
अपने संगीत से दुनिया को लुभाने वाले सारंगी के बड़े नवाज उस्ताद साबरी खां का हुनर ऐसा था जो पत्थर का भी सीना पिघला देता. इस साज को जिंदा रखने और इसका अलग वजूद कायम करने के लिए की गई उनकी अथक कोशिशों को दुनिया हमेशा याद रखेगी. महज सात साल की उम्र में शुरू हुआ उनका सुरों का सफर बेहद कठिन था. उनकी शुरुआती दीक्षा अपने दादा उस्ताद हाजी मोहम्मद खान के साए में हुई और बाद में वे अपने वालिद उस्ताद छज्जू खान की सरपरस्ती में सीखते रहे. उनके वालिद और दादा दोनों ही अपने दौर में सारंगी के बड़े उस्ताद थे. अपने चाचा रामपुर के लड्डन खां से भी उन्होंने सारंगी के गुर सीखे.
उन्होंने एक बार बातचीत में बताया था कि कभी अगर वे सुर में कोई तान नहीं बजा पाते थे तो उनकी उंगलियों के जोड़ों पर मार पड़ती थी. इसके बावजूद उन्हें अपनी तालीम पर फख्र था और अपने संघर्षों को साझा करना उन्हें भाता था. वे मानते थे कि संगीत साझा की जाने वाली नेमत है. वे बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे. उन्होंने शुद्ध रागों, तानों, लयकारी और आलाप-जोड़ को मिलाकर अपनी ऐसी विशिष्ट शैली विकसित की जिसमें सारंगी की परंपरागत शैली को भी बचाए रखा गया था. यहां सारंगी मूल शैली में सुनने को मिलती थी.
जब वे पहली बार ऑल इंडिया रेडियो (एआइआर) में ऑडिशन के लिए गए, तो उन्हें दो बार लौटा दिया गया. वे बताते थे, ''उन्होंने मुझसे राग बागेश्वरी बहार जैसे तमाम जटिल राग बजाने को कहा. मैंने हार नहीं मानी. '' उन दिनों संगीतकारों के लिए एआइआर के स्टाफ में होना बड़ी बात मानी जाती थी क्योंकि वहां यश और पैसा दोनों था. आखिरकार 1942 में उन्हें एआइआर के तमिल प्रभाग में रख लिया गया जहां उनकी मुलाकात एस. कृष्णस्वामी से हुई. उन्हें उस वक्त 50 रु. प्रतिमाह पगार मिलती थी. वे कहते थे, ''इतना पैसा काफी था और मैं संतुष्ट था. इस पैसे से मैं सात भाइयों और माता-पिता को मदद दे सकता था. आज हर कोई पैसों के पीछे भाग रहा है और लोगों की पैसे की प्यास कम ही नहीं हो रही है. '' वे पांच वक्त के नमाजी थे. वे योगी थे. उनकी रूह खूबसूरत थी. संतूर के उस्ताद पंडित भजन सोपोरी कहते हैं कि वे पुराने दौर के संगीत से ताल्लुक रखते थे. साबरी खां ने अपनी जिंदगी में तारीखी पल देखे थे. वे उन चुनिंदा खुशकिस्मत लोगों में थे जिन्होंने 15 अगस्त, 1947 की रात एआइआर पर प्रसारित राष्ट्रगान के वाद्य-वृंद में सारंगी बजाई थी. उस वक्त वे सिर्फ 15 बरस के थे लेकिन उनमें एक उस्ताद के सारे गुर थे.
वे कहते थे, ''सारंगी से इंसानी सुर निकल सकते हैं जो कभी-कभार गायक के हुनर पर भी भारी पड़ जाते हैं. '' वे यहूदी मेनुहिन के साथ भी बजा चुके थे. मेनुहिन सारंगी को भारतीय एहसासों का सबसे बेहतर स्वर देने वाला वाद्य यंत्र मानते थे, पर उस्ताद को हमेशा लगता रहा कि गायकों के रवैए और हारमोनियम जैसे सनातन प्रतिद्वंद्वी के चलते सारंगी उपेक्षित रह गई है. उस्ताद खुद एक प्रशिक्षित गायक और एकल वादक थे, पर वे मानते थे कि जुगलबंदी में बजाना एक चुनौतीपूर्ण काम होता है, क्योंकि हर घराने का गायक अपनी विशिष्ट शैली में गाता है, लिहाजा वादक को उसके मूड, ताल, राग और तान की शैली को पलक झपकने की तेजी के साथ पकडऩा जरूरी हो जाता है. वे एक घटना का जिक्र करते थे.
बरसों पहले एक मशहूर गायक के साथ वे अफगानिस्तान के दौरे पर गए थे. ''कार्यक्रम के दौरान अचानक छिड़ी तान श्रोताओं को ज्यादा आकर्षित कर रही थी और मुझे गायक के मुकाबले ज्यादा सराहना मिल रही थी. गायक ने खीझ कर सारंगी पर लगे माइक को दूसरी दिशा में मोड़ दिया ताकि श्रोताओं को सारंगी का स्वर सुनने को न मिल सके. '' उस्ताद ने इस अपमान को हंसते हुए बरदाश्त किया पर बाद में उन्होंने सारंगी का स्वतंत्र वजूद कायम करने के लिए मेहनत की और इस जंग में उन्हें कामयाबी भी मिली.
वे जमीनी समझदारी रखने वाले सहज शख्स थे. उन्होंने कई कलाकारों को तालीम दी है जिनमें उनके बेटे कमाल साबरी, सुहैल यूसुफ खान और दूसरे संगीतकार हैं. उनका घर ऐसे अड्डे की तरह था जहां संगीतकार और संगीत प्रेमी चाय की चुस्कियों के साथ संगीत सुनते और अनमोल किस्सों के गवाह बनते थे. साल भर पहले उनसे मिलने पर मैंने पूछा था कि क्या उनके मन में कोई मलाल है? वे बोले, ''मेरे मन में कोई मलाल नहीं है. मैं ताजिंदगी सारंगी को अलग से इज्जत बख्शने की जंग लड़ता रहा, जो हमेशा साथ में बजाई जाती थी. सारंगी सौ रंगों का साज है और यह भारतवर्ष का साज है. मैं इसे अमर कर देना चाहता हूं. '' और उन्होंने ऐसा कर दिखाया.
वे कहते थे, ''मैं बचपन में लौट जाना चाहता हूं जहां मैं सिर्फ रियाज़ कर सकूं, और कुछ भी नहीं.'' यकीन के साथ कहा जा सकता है कि अब ऊपर उन्हें सैकड़ों गाती परियों के साथ सारंगी बजाने की पूरी मोहलत मिल सकेगी जहां परियां भी बदले में उनसे कुछ बंदिशें सीख सकेंगी. जीते रहो उस्ताद!