
संकट की इस घड़ी में जब उड़ी में हमारे 19 जवानों की जान लेकर पाकिस्तान के दहशतगर्दों ने भारत की सहनशीलता की परीक्षा लेने की कोशिश की है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह फैसला लेने में जुटे हैं कि पाकिस्तान को ''सबक" सिखाने का सबसे माकूल तरीका क्या हो, तो वे सदियों पुराने ज्ञान का सहारा ले सकते हैं. उनकी पार्टी की मूल विचारधारा हिंदुत्व के लिहाज से भी यह उपयुक्त रहेगा.
करीब ढाई हजार साल पहले प्राचीन भारत के आदि रणनीतिकार कौटिल्य ने अपने ''अर्थशास्त्र" में विस्तार से बताया था कि दुश्मन देशों से कैसे निपटा जाए. अपने पूर्ववर्ती सुन त्सू की ही तरह कौटिल्य भी जल्दीबाजी में जंग छेडऩे के हिमायती नहीं थे, बल्कि कदम बढ़ाने से पहले सभी विकल्पों को सावधानी से तौलने की बात करते थे. कौटिल्य ने कहा था, ''अमन और जंग में अगर बराबर की दूरी है तो अमन का रास्ता चुनना चाहिए."
कौटिल्य मानते थे कि जंग दरअसल राजनीति को ही दूसरे तरीके से जारी रखने का साधन है और वे इसे आखिरी विकल्प मानते थे. सदियों बाद प्रशिया के जनरल कार्ल वॉन क्लॉज़वित्ज ने भी यही बात कही. कौटिल्य के अनुसार अकेले सैन्यबल ही जीत की कुंजी नहीं है बल्कि भेदक न्याय-निर्णय, समग्र ज्ञान और राजनीति पर गहरी पकड़ भी इसके लिए जरूरी है.
मोदी के समक्ष अपने पूर्ववर्तियों की ही तरह एक फैसले का क्षण आ खड़ा हुआ है—1999 में करगिल की घुसपैठ और 2001 में संसद पर हमले के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी और 2008 में मुंबई हमले के दौरान मनमोहन सिंह भी ऐसे ही हालात से जूझ रहे थे. ऐसे में मोदी को इतिहास से सबक लेनी चाहिए और उसके विलक्षण सुझावों को ध्यान से पढऩा चाहिए.
आने वाले हफ्तों और महीनों में मोदी इस देश को जिस दिशा में लेकर जाएंगे, वह न सिर्फ यह तय करेगा कि प्रधानमंत्री एक ऐसे राजनेता के तौर पर उभर पाते हैं जैसा वे खुद को देखना चाहते हैं, बल्कि यह 1.4 अरब भारतीयों पर भी असर डालेगा.
प्रतिशोध का मंत्र
एक उदासीन तर्क यह दिया जा सकता है कि किसी राष्ट्र के समक्ष पैदा होने वाले खतरे के लिहाज से उड़ी 2016 करगिल, संसद पर हमले या मुंबई हमले जैसा नहीं है. करगिल में भारत की भौगोलिक अखंडता को सीधी चुनौती दी गई थी. संसद पर हमले में देश की राजनैतिक सत्ता पर निशाना साधा गया था जबकि मुंबई पर किए गए हमले ने देश की वाणिज्यिक राजधानी को घुटनों पर ला दिया था.
उड़ी में शहीद हुए 19 फौजी हालिया दिनों में किसी एक हमले में मारे गए फौजियों के लिहाज से सबसे ज्यादा संख्या है लेकिन भारत के सबसे संवेदनशील प्रांत की रक्षा करते वक्त ऐसे हादसे होना अनपेक्षित नहीं है. दूसरे राज्यों में माओवादियों के हमलों में कहीं ज्यादा सुरक्षाकर्मी मारे जा चुके हैं. मसलन, 2010 में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में वामपंथी चरमपंथियों के घात लगाकर किए गए हमले में 75 पुलिसकर्मी मारे गए थे.
फिर सवाल उठता है कि खून के बदले खून और बदले की यह चीख-पुकार क्यों? देश भर को जंग की सनक में क्यों धकेला जा रहा है? इसकी आंशिक वजह तो सत्ताधारी दल के कुछ नेताओं के बड़बोले बयान हैं. बीजेपी के महासचिव राम माधव ने ट्वीट किया, ''तथाकथित रणनीतिक संयम के दिन अब लद गए... एक दांत के बदले पूरा जबड़ा चाहिए." प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा, ''जो कोई भारत के आत्मविश्वास की परीक्षा लेगा, उसे माकूल जवाब दिया जाएगा. जवाब न देना कायरता होगी."
विपक्षी दल, खासकर कांग्रेस भी इसमें कूद पड़ी और उसने प्रधानमंत्री को पाकिस्तान पर उनके तब दिए कड़े बयानों की याद दिलाई जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे. कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी ने बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह को उनका वह बयान याद दिलाया जिसमें उन्होंने कहा था कि ''मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो एक चूहा को भी एलओसी को पार नहीं करने दिया जाएगा."
उड़ी में हुए हमले पर उपजे आक्रोश की वजह जायज है. एक आला सरकारी अधिकारी ने इशारा किया कि उड़ी हमले को अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए. जुलाई के आरंभ में कश्मीरी आतंकी बुरहान वानी के सुरक्षाबलों के हाथों मारे जाने के बाद से आतंकवादी कम से कम 19 बार सेना के शिविरों पर हमला करने की कोशिश कर चुके हैं, जिनमें अधिकतर कोशिशों को न्यूनतम नुक्सान के साथ नाकाम कर दिया गया.
इस दौरान कश्मीर घाटी में हालिया दिनों में सबसे ज्यादा असंतोष देखने को मिला जिसके चलते अब तक 80 लोगों की जान जा चुकी है. वानी की मौत के बाद लगे कर्फ्यू को 80 दिन से ज्यादा हो चुका है. केंद्र और राज्य सरकार घाटी में हालात बिगडऩे से रोकने में जुटी हैं, वहीं इस बात के सुबूत हैं कि पाकिस्तान वहां अपने आदमी, सामान और पैसा झोंक कर आग को भड़का रहा है.
मोदी और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के बीच रिश्ते खराब होने से हालात और नाजुक हुए हैं. दोनों नेताओं ने रुकी हुई बातचीत प्रक्रिया को बहाल करने का फैसला लिया था और थोड़ी खुशफहमी पैदा हुई थी. यहां तक कि मोदी ने अचानक लाहौर में उतरकर शरीफ के पारिवारिक विवाह समारोह में भी शिरकत की, लेकिन इस जनवरी में पठानकोट एयरबेस पर हुए हमले के बाद से रिश्ता लगातार लुढ़कता चला गया. हाल के महीनों में दोनों नेताओं के बीच का रिश्ता सबसे खराब दौर में पहुंच चुका है. शरीफ ने कश्मीर के मसले पर भारत को खुलेआम शर्मिंदा किया है और मामले का अंतरराष्ट्रीयकरण करने के लिए उन्होंने दूसरी ताकतों को भी इसमें शामिल करने की कोशिश की है.
इस खतरनाक खेल को खेलने के पीछे पाकिस्तानी नेताओं के पास अपने कारण मौजूद हैं. पनामा पेपर्स के खुलासे के बाद नवाज शरीफ पर गद्दी छोडऩे का दबाव था और अपनी साख बहाल करने के लिए उन्हें इससे ध्यान हटाने की जरूरत थी. कश्मीर यहीं उनके काम आया है. पाकिस्तानी के फौजी मुखिया राहील शरीफ अपने रसूख और घरेलू स्तर पर लोकप्रियता के मामले में नवाज से काफी आगे निकल चुके हैं. उन्हें नवंबर में रिटायर होना है लेकिन वे शायद सेवा विस्तार की उम्मीद में हैं. स्वतंत्रता दिवस के अपने संबोधन में मोदी ने जब बलूचिस्तान और गिलगित-बल्तिस्तान का जिक्र करके सियासी पारा चढ़ा दिया, तो इसके जवाब में पाकिस्तानी फौज ने घुसपैठ की कोशिशों में तेजी ला दी और फिदायीन हमलों को समर्थन दे दिया. पिछले एक महीने के घटनाक्रम से लेकर उड़ी में हुए हमले को मोदी के बयान के आलोक में ही देखा जा रहा है. दोनों देश अपने विकल्पों को तौलने में जुटे हैं जिसमें एक जंग भी है. ऐसे में इनके बीच समझौते की गुंजाइश संकरी होती जा रही है.
हाइब्रिड जंग
पाकिस्तान को घुटनों पर लाने के लिए भारत के पास विकल्पों की भरमार है, जिनमें कूटनीतिक से लेकर आर्थिक और सैन्यबल सब कुछ शामिल है, चाहे प्रच्छन्न हो या खुला. कश्मीर में अपनी सेवाएं दे चुके अवकाश प्राप्त लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन कहते हैं, ''नाम लेना और शर्मिंदा करना अब कारगर नहीं रहा. हम पाकिस्तान के छेड़े हाइब्रिड वारफेयर को झेल रहे हैं. हमारी प्रतिक्रिया कूटनीतिक और सैन्य, दोनों ही होनी चाहिए लेकिन हमें हर विकल्प को तौल लेना चाहिए. पाकिस्तान के जाल में फंसना नहीं चाहिए."
इस दिशा में पहली कोशिश यह की गई कि दुनिया भर का ध्यान कश्मीर के संकट की ओर खींचने के लिए पाकिस्तान की कूटनीतिक चाल को नाकाम किया गया. भारत ने इस दिशा में काफी तेजी दिखाई. विदेश सचिव एस. जयशंकर और विदेश मंत्रालय के अफसरों ने अमेरिका, रूस, फ्रांस, जर्मनी, जापान और ब्रिटेन जैसी अहम ताकतों से संपर्क साधा और उड़ी हमले पर पाकिस्तान के खिलाफ कठोर प्रतिक्रिया उनसे दिलवाने में सफल रहे.
संयुक्त राष्ट्र में नवाज शरीफ ने कश्मीर का रोना रोते हुए तीन पत्र लिखे लेकिन न तो महासचिव और न ही सुरक्षा परिषद ने उसे संज्ञान में लिया. साफ था कि दुनिया अब पाकिस्तान और कश्मीर में चली जा रही उसकी चाल से थक चुकी है. कूटनीतिक जंग का पहला चरण हम जीत चुके थे, बावजूद इसके भारत को अभी पाकिस्तान के हठ से निपटना बाकी था. जैसा कि एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ''कूटनीतिक चुनौती समाप्त हो चुकी, सिर्फ आतंकवाद-विरोधी चुनौती शेष है—उससे अब भी निपटा जाना बाकी है." इस मसले पर अंतरराष्ट्रीय दबाव उतना नहीं बन सका है और भारत को यह साफ है कि उसे अपनी लड़ाई खुद ही लडऩी है.
जंग के अलावा आम तौर से किसी देश के विकल्पों में आर्थिक प्रतिबंध सबसे ऊपर आते हैं लेकिन पाकिस्तान में वे शायद कारगर न हो पाएं. पिछली बार भारत ने 2001 में संसद पर हमले के बाद जमीनी और वायु मार्ग से व्यापार को रोक दिया था.
उन प्रतिबंधों के बाद दोनों देशों के बीच व्यापार तो बढ़ा है लेकिन असामान्य तरीकों से. प्रत्यक्ष जमीनी व्यापार 2013 में 2.6 अरब डॉलर का था जो मोटे तौर पर भारत के पक्ष में था क्योंकि 2 अरब डॉलर इसमें भारत का निर्यात था. तीसरे देश के रास्ते, मसलन दुबई से अप्रत्यक्ष व्यापार में इजाफा हुआ है जो फिलहाल अनुमान के मुताबिक 4.71 अरब डॉलर का है. तीसरे देशों के व्यापार मार्ग के कारण ही औपचारिक आर्थिक प्रतिबंध कारगर नहीं होंगे. इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस (आइसीआरआइईआर) की निशा तनेजा कहती हैं, ''यह व्यापार दूसरे चैनलों और दुबई के रास्ते होने लगेगा जो एक मुक्त बंदरगाह है." इसीलिए मोदी और भारत के सामने कठोर विकल्प ही बचते हैं जिसमें सीमित स्तर पर एक युद्ध भी शामिल है.
लक्ष्य तय करें
सैन्य रणनीतिकार सही तर्क देते हैं कि जंग किसी लक्ष्य को पाने का साधन है, अपने आप में कोई साध्य नहीं. सेंटर फॉर एयर पावर स्टडीज के अवकाश प्राप्त एयर वाइस मार्शल कपिल काक कहते हैं, ''चुनावी मांग, गुस्से, भावनात्मक आघात या प्रतिशोध वगैरह की संतुष्टी का विकल्प युद्ध नहीं हो सकता. युद्ध राजनीति और रणनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति का आखिरी रास्ता होता है." भारत अगर पाकिस्तान के खिलाफ बल प्रयोग का निर्णय लेता है, तो उसका साफ उद्देश्य होना चाहिए कि आखिर इससे वह क्या हासिल करना चाहता है और इस बात का आकलन होना चाहिए कि वहां तक पहुंचने में बल प्रयोग क्या सर्वश्रेष्ठ रास्ता है.
वाजपेयी के सामने जब 1999 में करगिल संकट पैदा हुआ था, तब वे सरहद पार इस संघर्ष को खोलने और विस्तार करने के काफी दबाव में थे, ताकि भारत को दूसरी जगहों पर रणनीतिक लाभ मिल सके और इसका इस्तेमाल वह पाकिस्तान के कब्जे वाले इलाकों से उसे खाली कराने में कर सके. वाजपेयी ने जानबूझकर सैन्यबलों को एलओसी पार करने से रोका. इसके बजाए उन्होंने जमीनी और वायु सैन्य बल के इस्तेमाल से पाकिस्तानी टुकडिय़ों को भगाने पर जोर देने को कहा, ताकि एलओसी का सम्मान भी बना रहे.
इसी के समानांतर वाजपेयी ने अमेरिका से कहा कि पाकिस्तान को अगर वापस जाने के लिए नहीं कहा गया तो वे समग्र युद्ध छेडऩे को मजबूर हो जाएंगे. इस तरह उन्होंने पाकिस्तान के ऊपर अंतरराष्ट्रीय दबाव भी बनाया. इस बात की भी चिंता थी कि अगर पूरी तरह जंग छिड़ गई तो वह परमाणु जंग तक पहुंच जाएगी क्योंकि साल भर पहले ही दोनों देशों ने अपनी परमाणु क्षमता का मुजाहिरा किया था. दबाव काम आया. पाकिस्तान को शर्मिंदा होकर वापस जाना पड़ा.
संसद पर हमले के बाद वाजपेयी एक बार फिर जंग छेडऩे को सोच रहे थे. उन्होंने सरहद पर सेना की भारी तैनाती के आदेश दिए, उसे ऑपरेशन पराक्रम नाम दिया ताकि पाकिस्तान डर कर आतंकी हमले बंद कर दे. कालाचक में 2002 में सेना के बेस पर फिदायीन हमले में 17 नागरिकों समेत 31 लोग मारे गए थे, बावजूद इसके वाजपेयी ने हमले का आदेश नहीं दिया. इस दौरान अमेरिका ने जनरल परवेज मुशर्रफ पर दबाव बना दिया था कि वे आतंकियों को राजकीय समर्थन बंद करने संबंधी बयान दें. भारत ने आखिरकार अपनी सैन्य टुकडिय़ां पीछे खींच लीं, लेकिन ऐसा तभी किया जब मुशर्रफ एलओसी पर संघर्ष विराम के लिए तैयार हुए और उन्होंने आतंकी समूहों पर लगाम कसने के अपने वादे को मजबूती दी.
मनमोहन सिंह भी 2008 में मुंबई हमले के बाद इसी ऊहापोह में थे, जब भारत के इस अहम शहर को मुट्ठी भर सशस्त्र आतंकवादियों ने बंधक बना लिया था. मनमोहन के सामने कई विकल्प रखे गए थे, जिसमें जंग छेडऩा भी शामिल था लेकिन वे इससे बचते रहे. इसके बजाए उन्होंने पाकिस्तान पर कूटनीतिक दबाव बनाने का फैसला किया ताकि उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग किया जा सके. इसके बाद जब कभी एलओसी का उल्लंघन हुआ या आतंकी हमला हुआ, बगैर छाती पीटे भारतीय सेना को कहा गया कि वह बराबर मात्रा में हमला करके उसका जवाब दे.
मनमोहन सिंह सरकार के संयम की वजह बताते हुए तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन ने द हिंदू में लिखा, ''वह कायरता नहीं थी बल्कि परिपक्व निर्णय था, लागत प्रभावी विश्लेषण पर आधारित, जिसमें पाकिस्तानी ठिकानों पर खुले हमले के रूप में प्रत्यक्ष कार्रवाई करने से बचा गया. भारत जैसा एक परिपक्वराष्ट्र पाकिस्तान जैसे दुष्ट राष्ट्र की तरह बरताव करना गवारा नहीं कर सकता."
पाकिस्तान के बारे में मोदी को भी अपने उद्देश्यों को लेकर स्पष्ट होना चाहिए और एक ईमानदार आकलन करना चाहिए कि उसे कैसे हासिल किया जाए. इतने अहम हमलों की सूरत में भी जब भारत जंग में नहीं गया, तो वे भारत और दुनिया के सामने इसे कैसे सही ठहरा पाएंगे कि फौज के 19 जवानों की मौत हमले के लायक घटना थी?
किसी भी किस्म के सैन्य आक्रमण के उद्देश्यों को समझना बहुत अहम है. क्या भारत 1971 की ही तरह पाकिस्तान को तोड़कर मोदी के बलूचिस्तान वाले दांव को साकार करना चाहता है? क्या वह पीओके को वापस पाना चाहता है, जिसके बारे में उसका दावा है कि पाकिस्तान ने उस पर जबरन कब्जा कर लिया? क्या भारत आतंकी ठिकानों को ध्वस्त करना चाहता है और आतंकी सरगनाओं को मारना चाहता है? या फिर यह विशुद्ध बदले की कार्रवाई होगी जिसमें घरेलू आक्रोश को शांत करने के लिए उतनी ही संख्या में वह सीमा पार पाकिस्तानी सैनिकों को मार डालना चाहता है?
समझदारी भरा विकल्प
ऐसे भारी-भरकम विकल्पों के सामने होने पर कौटिल्य ने विवेकपूर्ण चयन करने को कहा था. उनका कहना था कि यह जरूरी है कि एक शासक और उसके सलाहकार अपने देश और दुश्मन की क्षमताओं की तटस्थ समीक्षा करें. कौटिल्य ने इस बात पर जोर दिया था कि ''हमलावर को अपनी और अपने दुश्मन की तुलनात्मक ताकत और कमजोरियों का पता होना चाहिए और आगे बढऩे के समय, उसके निहितार्थों, जानोमाल की हानि, लाभ और खतरों का सही अंदाजा लगाते हुए उसे पूरी ताकत के साथ आगे बढऩा चाहिए; वरना चुपचाप बैठे रहना चाहिए."
पाकिस्तान को तोडऩे और पीओके पर बलपूर्वक कब्जा जमाने का उद्देश्य परमाणु युद्ध तक जा सकता है. इसकी कीमत भारत के लिए बहुत ज्यादा होगी. पाकिस्तान ने पहले ही उन स्थितियों या खतरे के निशान का जिक्र कर दिया है जिन्हें अगर लांघा गया तो वह परमाणु हथियार चला देगा. इसमें पर्याप्त मात्रा में जमीन को गंवा देना, सैन्यबलों का समाप्त हो जाना या अक्षम कर देने वाला आर्थिक प्रतिबंध शामिल हैं.
पाकिस्तान ने हाल ही में अपने परमाणु जखीरे में रणनीतिक हथियार जोड़े हैं. इनकी रेंज कम है और इन्हें जंग के मैदान में तैनात किया जा सकता है. ऐसे किसी परमाणु संघर्ष में भारत विजेता बनकर उभरेगा लेकिन भारी संक्चया में लोगों की जान जाने के अलावा हमारे कई अहम शहर भी तबाह हो जाएंगे. भारत परमाणु युद्ध नहीं चाहता क्योंकि वह भारतीय उपमहाद्वीप को दशकों पीछे धकेल देगा.
क्या भारत पोशीदा तरीके से पाकिस्तान को तोड़ सकता है? वही तरीके जो पाकिस्तान आतंकियों को बढ़ावा देकर और उन्हें सरहद पार भेजकर अपनाता है? इस दिशा में मोदी ने 15 अगस्त को बलूचिस्तान का जिक्र करके संकेत अवश्य दिया था. उन्होंने पीओके में मानवाधिकार उल्लंघन की भी बात की थी. कहा जाता है कि जम्मू-कश्मीर के एक वरिष्ठ नेता ने मोदी से साफ कहा था, ''बलूचिस्तान में भारत के 100 लोग होंगे लेकिन कश्मीर में पाकिस्तान के 10,000 लोग हैं."
पोशीदा हमला करने की भारत की क्षमता अभी संदेह के घेरे में है. सत्तर के दशक के आरंभ में भारत ने तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान और अस्सी के दशक में श्रीलंका में उग्रवाद को बेशक भड़काया था. कई देशों के गुप्चतर विभागों के पास ऐसे प्रकोष्ठ होते हैं जो उग्र हरकतें करने वाले समूहों को पोषित करते हैं. मसलन, यह ज्ञात है कि आइएसआइ की ''एस" शाखा अफगानिस्तान में अफगान तालिबान और भारत में लश्कर और जैश जैसे आतंकी समूहों को पोषित करती है. ईरान के रेवॉल्यूशनरी गार्ड्स एक सशक्त अराजकीय ताकत हिज्बुल्ला को लेबनान में और यमन में हूसी जैसे शिया समूहों को प्रशिक्षण, हथियार और पैसे देते हैं.
भारत की रॉ में सत्तर से नब्बे के दशक के बीच ऐसी क्षमता हुआ करती थी और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तथा राजीव गांधी के निर्देशों पर वह ऐसे काम करता भी था. अस्सी और नब्बे के दशक में पंजाब में आतंकवाद को हवा देने वाली पाकिस्तानी गतिविधियों का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए एक ऑपरेशन चलाया गया था जिसका नाम था ''काउंटर इंटेलिजेंस टीम एक्स (सीआइटी-एक्स)".
पाकिस्तान की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाने के क्रम में 1997 मंत पूर्व प्रधानमंत्री आइ.के. गुजराल ने सीआइटी-एक्स को समाप्त कर दिया.
माना जाता है कि उसके बाद आए सभी प्रधानमंत्री ऐसे किसी विकल्प से मुकरते रहे हैं, लेकिन माना जाता है कि 2008 में मुंबई पर हुए हमले के बाद पोशीदा अभियानों समेत कई किस्म के विकल्पों पर विचार किया गया था. कार्नेगी एन्डाउमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस (सीईआइपी) के वाइस प्रेसिडेंट जॉर्ज परकोविच, जिन्होंने हाल ही में भारत-पाकिस्तान संबंधों पर नो वॉर, नो पीस नाम की एक किताब का सह-लेखन किया है, कहते हैं, ''मौजूदा हालात में पोशीदा कार्रवाई सबसे ज्यादा व्यावहारिक है और इसमें सबसे कम जोखिम है." नेताओं के लिए पोशीदा जंग के विकल्प को अपनाना इतना आसान नहीं है, न ही यह तुरंत नतीजे देता है. गुप्तचर अधिकारियों का कहना है कि अपने संपर्क सूत्र निर्मित करने तथा कर्मचारियों को भर्ती और प्रशिक्षित करने में बरसों लग जाते हैं.
भारत की एक पोशीदा योजना कथित रूप से लक्षित और निर्देशित प्रक्षेपास्त्रों का इस्तेमाल करने की है, जैसे कि मुरीदके में लश्कर के मुख्यालय पर ब्रह्मोस मिसाइल दाग कर उसके पूर्व मुखिया हाफिज सईद को निशाना बनाना. ऐसा अचूक हमला हालांकि जोखिम भरा है क्योंकि लश्कर के मुख्यालय के आसपास अस्पताल और स्कूल हैं इसलिए निर्दोष भी इसमें भारी संख्या में मारे जाएंगे. इसके बाद काफी तेजी से सैन्य तैनाती होगी और पाकिस्तान भी बदले में मिसाइल दागकर भारत के ठिकानों को निशाना बना सकता है. इससे आतंकी समूह भी लगातार आतंकी हमले छेड़कर बदला लेने की कोशिश करेंगे. सैन्य विशेषज्ञों का मानना है कि अक्सर अचूक हमले अपने लक्ष्य से कहीं ज्यादा खून-खराबे की वजह बनते हैं.
भारत के सुरक्षा प्रतिष्ठान ने 2009 में 26/11 हमले के जवाब में श्साइबर आतंक्य के विकल्प पर विचार किया था. इसमें साइबर जंग की एक विस्तृत योजना तैयार की गई जिसमें पाकिस्तान के ठिकानों को निशाने के बतौर चुना गया. नेशनल टेक्निकल रिसर्च आर्गेनाइजेशन (एनटीआरओ) के साइबर लड़ाकों ने पाकिस्तान के भीतर स्थित 2000 से ज्यादा वाणिज्यिक ठिकानों को हमले के लिए चुना. इनमें एयरलाइनें, बिजली और गैस के ग्रिड, शेयर बाजार और इंटरनेट सेवा प्रदाता शामिल थे. इन्हें निशाना बनाया जाना था ताकि सेवाएं बाधित हो सकें. इस प्रोजेक्ट में उन कंप्यूटर नेटवर्कों की कमजोरियों का भी आकलन किया गया जिन पर बदले की कार्रवाई हो सकती है. अपने किस्म का यह पहला गोपनीय कार्यक्रम अपनी शुरुआत के ग्यारहवें दिन ही वापस ले लिया गया. हालांकि इसके नियोजकों को इसकी कामयाबी पर पूरा भरोसा था. यह विकल्प आज भी हमारे सामने है और ऐसा करने के बाद उससे इनकार किया जाना भी मुमकिन है.
अनियंत्रण की रेखा
शायद सबसे ज्यादा संभव विकल्प नियंत्रण रेखा पर हमले का है, जिसके जवाब में उम्मीद है कि अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया नहीं होगी. कुल 700 किलोमीटर लंबी एलओसी पर नैतिक अधिकार की लड़ाई लगातार जारी रहती है जिसके इधर और उधर, दोनों देशों की फौजें एक-दूसरे को लगातार घूरते रहती हैं. पाकिस्तान के पास एक ऐसा लाभ है जो भारत को नहीं—उसके पास लश्कर और जैश जैसे आतंकी समूह हैं, जिसके चलते वह उड़ी हमले और 2013 में फौजियों का सिर काटे जाने जैसी आतंकी घटनाओं से सीधे इनकार कर देता है.
भारतीय फौज आम तौर से ऐसी हर घटना का जवाब जमीन पर बड़ी उदारता से देती है. अब भी नपे-तुले विकल्प मौजूद हैं—सरहद पार पैरा-कमांडो के छापे, मोर्टार और गोलाबारी, प्रत्यक्ष गोलीबारी के मोड में एल-70 विमानरोधी गन और आखिरी उपाय के रूप में भारी गोलाबारी. एक विकल्प जिस पर विचार किया जा रहा है, वह है पाकिस्तान में फॉरवर्ड डिफेंडेड लोकलिटीज या एफडीएल पर पोशीदा छापे की कार्रवाई, जहां सीमापार घुसपैठ के लिए तैयार आतंकी मौजूद होते हैं. शायद यह कार्रवाई हो चुकी है. 21 सितंबर को मिली अपुष्ट खबरों के मुताबिक, भारतीय सेना की 2 पैरा यूनिट ने नियंत्रण रेखा के पार कार्रवाई करके कम से कम ''20 आतंकियों को खत्म कर दिया." हालांकि रक्षा मंत्रालय ने इस खबर की पुष्टि नहीं की.
मोदी सरकार ऐसा हमला करके दो बातें साबित कर सकती है—पहला यह कि पाकिस्तान को अपने दुस्साहस की कीमत अदा करनी ही होगी और दूसरा, इससे घरेलू आक्रोश थोड़ा शांत होगा. यह बात अलग है कि खुराफात करने की पाकिस्तान की क्षमता पर इससे कोई निर्णायक लगाम नहीं लग सकेगी.
चीन की दखल
पाकिस्तान को उसके किए की सजा देने के लिए जब भारत अपने विकल्पों को तौल रहा है, ऐसे में उसके हिसाब-किताब में मंडराता एक विचारणीय विषय चीन है. खासकर तब जब बीजिंग अपने ''सदाबहार साथी" की पूरी तरह हिमायत करने में लगातार ज्यादा से ज्यादा अहम भूमिका अदा कर रहा है. चीन ने पाकिस्तान के भविष्य में आर्थिक तौर आज जितना भारी निवेश कर रखा है उतना पहले कभी नहीं किया था. यही वजह है कि बीजिंग हर कदम पर यह पक्का करता है कि उसके साथी मुल्क को उसका पूरा कूटनीतिक समर्थन मिले—इसका मतलब चाहे भारत के हितों को नुक्सान पहुंचाना ही क्यों न हो. अब उस ''तटस्थता" या निष्पक्षता को ताक पर रख दिया गया है जिस पर बीजिंग के सत्ताधारी भारत की चिंताओं पर मरहम लगाने के लिए जोर दिया करते थे.
विश्लेषकों का कहना है कि चीन किसी रोमानियत या रेवडिय़ों के बजाए सतर्कता से अपने असल हितों को ध्यान में रखकर बर्ताव करता है. सैन्य तौर पर दोनों देशों के बीच सेना से सेना के स्तर पर गहरे रिश्ते हैं, मगर इसका मतलब यह नहीं है कि चीन पाकिस्तान की जंग और लड़ाइयों में भी दखल देने वाला है. उसका इतिहास भी इस बात की गवाही देता है. चीनी अफसरान अक्सर 1971 का जिक्र करते हैं, जब अमेरिका उसे दखल देने के लिए जोश दिला रहा था, मगर बीजिंग ने इनकार कर दिया था. वे जोर देकर कहते हैं कि इस गैर-दखलअंदाजी का तार्किक आधार बदला नहीं है, और आज भी वह एक बुनियादी स्तंभ है जिस पर देश की समूची विदेश नीति टिकी है. इसलिए हो सकता है कि भारत के लिए दो मोर्चों पर लड़ाई या चीन के सैन्य हस्तक्षेप को लेकर, कम से कम फिलहाल कुछ समय तक, फिक्र करने की ज्यादा वजह न हो.
आर्थिक मोर्चे पर चीजें तेजी से बदल रही हैं. जर्मन मार्शल फंड के एंड्रयू स्मॉल कहते हैं कि पिछले साल चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) योजना शुरू किए जाने के बाद चीन का ''यह पक्का करने में कहीं ज्यादा फायदा है कि पाकिस्तान आर्थिक तौर पर कमजोर न हो." इस गलियारे में तकरीबन 46 अरब डॉलर की अनुमानित लागत से हाईवे, रेलवे लाइनों और साथ ही ऊर्जा परियोजनाओं की परिकल्पना की गई है. कई लोग इसे ''गेम-चेंजर" के तौर पर देख रहे हैं जो उस नाजुक संतुलन को बदल देगा जिससे अब तक पाकिस्तान और भारत के प्रति चीन की कूटनीति तय होती रही है.
बीजिंग स्थित प्रभावशाली संस्था चाइना इंस्टीट्यूट ऑफ कंटेंपररी इंटरनेशनल रिलेशंस के एक अग्रणी विशेषज्ञ हु शिशेंग कहते हैं, ''साफ-साफ कहूं तो सीपीईसी के आगे बढऩे के साथ चीन पाकिस्तान में और ज्यादा से ज्यादा संसाधन डालेगा. पाकिस्तान में चीन के हित बहुत भारी-भरकम और कहीं ज्यादा चारों तरफ फैले होंगे. कुछ हद तक दोनों देश एक दूसरे के साझा हितधारक, साझा नियति के सच्चे समुदाय बन जाएंगे. इसका मतलब है कि पाकिस्तान में कोई भी उथल-पुथल और गड़बड़ी होने पर चीन के हितों से छेड़छाड़ हो सकती है."
हालांकि भारत इसका अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर सकता है. अगर इस्लामाबाद सीमा-पार आतंकवाद को बढ़ावा देने से बाज नहीं आता तो पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को अस्थिर करने की धमकी देकर भारत चीन के जरिए पाकिस्तान को काबू करवा सकता है. स्मॉल कहते हैं, ''सीपीईसी चीन के लिए इस बात को और अहम बना देता है कि पाकिस्तान अपने पड़ोसियों के साथ तनावों को खत्म करे ताकि परियोजना के लिए खतरों को कम किया जा सके." वे कहते हैं कि घटनाओं ने फिलहाल जो रास्ता पकड़ा है वह ऐसा नहीं है कि उसको लेकर वे खुश हों.
साथ ही आतंकवाद चीन के लिए लगातार ज्यादा से ज्यादा संवेदनशील मुद्दा होता जा रहा है. खासकर 2008 से शिनजियांग में एक के बाद एक हुए हमलों के सिलसिले और सीरिया में सैकड़ों उइगुर जेहादियों के उभार के बाद. स्मॉल कहते हैं, ''वे जो रुख अपनाते हैं उसमें उनका अपने हितों पर साफ असर होता है और वे उसका खालिस राजनीतिकरण करना गवारा नहीं कर सकते." भारत को दक्षिण एशिया की राजनीति में चीन की मौजूदगी के साथ तालमेल बिठाना ही होगा और उसका अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना होगा.
भारत को क्या करना ही चाहिए भले ही ऐसा दिखाई देता हो कि भारत के पास बहुत सारे किस्म-किस्म के विकल्प हैं, वह कई गंभीर मजबूरियों से भी दोचार है. कार्नेगी एंडाउमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस (सीईआइपी) के सीनियर एसोसिएट एशले टेलिस, जिन्होंने भारत की सुरक्षा पर कई मौलिक किताबें भी लिखी हैं, कहते हैं, ''अहम सवाल यह नहीं है कि इन विकल्पों में प्रवेश की क्या कीमत अदा करनी होगी बल्कि अहम सवाल यह है कि उनसे बाहर निकलने की क्या कीमत चुकानी होगी. एक के बाद एक कई भारतीय प्रधानमंत्रियों ने लंबे वक्त के हितों को दिमाग में रखा और इस नतीजे पर पहुंचे कि पलटकर उकसाने वाला जवाब देने के बजाए एक आतंकी हमले की कीमत चुकाना कहीं ज्यादा सस्ता है."
भारत तीन दशकों से जबरदस्त सीमा-पार आतंकवाद को झेलते रहने के बावजूद पाकिस्तान के बजाय कहीं ज्यादा कामयाब मुल्क है. पाकिस्तान से निपटना अब कोई बड़ा चुनावी मुद्दा नहीं रह गया है. 2008 के मुंबई हमलों को रोक पाने की तैयारियों की कमी को लेकर यूपीए-2 को तीखी आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा था, मगर इसके बावजूद अगले साल का आम चुनाव उसने बड़े मजे से जीता. रोजी-रोटी के मुद्दे मतदाताओं के लिए ज्यादा अहमियत रखते मालूम देते हैं, न कि सीना फुलाने और खम ठोंकने की मुद्राएं. इसी वजह से टेलिस मानते हैं कि पाकिस्तान का मुकाबला करने का सबसे असरदार तरीका यह है कि ''भारत बड़ी रणनीति के तहत आर्थिक सुधारों पर ध्यान दे और दौड़कर पाकिस्तान से इतना आगे निकल जाए कि उसे धूल में लटपटाता छोड़ दे."
पाकिस्तान को वश में करने का दूसरा तरीका यह है कि अपने देश की सुरक्षा का एक असरदार ढांचा स्थापित किया जाए. उड़ी और पठानकोट के हमलों से साबित हुआ है कि भारत अब भी असैन्य प्रतिष्ठानों की तो बात ही छोड़ दें, अपने सशस्त्र बलों के अड्डों तक को महफूज रखने में समर्थ नहीं है. अगर भारत ताकत के साथ बदले की कार्रवाई करता भी है, तब भी वह दहशतगर्दों के जवाबी हमलों के प्रति तो खुला और मजबूर ही बना रहेगा. भारत के लिए जरूरी यह है कि वह अपनी चैकसी-निगरानी और खुफिया प्रणालियों को और साथ ही अपनी सीमा की हिफाजत को बढ़ाए और पुख्ता करे ताकि पाकिस्तान की सुनियोजित साजिशों को पक्के तौर पर नाकाम किया जा सके. इसकी एक पूर्व शर्त यह सुनिश्चित करना है कि जम्मू-कश्मीर में शांति और स्थिरता लौटे. वहां लोगों में भरोसा बहाली के कदम उठाए जाएं.
इसका एक अच्छा पहलू यह है कि जंग जैसे हालात अतीत में सुलह-समझौतों की तरफ ले गए थे, जैसा कि 2002 के संकट के बाद हुआ था. पिछले पांच साल तक भारत और पाकिस्तान लगातार बैक-चैनल बातचीत में मुब्तिला रहे थे, जिससे एक समाधान तकरीबन तैयार किया जा चुका था कि कश्मीर के विवाद को कैसे निपटाया जाए. और उस पूरी अवधि के दौरान नियंत्रण रेखा पर शांति रही थी. आज भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय को पाकिस्तान को इस बात के लिए राजी करना चाहिए कि वह निरर्थक हिंसा को लगातार जारी रखने के बजाए रचनात्मक बातचीत में शामिल होने की सार्थकता समझे. जैसा कि सुन त्सू ने कहा था, ''विजयी और सफल योद्धा पहले जीतते हैं और फिर जंग में उतरते हैं, जबकि पराजित और विफल यौद्धा पहले जंग में उतरते हैं और फिर जीतने की कोशिश करते हैं."
—साथ में अनंत कृष्णन, बीजिंग में