
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए बिगुल फूंक दिया गया है. राज्य में सात चरणों में वोटिंग होगी और 11 मार्च को चुनाव के नतीजे घोषित होंगे. फिलहाल देश के इस सबसे बड़े सूबे के राजनीतिक हालात को देखें तो मुकाबला त्रिकोणीय ज्यादा लग रहा है जिसमें समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी पिछले विधानसभा चुनावों का इतिहास दोहराने के लिए जी-जान लगा रहे हैं तो भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा चुनाव-2014 में मिली ऐतिहासिक सफलता का आसरा है जिसके दम पर वो राज्य की सत्ता से अपना वनवास खत्म करने की कोशिश कर रही है.
सपा के सामने अंतर्कलह से उबरने की चुनौती
समाजवादी पार्टी ऐन चुनाव के मौके पर दो फाड़ हो गई है. एक ओर उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और प्रदेशाध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव हैं तो दूसरी ओर हैं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव जिन्होंने विशेष अधिवेशन बुलाकर अपने पिता और चाचा को उनके पद से हटा दिया है. फिलहाल दोनों खेमे पार्टी के नाम और उसके चुनाव चिह्न पर कब्जे की लड़ाई लड़ रहे हैं और जब तक इस झगड़े का फैसला नहीं होता तब तक उसकी चुनावी तैयारियां लटकी रहेंगी. बड़ा सवाल यही है कि क्या पार्टी पिछले चुनाव का अपना प्रदर्शन दोहरा पाएगी?
बीजेपी को सीएम कैंडिडेट की तलाश
भारतीय जनता पार्टी यूपी की तैयारियों में जोर-शोर से जुटी है और अब तक पार्टी से जो संकेत मिले हैं उसके मुताबिक इन चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही उसके स्टार प्रचारक होंगे. पार्टी ने अपने कैंडिडेट की लिस्ट भी अभी जारी नहीं की है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की रैलियों से उसने अपने पक्ष में माहौल बनाना शुरू कर दिया है. पिछले दो विधानसभा चुनावों में उसका प्रदर्शन बहुत खराब रहा था लेकिन लोकसभा चुनाव में 80 में से 73 सीटें जीतकर पार्टी ने इतिहास रच दिया था और उसका जोर अब उन्हीं नतीजों को विधानसभा चुनाव में दोहराने पर है लेकिन पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी ये है कि उसके पास कोई ऐसा चेहरा नहीं है जिसे वो अखिलेश यादव और मायावती के मुकाबले मैदान में उतार सके. हाल ही में हुए कुछ ओपीनियन पोल में भी बीजेपी के संभावित सीएम कैंडिडेट को जनता ने तीसरी या चौथी पसंद बताया था, जो पार्टी के लिए झटका है.
बसपा को सोशल इंजीनियरिंग का सहारा
बहुजन समाज पार्टी राज्य का मुख्य विपक्षी दल है. 2007 में बहन मायावती ने अपने दम पर बीएसपी की सरकार बनाई और पांच साल तक सफलतापूर्वक चलाई भी. राज्य विधानसभा में इस समय पार्टी के पास भले ही 80 सीटें हों लेकिन 2007 के चुनाव में पार्टी ने 403 सीट वाली विधानसभा में 206 सीटें जीती थीं. मायावती के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने दलित और मुस्लिम वोटों को एकजुट रखना है. 2012 के चुनाव में बहनजी की हार की बड़ी वजह मुस्लिम वोटों का उनसे खिसककर मुलायम के पाले में चले जाना बताया गया था. लोकसभा चुनाव में भी दलित वोट तो माया के साथ रहा लेकिन मुस्लिम वोटों के बंटवारे से उन्हें एक भी सीट राज्य में नहीं मिली. मायावती लगातार मुस्लिमों को संकेत दे रही हैं कि सपा अंतर्कलह से जूझ रही है इसलिए वही सांप्रदायिक शक्तियों से मुकाबला करने मे सक्षम हैं. सवाल ये है कि क्या मुस्लिम उनकी बात मानेंगे?
गठबंधन के भरोसे बैठी है कांग्रेस
किसी समय देश और प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी रही कांग्रेस यूपी में दुर्दशा की शिकार है. पिछले कई विधानसभा चुनावों से वोटर उसे कोई भाव नहीं दे रहे हैं. 2007 में उसे 22 तो 2012 में महज 28 सीटें मिली थीं. इस बार कांग्रेस पहली पार्टी थी जिसने जोरशोर से इसकी तैयारियां शुरू कीं. रणनीतिकार प्रशांत किशोर को यूपी में जीत दिलाने का जिम्मा दिया गया. 15 साल तक दिल्ली पर राज करने वाली शीला दीक्षित को पूरे गाजे-बाजे के साथ सीएम कैंडीडेट घोषित किया गया. इससे पहले संगठन में फेरबदल कर रीता बहुगुणा जोशी की छुट्टी की गई और राजबब्बर जैसे चर्चित चेहरे को प्रदेश में कांग्रेस का भविष्य सुधारने का जिम्मा दिया गया. राजाराम पाल, राजेश मिश्रा, भगवती प्रसाद और इमरान मसूद को उपाध्यक्ष बनाकर क्रमशः ओबीसी, ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम वोटरों को साधने की कोशिश की. लेकिन पार्टी को जल्द ही जमीनी हकीकत का अहसास हो गया और अब वो समाजवादी पार्टी से गठबंधन की राह देख रही है. पार्टी की कोशिश किसी तरह गठबंधन कर अपनी सीटें बढ़ाने और बिहार की तरह सत्ता में भागीदारी करने तक सिमट गई है.