दोबारा लौटी है, लेकिन यह योगदान गहलोत को उनकी पुरानी हैसियत लौटाने में काम नहीं आया.
ऊपर से नियमित दिखने वाला यह फैसला दरअसल उपाध्यक्ष राहुल गांधी की नई सांगठनिक रणनीति का हिस्सा है. गहलोत अहमद पटेल के वफादार माने जाते हैं. गुजरात के रहने वाले सोनिया गांधी के राजनैतिक सचिव पटेल की राज्य की सियासत पर मजबूत पकड़ है इसलिए पार्टी के लिए उनकी सक्रियता महत्व की है. पार्टी के एक महासचिव कहते हैं, ''गहलोत को गुजरात का प्रभारी बनाकर राहुल ने पटेल को राज्य के लिए जवाबदेह बना दिया है. आम धारणा से उलट राहुल पार्टी के पुराने चेहरों या अपनी मां के करीबियों के साथ टकराव में नहीं हैं बल्कि उन्हें साथ लेकर चल रहे हैं."
इसके अलावा पिछले एक हफ्ते में राहुल ने जो नियुक्तियां की हैं, वह संकेत है कि वे साल के अंत में होने वाले सांगठनिक चुनाव से पहले अपनी टीम खड़ी कर लेना चाहते हैं. इस योजना में काम न करने वाले पुराने चेहरों की कोई जगह नहीं है. विडंबना यह है कि 2016 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार के बाद जिस शख्स ने सबसे पहले संगठन में ''अहम सर्जरी" की मांग की थी, वही इस सर्जरी का शिकार बन गया है. कर्नाटक और गोवा के प्रभारी रहे पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह को दोनों राज्यों से मुक्त कर दिया गया है. कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार है जहां अगले साल चुनाव होने हैं जबकि गोवा में पार्टी मार्च में 40 में से 17 सीटें लाकर भी सरकार बनाने से चूक गई.
गोवा के लिए भले ही दिग्विजय को दंड दिया जाना बनता था लेकिन कर्नाटक से उन्हें हटाए जाने को आश्चर्यजनक फैसला माना जा रहा है, खासकर इसलिए भी क्योंकि पिछले महीने हुए दोनों उपचुनावों में वहां पार्टी की जीत हुई है. राहुल के करीबी सूत्र बताते हैं कि दिग्विजय की बलि इसलिए दी गई ताकि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस एकजुट होकर भाजपा को टक्कर दे सके, जो बी.एस. येदियुरप्पा की वापसी से उत्साहित है. धड़ेबाजी से जूझ रही कर्नाटक कांग्रेस में माना जा रहा था कि दिग्विजय मुख्यमंत्री सिद्धरामैया के साथ हैं. भ्रष्टाचार और खराब प्रदर्शन के आरोपों से पहले ही घिरे सिद्धरामैया ने पिछले साल कैबिनेट में फेरबदल करके 14 मंत्रियों को हटाया और 13 नए मंत्रियों को जो रखा, वह कुप्रबंधन और खराब नियोजन का उदाहरण था. दिग्विजय ने इस कदम को अपना समर्थन दिया था, लिहाजा पार्टी के अंदरखाने होने वाली शिकायतें खुले में आ गईं. राहुल के करीबी एक सचिव बताते हैं, ''उनके खिलाफ कई शिकायतें आई हैं. असम में भी उन्होंने यही काम किया था जहां हेमंत बिस्वा सरमा को उन्होंने मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के खिलाफ खड़ा कर दिया था."
कर्नाटक में पार्टी संगठन को दुरुस्त करने का काम अब 54 साल के केरल से सांसद के.सी. वेणुगोपाल को दिया गया है जिन्हें अक्सर संसद में राहुल की बगल में बैठा देखा जा सकता है. पार्टी के चार सचिवों—तमिलनाडु से पूर्व सांसद मणिक्कम टैगोर, केरल से पूर्व विधायक पी.सी. विष्णुनाद, तेलंगाना के पूर्व सांसद मधु याश्की गौड़ और आंध्र प्रदेश के पूर्व मंत्री साके सैलजानाथ—को राहुल ने खुद चुना है जो उनकी मदद करेंगे. गोवा में दिग्विजय का प्रभार अब तमिलनाडु के पूर्व विधायक ए. चेल्ला कुमार को सौंपा गया है, जो एआइसीसी के सचिव के बतौर गोवा डेस्क से 2013 से ही जुड़े हुए थे. उन्हें भले ही गोवा का प्रभारी बना दिया गया हो लेकिन महासचिव नहीं बनाया गया है. महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख के बेटे अमित देशमुख उनके मातहत होंगे. गुजरात में गहलोत के चार सचिव होंगे—युवा कांग्रेस के पूर्व प्रमुख और महाराष्ट्र से लोकसभा सांसद राजीव साटव, महाराष्ट्र से पूर्व विधायक हर्षवर्धन सपकाल, महाराष्ट्र से विधायक वर्षा गायकवाड़ और मध्य प्रदेश से विधायक जीतू पटवारी. ये सभी पहले राहुल के साथ काम कर चुके हैं और अब गहलोत को सहयोग देंगे.
कांग्रेस के संचार प्रमुख रणदीप ङ्क्षसह सुरजेवाला कहते हैं, ''वे कांग्रेस के लिए नई रणनीति तय कर रहे हैं. आज 30 और 40 वर्ष उम्र के लपेटे में चल रहे कांग्रेसियों को उनके राज्यों से इतर नेतृत्व की भूमिका दी जा रही है ताकि वे पार्टी की नीतियों और कार्यक्रमों को दोबारा गढ़ सकें. उन्हें जमीनी स्तर पर और कम उम्र के कांग्रेसी नेताओं को खोजने को कहा गया है ताकि वे ब्लॉक, जिले और राज्य स्तर की जिम्मेदारियां संभाल सकें.
राहुल के एक करीबी मानते हैं कि हालिया नियुक्तियां केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में नई पीढ़ी के नेताओं के उभार का संकेत दे रही हैं. अगले कुछ हफ्तों में उन राज्यों में कुछ और बदलाव होंगे जहां चुनाव होने को हैं. इनमें मध्य प्रदेश भी शामिल हैं जहां पार्टी दो संभावित मुख्यमंत्रियों कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच बंटी हुई है. पार्टी ने इस संबंध में राज्य के प्रभारी महासचिव मोहन प्रकाश को बदलने का मन बनाया है जो महाराष्ट्र और मुंबई का काम भी देखते हैं.
अगर ऐसा हुआ, तो कभी राहुल के आश्वस्त तीनमूर्ति रहे प्रकाश, दिग्विजय और मधुसूदन मिस्त्री की विदाई तय है. मिस्त्री को पिछले साल उत्तर प्रदेश के प्रभारी पद से हटा दिया गया था और अब वे पार्टी की केंद्रीय चुनाव इकाई के सदस्य हैं. पार्टी संविधान के मुताबिक, चुनाव इकाई का कोई सदस्य पार्टी में कोई पद नहीं ले सकता.
इसके बावजूद एक महासचिव ऐसे भी हैं जिनका रिकॉर्ड बेहद खराब रहने के बावजूद उन्हें अब तक राहुल गांधी का समर्थन हासिल है. वे हैं पूर्व केंद्रीय मंत्री सी.पी. जोशी, जो असम, बिहार और बंगाल समेत 11 राज्यों के प्रभारी हैं और जिनकी नाक के नीचे से तीन राज्यों में पार्टी ने सत्ता से खुद को बाहर जाते हुए देखा है. उनके बचे रहने के पीछे दो कारण गिनाए जा रहे हैं—बिहार में महागठबंधन बनाने में उनकी भूमिका और असम के प्रभारी रहते हुए राहुल गांधी को दी उनकी पहली सलाह कि हेमंत बिस्वा सरमा को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जाए. राहुल ने इस सलाह की उपेक्षा कर दी थी और राज्य में पार्टी हार गई थी. पूर्वोत्तर के अन्य राज्य भी जोशी की निगरानी में तब आ गए जब इनके प्रभारी रहे वी. नारायणस्वामी को पुदुच्चेरि का मुख्यमंत्री पद ग्रहण करना पड़ा.
कांग्रेस के कई पुराने चेहरे हालांकि इन बदलावों को बहुत अहमियत नहीं दे रहे. उनका कहना है कि पहले भी ऐसे बदलाव होते रहे हैं. सोनिया ने जब 1998 में पार्टी की कमान संभाली थी, तब 1999 में हरियाणा में हुई हार के बाद पार्टी में राज्य के प्रभारी रहे प्रणब मुखर्जी को उनके पद से हटा दिया गया था. उस वक्त कांग्रेस अध्यक्ष के इस फैसले को कड़ा कदम माना गया था. इसी तरह गुलाम नबी आजाद को 2002 में यूपी के प्रभारी पद से हटा दिया गया था हालांकि 1999 में उनकी निगरानी में पार्टी ने कर्नाटक और महाराष्ट्र में, 2001 में केरल और पुदुच्चेरि में और 2002 में उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में जीत हासिल की थी. आजाद को 2016 में यूपी के लिए रणनीति बनाने के लिए वापस बुला लिया गया.
पा र्टी के एक महासचिव कहते हैं, ''केवल प्रभारी महासचिवों को बदलना समाधान नहीं है. आपको महासचिवों की भूमिका भी परिभाषित करनी होगी. उन्हें पता रहे कि वास्तव में उन्हें करना क्या है." लोकसभा चुनाव में हुई हार के बाद राहुल गांधी ने 2014 में चार महीने से ज्यादा समय तक पार्टी कार्यकर्ताओं से चली बातचीत में इन्हीं मुद्दों पर बात की थी. संवाद के बाद कांग्रेसियों के सुझावों के आधार पर राहुल ने पार्टी की बहाली का एक खाका तैयार किया था और उसे पार्टी अध्यक्ष को सौंप कर दो महीने की विपश्यना पर चले गए थे. यह खाका अब भी कागजों में ही है.
कांग्रेस कार्यकारिणी के एक सदस्य कहते हैं कि प्रभारी महासचिव की भूमिका राज्य में जमीनी स्थिति को रिपोर्ट करने और उसके समाधान सुझाने तक ही सीमित रहनी चाहिए. वे कहते हैं, ''इसकी बजाए वे धड़ेबाजी में किसी एक पक्ष के साथ हो लेते हैं जिससे स्थिति और बिगड़ जाती है. वे चुनाव नहीं जीतते बल्कि यह काम लोकप्रिय चेहरे के जिम्मे होता है, जैसा पंजाब में अमरिंदर सिंह ने किया." कर्नाटक, मिजोरम और राजस्थान को छोड़ दें तो कांग्रेस को अब भी मुख्यमंत्री का प्रत्याशी तय करना है या किसी एक व्यक्ति को चुनाव प्रचार की कमान सौंपनी है.
कर्नाटक में सिद्धरामैया के खिलाफ मौजूद असंतोष के बावजूद गुंडलूपेट और नंजानगुड के उपचुनावों में हुई जीत से उनका पारा ऊपर गया है. राजस्थान में 39 साल के सचिन पायलट को राहुल गांधी का वरदहस्त प्राप्त है जबकि गहलोत का धड़ा उन्हें कमजोर करने में जुटा हुआ है. हिमाचल में कांग्रेस उपाध्यक्ष को अब भी मुख्यमंत्री के चेहरे की तलाश है जिससे वे वीरभद्र सिंह को बदल सकें, जो भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे हैं और जिनकी सेहत भी खराब चल रही है. बहुत संभव है कि यहां की प्रभारी महासचिव अंबिका सोनी को बदल दिया जाए.
गुजरात में भले ही नया प्रभारी महासचिव आ गया हो लेकिन राज्य में कांग्रेस के अध्यक्ष भरतसिंह सोलंकी शायद प्रचार पैनल के प्रमुख नहीं होंगे. छत्तीसगढ़ में भी मुख्यमंत्री के चेहरे पर कोई फैसला नहीं हो सका है लेकिन चुनाव प्रचार मुख्य रूप से आदिवासी आरक्षित सीटों पर केंद्रित रहेगा ताकि पूर्व कांग्रेसी अजीत जोगी की छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस से मिल रही चुनौती का जवाब दिया जा सके.
गुजरात, हिमाचल, छत्तीसगढ़, राजस्थान, कर्नाटक और मध्य प्रदेश में पार्टी की योजना 294 आरक्षित सीटों को निशाना बनाने की है जिनमें 143 एससी और 151 एसटी के लिए आरक्षित हैं. यह यूपी में राहुल के दलित अभियान का ही विस्तार है. भले ही वहां पार्टी को एक भी आरक्षित सीट पर कोई लाभ न मिला हो, लेकिन उन सीटों पर बढ़ी वोट दर ने पार्टी को यही रणनीति पहले राजस्थान और फिर कर्नाटक में आजमाने को प्रेरित किया है.
असली जंग हालांकि मध्य प्रदेश की है जहां पार्टी को कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया में से किसी एक को चुनना है. एक को चुनकर दूसरे को साथ बनाए रखना ही राहुल के नेतृत्व का असल इम्तिहान होगा. राजनीति में एक अच्छा कदम नहीं, बल्कि अच्छे कदमों की निरंतरता काम आती है.