
पहली खबर यह है कि लालू प्रसाद यादव पर चल रहे चारा घोटाले के एक मामले में सजा गुरुवार को सुनाई जाएगी. पहले यह बुधवार को सुनाया जाना था. दूसरी खबर ये कि सीबीआई की एक विशेष अदालत ने बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव और राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के तीन अन्य नेताओं के खिलाफ अवमानना का नोटिस जारी किया है.
अदालत ने अवमानना का यह नोटिस चार लोगों पर चारा घोटाले में दोषी राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद के संदर्भ में उनके बयान के लिए जारी किया है. इऩ तीन नेताओं में राजद के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह, राजद प्रवक्ता मनोज झा और कांग्रेस नेता मनीष तिवारी हैं. असल में 23 दिसंबर को चारा घोटाले में लालू प्रसाद को दोषी ठहराया गया तब राजद नेताओं ने बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र को बरी किए जाने पर सवाल उठाए थे. उन्होंने कहा था कि मिश्र जाति से ब्राह्मण हैं तो उन्हें बरी कर दिया गया और लालू पिछड़ी जाति से ताल्लुक रखते हैं तो उन्हें दोषी ठहराया गया.
इस नोटिस के जवाब में इन सभी को 23 जनवरी को अदालत में पेश होना होगा.
इसका मतलब है कि राजद एक गहरे संकट में फंस चुकी है. लालू यादव उस वक्त जेल में हैं जब पार्टी को उनकी सबसे ज्यादा जरूरत थी. लालू प्रसाद जितने दिन जेल में रहेंगे, पार्टी के लिए चुनावी दुश्वारियां उतनी ही बढ़ती जाएंगी.
लेकिन अब एक यक्ष प्रश्न और खड़ा है कि आखिर लालू प्रसाद की गैरमौजूदगी में पार्टी का खेवनहार कौन बनेगा? अब राजद के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने मान लिया है कि तेजस्वी यादव ही राजद अध्यक्ष के उत्तराधिकारी होंगे. यह ठीक है कि अपनी संतुलित और परिपक्व राजनीति के लिए तेजस्वी को थोड़ा बहुत सम्मान हासिल है. लेकिन यह भी तय है कि अभी पिता के सांचे में उन्हें फिट होने में वक्त लगेगा. दूसरी तरफ उनके बड़े भाई तेजप्रताप ज्यादा उग्र और टकराव वाला है.
ऐसे में अगर रघुवंश प्रसाद सिंह ने यह कहा कि नियम से और कानूनी तौर पर पिता के बाद बेटे का हक होता है और तेजस्वी लालू जी के बेटे हैं. ऐसी स्थिति में सभी लोग उन्हें उत्तराधिकारी मानते हैं. साथ ही, राजद के कई वरिष्ठ नेताओं जैसे जगदानंद सिंह, अब्दुल बारी सिद्दीकी, रामचंद्र पूर्वे, शिवानंद तिवारी के अलावा कई पूर्व मंत्रियों एवं विधायकों को रघुवंश की बात पर एतराज हो सकता है क्योंकि तेजस्वी यादव पर भी कई जांच एजेंसियों के आरोप हैं. ऐसी स्थिति में तेजस्वी क़ानूनी पचड़े में पड़ते हैं और जेल जाते हैं तो क्या राजद तेजस्वी को स्वीकार करेगी?
बहरहाल, बात पहले राजद में तेजस्वी की अगुआई पर मुहर लगाने की. वंशवाद भारत में कोई नई बात नहीं है. बात राजद में वंशवाद की भी नहीं है, क्योंकि लालू जब जेल गए थे तो किसी ताकतवर नेता को कुरसी सौंपने की बजाय पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाकर गए थे. लोगों को अच्छा नहीं लगा था क्योंकि तब यह माना जाता था कि लालू सामाजिक न्याय के पुरोधा हैं और उनका पार्टी समाजवादी सिद्धांतों को आगे बढ़ाने की दिशा में काम कर रही है.
भारत में वंशवाद के वर्चस्व पर लेख पैट्रिक फ्रेंच ने काम किया है, उनका तीन साल पहले का अध्ययन बताता है कि भारत में लोकसभा में 30 साल से कम उम्र के हर सांसद का राजनीतिक खानदान से रिश्ता है. दुनिया में ऐसी घटना कहीं और होती तो हंगामा हो जाता, लेकिन हम भारतीयों ने इसे मंजूर कर लिया है. पैट्रिक फ्रेंच ने लिखा है, अगर यह रूझान जारी रहा तो भारतीय संसद में सिर्फ खानदानी राजनीतिज्ञ ही बचे रह जाएंगे, और देश पर खानदानों का ही पूरी तरह शासन होगा.
इसका अर्थ क्या यह नहीं हुआ कि फ्रेंच भारत में नए रजवाड़ों के उदय का ऐलान कर रहे हैं!
रघुवंश प्रसाद के बयान को उसी संदर्भों में लीजिए तो तस्वीर ज्यादा बदतर नजर आती है जहां उनके जैसा तपा-तपाया नेता युवराज की विरासत पर मुहर लगा रहा है. वोटर भी अपने धर्म, जाति और उपनाम के आधार पर वोट कर रहा है. (अब यह चौंकाने वाली बात तो कत्तई न रही)
बहरहाल, स्थापित सियासी रुझानों के खिलाफ खड़े लालू का खानदान पहले भले ही थोपा लगता हो, लेकिन पार्टी के सीनियर नेता जब इस ओढ़ने के लिए तैयार हों, तो इससे स्वस्थ संकेत नहीं मिलते.
तेजस्वी का नेतृत्व भले ही बड़े नेताओं को मंजूर हो, लेकिन उनकी राह आसान नहीं रहने वाली. लालू के सलाखों के पीछे होने से सिर्फ तेजस्वी यादव ही नहीं, तेजप्रताप को भी पार्टी के 80 विधायकों से निबटना होगा. सियासत में यह उम्मीद रखना बेमानी है कि जद-यू और भाजपा की गठजोड़ उन्हें फोड़ने की कोई कोशिश नहीं करेगी. ऐसे में पार्टी में दलबदल और फूट का खतरा रहेगा.
वैसे लालू ने जब भी जेल यात्रा की है, वह उनके करियर में तेजी लाने वाला ही साबित हुआ है, जैसा कि आपातकाल के बाद हुआ था और तब उन्होंने पहला लोकसभा चुनाव जीता था. लेकिन, सन सतहत्तर से आज की तारीख में चालीस साल का फर्क है, कहानी थोड़ी अलहदा हो गई है.
(मंजीत ठाकुर, इंडिया टुडे में विशेष संवाददाता हैं)