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जीएसटी की राह में नया अड़ंगा

बिहार में हार और जीएसटी पैनल के मुखिया के इस्तीफे से अप्रैल 2016 में इसे लागू करने की योजना को झटका, अब इसे  अप्रैल 2016 तक लागू नहीं किया जा सकेगा.

एम.जी. अरुण
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  • 20 नवंबर 2015,
  • अपडेटेड 3:27 PM IST

एक न एक सियासी अड़चन से वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) का मामला पिछले 15 साल से अटका रहा है, जबकि इस दौरान इस पर हर तरीके से बहस, चर्चा और समीक्षा हो चुकी है. अब जब लग रहा था कि वस्तुओं और सेवाओं पर केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से लगने वाले अलग-अलग करों की जगह एक महत्वाकांक्षी कर व्यवस्था की राह में और रोड़े नहीं बचे हैं, तभी फिर दो घटनाएं आड़े आ गई हैं&बिहार विधानसभा के चुनाव में बीजेपी की जबरदस्त हार और राज्यों के वित्त मंत्रियों की समिति के चेयरमैन के.एम. मणि का 12 नवंबर को उनके गृह राज्य केरल में बार मालिकों द्वारा लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते इस्तीफा. जाहिर है, इस महत्वपूर्ण कर सुधार से अपशगुनी साये हट नहीं रहे हैं.

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लिहाजा, अटल बिहारी वाजपेयी सरकार का सबसे पहले सन् 2000 में लाया गया जीएसटी कर विधेयक न सिर्फ नरेंद्र मोदी सरकार की तय की गई अप्रैल 2016 की समयसीमा से चूक जाएगा, बल्कि विशेषज्ञों ने इंडिया टुडे से अंदेशा जताया कि अब यह अक्तूबर 2017 तक लटक सकता है. इस निराशाजनक अंदेशे के कई कारण हैं. इनमें एक तो यह है कि सरकार को परंपरा के मुताबिक गैर-एनडीए सदस्यों में से ही मणि का विकल्प चुनना होगा.

उसके बाद, विधेयक को राज्यसभा में पारित कराने के लिए दो-तिहाई बहुमत की जरूरत होगी. एनडीए इससे सात सदस्य पीछे है क्योंकि कांग्रेस, वाम दल और एआइएडीएमके विधेयक के खिलाफ हैं. फिर अब बिहार में भारी जीत के बाद विधेयक का पहले समर्थन करने वाले जेडी(यू) के 12 राज्यसभा सदस्यों के समर्थन की भी गारंटी नहीं है. उतनी ही जरूरी इस कर सुधार पर अमल करने के लिए विशेष प्रौद्योगिकी व्यवस्था और इन करों को स्वीकार करने के लिए सभी औद्योगिक और सेवा क्षेत्रों की तैयारी भी होगी.

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कई तरह की वस्तुओं का उत्पादन करने वाले महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्य पहले ही इस संभावना से भड़के हुए हैं कि वे अपने राज्य में उत्पादित वस्तुओं पर मिलने वाले कर से वंचित हो जाएंगे. गुजरात ने विधेयक में उपभोग के ठिकाने पर आधारित कर व्यवस्था का विरोध किया है. असल में इस व्यवस्था में पश्चिम बंगाल जैसे मुख्य रूप से “उपभोग” करने वाले राज्यों को जीएसटी राजस्व हिस्सेदारी में लाभ मिल सकता है जबकि “उत्पादन” करने वाले राज्यों को कर राजस्व में घाटा हो सकता है. केंद्र ने कथित तौर पर गुजरात को दो साल तक समान जीएसटी हिस्सेदारी के  अलावा कर राजस्व में एक प्रतिशत अतिरिक्त कर राजस्व देने पर रजामंदी जाहिर की है. लेकिन वह अभी तक इस पर अपनी रजामंदी नहीं जाहिर कर पाया है.

अर्थव्यवस्था को फायदा
जीएसटी के क्रियान्वयन को देश की अर्थव्यवस्था को लाभ पहुंचाने वाले अकेले सबसे बड़े सुधार के रूप में प्रचारित किया जा रहा था. गोदरेज इंडस्ट्रीज के चेयरमैन अदि गोदरेज का मानना है, “जीएसटी के जरिए हम देश में विकास की दर को दोहरे अंकों में ले जा सकेंगे और बाकी चीजें अपने आप सुधर जाएंगी.” इसका बुनियादी विचार यह है कि अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए एक संयुक्त, सहयोगी और अविभाजित भारतीय बाजार खड़ा किया जाए. कंसल्टिंग फर्म केपीएमजी में परोक्ष कर के प्रमुख सचिन मेनन कहते हैं, “एक बार जीएसटी लागू हो जाए तो हर सौदा इस कर व्यवस्था के तहत आ जाएगा.” इस वक्त कई लोगों के लिए कर से बचना आसान हो जाता है क्योंकि वे केंद्र व राज्य के अलग-अलग अधिकार क्षेत्रों में आते हैं. इसको काले धन से निबटने के भी मजबूत हथियार के रूप में देखा जा रहा है.

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कई लोग जीएसटी की दर को 20 फीसदी तय करने पर जोर दे रहे हैं, वैसे कांग्रेस इसे 18 फीसदी करने के पक्ष में है. केंद्र और राज्यों के बीच हुए पहले के विचार-विमर्श में जीएसटी की दर को 25 से 26 प्रतिशत निर्धारित करने की राय जाहिर की गई थी. लेकिन विशेषज्ञों का कहना था कि यह दर जीएसटी की मूल अवधारणा को ही नुक्सान पहुंचाने वाली थी. आदित्य बिड़ला समूह के मुख्य अर्थशास्त्री अजित रानाडे का कहना है, “जीएसटी कानून को कोई निश्चित दर निर्धारित करने से बचना चाहिए और सिर्फ यह कहना चाहिए कि दर प्रतिस्पर्धी होगी और अंतरराष्ट्रीय मानकों तथा राजस्व निरपेक्षता के विचार के अनुरूप होगी.” दरों के अलावा कांग्रेस विधेयक में कुछ और बदलाव भी चाहती है, जिसमें नगरपालिकाओं और पंचायतों के लिए मुआवजे की व्यवस्था और स्वतंत्र विवाद निबटारा प्रणाली का गठन शामिल है.

जीएसटी में देरी कितनी महंगी पड़ सकती है? इतने व्यापक स्तर के किसी भी कर सुधार में ऐसा तो नहीं कि पहले ही दिन से कर संग्रह में कोई उल्लेखनीय वृद्धि हो जाएगी. हालांकि, कई लोगों का अनुमान है कि कर संग्रह में 30 से 40 फीसदी की बढ़ोतरी हो जाएगी. यह उसी वृद्धि के अनुरूप है जब राज्यों ने 2003 में बिक्री कर को छोड़कर वैट को अपनाया था. अप्रैल से अगस्त 2015 में भारत का परोक्ष कर संग्रह 54,396 करोड़ रुपए था जो अतिरिक्त राजस्व उपायों के कारण उत्पाद शुल्क में वृद्धि के परिणामस्वरूप पिछले साल की तुलना में 37 फीसदी ज्यादा रहा. जीएसटी लागू होने के बाद इसमें और तेजी आएगी. सरकार के लिए सेवा कर अतिरिक्त आय बढ़ाने का एक साधन है और अगर उसे क्रियान्वित नहीं किया जाता तो उत्पाद शुल्क की दरें बढ़ सकती हैं और राज्य सरकारें राजस्व में होने वाले नुक्सान की भरपाई के लिए सेल्स टैक्स बढ़ा सकती हैं.

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उपभोक्ताओं पर असर
लेकिन सबसे बड़ा नुक्सान तो खुद उपभोक्ताओं का होगा. जीएसटी से उपभोक्ता वस्तुओं की औसत कीमतों में 1.5 से 2 फीसदी की कमी आने की संभावना व्यक्त की जा रही है. हमारे उपभोग का करीब 70 फीसदी खाने, कपड़ों और बाकी उपभोक्ता वस्तुओं पर खर्च होता है और सिर्फ 30 फीसदी उपभोग सेवाओं पर. जीएसटी के लागू होने के बाद उत्पादन कर, जो अभी 28 फीसदी है, 20 फीसदी पर आ जाएगा और सेवा कर, जो अभी 14 फीसदी है, 20 फीसदी की दर पर पहुंच जाएगा. सलाहकार फर्म ग्रांट थॉर्नटन इंडिया के पार्टनर और परोक्ष कर के प्रमुख अमित कुमार सरकार का कहना है, “देश के उपभोक्ताओं को इससे सीधे-सीधे 3 से 5 फीसदी फायदा होगा.” इससे महंगाई का दबाव कम हो सकता है, जिससे मध्य वर्ग के लोगों को ज्यादा खर्च करने का प्रोत्साहन मिल सकता है और जीडीपी दर को कम से कम 1.5 से 2 फीसदी का बढ़ावा मिल सकता है. कई लोगों का यह भी कहना है कि सरकार को जीएसटी के कराधान का दायरा बढ़ाकर ज्यादा से ज्यादा वस्तुओं व सेवाओं को इसके दायरे में लेकर आना चाहिए. जैसा कि कुछ रिपोर्टों में कहा जा रहा है, पेट्रोलियम उत्पादों, बिजली और रियल एस्टेट को इससे बाहर रखने से जीएसटी का उद्देश्य काफी हद तक नाकाम हो सकता है.

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सरकार का दावा है कि इस कर को लागू करने के लिए प्रौद्योगिकीय ढांचा तैयार किया जा चुका है. पांच साल के लिए जीएसटी टेक्नोलॉजी नेटवर्क तैयार करने और उसकी देखरेख के लिए 1,380 करोड़ रु. का करार पहले ही साफ्टवेयर कंपनी इन्फोसिस को दिया जा चुका है. सरकार ने जीएसटी नेटवर्क के नाम से एक संस्था भी बनाई है, जो जीएसटी को लागू करने के लिए प्रौद्योगिकीय आधार का काम करेगी और केंद्र तथा राज्यों के डाटाबेस को आपस में जोड़ेगी.

अब यही बाकी रह गया है कि जीएसटी विधेयक को पारित करवाने के लिए विपक्ष का समर्थन जुटाया जाए, पर सरकार अब तक इसमें नाकाम रही है, खास तौर पर भूमि अधिग्रहण विधेयक के मामले में उसे मुंह की खानी पड़ी है. रानाडे कहते हैं कि कांग्रेस और बीजेपी को देशहित में आपसी सहमति कायम करनी चाहिए क्योंकि दोनों पार्टियां केंद्रीय बिक्री कर के एवज में एक फीसदी के मुआवजे पर पहले ही रजामंद हो चुकी हैं. यह शर्त कांग्रेस की कथित पूर्वशर्तों में से एक थी. यह उन राज्यों के लिए बेहद सकारात्मक बात है जिन्हें अच्छे-खासे राजस्व नुक्सान का डर है. वैसे भी जीएसटी यूपीए सरकार के एजेंडे में था लेकिन तब वह बीजेपी के विरोध के कारण अटक गया था. अब कांग्रेस भी यही रवैया अपना रही है. पर असली दिक्कत एनडीए सरकार के रवैए को बताया जा रहा है.

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वैसे अब सरकार सभी प्रमुख विपक्षी दलों के नेताओं की बैठक बुलाने की योजना बना रही है ताकि महत्वपूर्ण विधेयकों और संसद के कामकाज पर चर्चा की जा सके. यह स्वागतयोग्य है. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि वे विधेयक पर जारी गतिरोध को दूर करने के लिए कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी समेत किसी से भी बातचीत को तैयार हैं. उन्होंने 16 नवंबर को एक साक्षात्कार में यह भी दावा किया कि सरकार के पास विधेयक को पारित करने के लिए सदन में जरूरी संक्चया है, “जिस दिन उस पर राज्यसभा में चर्चा होगी और उस पर वोटिंग की जाएगी, मुझे रत्तीभर संदेह नहीं है कि उसे मंजूरी मिल जाएगी. संख्या हमारे पक्ष में है.” यकीनन ये साहसी शब्द हैं जिनकी परीक्षा जल्द हो जाएगी.

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