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वापस जा रहे विदेशी निवेशक

सरकारी टालमटोल और मंजूरियों में होने वाली देरी की वजह से विदेशी निवेशक देश छोड़कर वापस जाने को मजबूर हो रहे हैं. कंपनियां जमीनी स्तर पर ठोस कार्रवाई की मांग कर रही हैं.

एम.जी. अरुण
  • नई दिल्ली,
  • 30 जुलाई 2013,
  • अपडेटेड 11:00 AM IST

दुनिया की सबसे बड़ी स्टील कंपनी आर्सेलर मित्तल के मालिक लक्ष्मी एन. मित्तल अगस्त, 2007 में इंडियन
इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, बंबई में मुख्य अतिथि बनकर आए थे. मौका था संस्थान का सालाना दीक्षांत समारोह. भारतीय उद्यमों की ग्लोबल कामयाबी का प्रतीक बन चुके मित्तल पारंपरिक काले परिधान और चौकोर टोप में जब मंच की ओर बढ़े, तो तालियों की गडग़ड़ाहट से उनका सम्मान किया गया.

उन्होंने कहा था, “अगर मैं आज अपनी शिक्षा पूरी करता, तो मैं भारत में ही रहने का फैसला करता. देश को अपनी ज्यादातर प्रतिभाओं को यहीं रोकने और उन्हें दीर्घकालिक तथा आकर्षक अवसर देने की जरूरत है.”

परदा गिरता है और आंखों के सामने अगला दृश्य इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, अहमदाबाद का उभरता है. मौका वही, सालाना दीक्षांत समारोह. लेकिन पुराना समय बीत चुका है. यह मार्च, 2013 की कहानी है, जब आयोजन के दौरान मीडिया से मित्तल कहते हैं, ‘निवेश के लिए भारत मेरी प्राथमिकता में नहीं है...मुझे यहां बहुत देरी सहनी पड़ी है.” महज पांच साल बीते और भारत में इस कारोबारी शख्सियत का भरोसा ही हिल चुका है. इसे दुरुस्त करना अब मुमकिन नहीं.

आर्सेलर मित्तल ने भूमि अधिग्रहण और कैप्टिव लौह खदानों के आवंटन में होने वाली देरी का हवाला देते हुए इस साल 17 जुलाई को 40,000 करोड़ रु. की लागत से ओडिसा में लगने वाले अपने संयंत्र से हाथ वापस खींच लिए. यहां 12 मिलियन टन स्टील का सालाना उत्पादन होना था. आर्सेलर मित्तल की इस घोषणा से ठीक एक दिन पहले दक्षिण कोरिया की कंपनी पॉस्को ने कर्नाटक में 30,000 करोड़ रु. की लागत से लगने वाली अपनी स्टील मिल की योजना यह कहते हुए रद्द कर दी कि लौह अयस्क के खनन के अधिकार मिलने में देरी हो रही है और भूमि अधिग्रहण का स्थानीय लोग विरोध कर रहे हैं.

जनवरी, 2012 से लेकर अब तक भारत कम-से-कम एक लाख करोड़ रु. के संभावित निवेश से हाथ धो चुका है. भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, जो वित्त वर्ष 2011-12 में 46.6 अरब डॉलर था वह 2012-13 में 21 फीसदी गिरकर 36.9 अरब डॉलर पर आ चुका है. इसके ठीक उलट पड़ोसी मुल्क चीन ने 2012 में 111.6 अरब डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित किया है.

पूंजी का पलायन
भारत में जन्मे मित्तल ने 2006 में लग्जमबर्ग की कंपनी आर्सेलर का अधिग्रहण किया था और भारत संबंधी अपनी योजना को 2008 में गति दी थी. आर्सेलर मित्तल के भारत में अहम पड़ावों को तय करने में कंपनी के बोर्ड सदस्य और उसके एशियाई परिचालन के प्रभारी मलय मुखर्जी का बड़ा हाथ था, जिसमें एक काम एक विस्तृत व्यावहारिकता रिपोर्ट और पर्यावरण प्रभाव आकलन के अध्ययन का भी शामिल था. देर से ही सही, कंपनी ने स्थानीय लोगों की चिंताओं का जायजा लेने और उनकी शंकाओं को दूर करने के लिए आठ ग्राम सभाओं की बैठकें भी कीं.

लेकिन जैसे-जैसे भारत की परियोजना में देरी होती गई, कंपनी की दिलचस्पी ही कम होती गई. मुखर्जी 2008 में आर्सेलर मित्तल के बोर्ड से निकल गए और इसके बाद एस्सार स्टील में सीईओ बनकर चले गए. आर्सेलर मित्तल के भारत और चीन के सीईओ विजय भटनागर बताते हैं, “पिछले सात साल में हम इस परियोजना में काफी संसाधन निवेश कर चुके हैं. इसके बावजूद भूमि अधिग्रहण और कैप्टिव लौह अयस्क ब्लॉक के आवंटन में होने वाली देरी की वजह से परियोजना अब कारगर नहीं रह गई है.”

दूसरी ओर, पॉस्को ने जून, 2010 में कर्नाटक सरकार के साथ एक सौदे पर दस्तखत किए थे जिसके तहत बेल्लारी के खदान क्षेत्र के करीब गडग जिले के मुंदर्गी तालुका में एक स्टील संयंत्र लगाया जाना था. किसानों के भड़क जाने के बाद जुलाई, 2011 में भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया रोक दी गई थी. इसके अलावा राज्य में अवैध खनन के मसले पर सुर्पीम कोर्ट का प्रतिबंधात्मक आदेश भी रोड़ा बनकर सामने आ गया.

पॉस्को इंडिया के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक यांग वॉन यून ने 16 जुलाई को जारी एक बयान में कहा, “बाजार के मौजूदा हालात और गडग में जमीन अधिग्रहण में हुई काफी देरी के कारण हमने कर्नाटक में 6एमटीपीए उत्पादन का अपना प्रस्तावित स्टील संयंत्र बंद करने का फैसला किया है.”

इस दौरान इन दोनों कंपनियों के दो और संयंत्र—ओडिसा में 52,000 करोड़ रु. की लागत से बन रही पॉस्को की स्टील मिल और आर्सेलर मित्तल की झारखंड में 50,000 करोड़ रु. में बन रही स्टील परियोजना भी कई मामलों में देरी के कारण अधर में हैं. इसके अलावा ओडिसा के नियामगिरि में लंदन की कंपनी वेदांता पीएलसी द्वारा लगाई जाने वाली बॉक्साइट खनन परियोजना भी स्थानीय लोगों के भीषण विरोध के कारण लटक गई है.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर राज्य सरकार अब उक्त इलाके में ग्राम सभाओं का आयोजन करवा रही है जिससे यह पता लग सकेगा कि क्या 1.7 अरब डॉलर की यह खनन परियोजना वास्तव में स्थानीय आदिवासियों के धार्मिक और सामुदायिक अधिकारों का हनन करती है.

गोदरेज ऐंड बॉयस मैन्युफैक्चरिंग कंपनी के चेयरमैन और प्रबंधन निदेशक तथा भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआइआइ) के पूर्व निदेशक जमशेद एन. गोदरेज कहते हैं, “एक स्टील प्लांट में जब तक आपके पास जमीन और सारे कच्चे माल से जुड़े करार, दोनों ही पूरे न हों तो आप परियोजना को चालू नहीं कर सकते हैं. इस किस्म की बड़ी परियोजनाओं में तो सरकार को ही सुविधाएं और अयस्क के स्रोत देने चाहिए.

लेकिन ऐसा हो नहीं रहा.” वे सरकारी कंपनी स्टील अथॉरिटी ऑफ  इंडिया या सेल की स्थापना का हवाला देते हुए कहते हैं, “उस मामले में तो सरकार ने खुद जमीन का अधिग्रहण किया था और कहा था कि खनन का पट्टा कैप्टिव आधार पर जारी किया जाएगा. यहां आप निजी क्षेत्र से निवेश करने को कह रहे हैं.” इसके अलावा, जिन कंपनियों ने स्टील की मांग सबसे ज्यादा होने के वक्त में भारी उत्पादन की योजना बनाई थी वे काफी सतर्कता बरत रही हैं क्योंकि उनके सामने दुनिया में स्टील के अतिरिक्त उत्पादन की चुनौती है.

अकेले स्टील और खनन क्षेत्र से ही पूंजी वापस नहीं जा रही, बल्कि ऊर्जा, दूरसंचार और यहां तक कि वित्तीय सेवाओं में भी ऐसा हो रहा है. दूरसंचार कंपनियों में एतिस्लात और ऑगियर वायरलेस, बिजली कंपनी जैसे एईएस कॉर्प तथा वित्तीय क्षेत्र में 3आइ, यूबीएस एजी व रॉयल बैंक ऑफ स्कॉटलैंड विदेशी पूंजी के देश से उडऩछू होने के ताजा उदाहरण हैं.

अमेरिकी कंपनी एईएस की भारत से हुई नाटकीय वापसी अकेले ही उन नीतियों का ज्वलंत उदाहरण है जो देश में कारोबारी जगत के लिए फांस बनी हुई हैं, क्योंकि उदारीकरण के बाद विदेश से भारत आने वाली शुरुआती कंपनियों में यह एक थी. यह कंपनी 1993 में भारत आई थी जब घरेलू बिजली क्षेत्र के सामने क्षमता बढ़ाने की भारी चुनौती थी और ऐसा स्वतंत्र बिजली परियोजनाएं (आइपीपी) लगाकर किया जाना था.

आगे चलकर जमीन, पर्यावरण और कोयले की उपलब्धता के मसलों पर कई बिजली परियोजनाएं लटक गईं. एईएस का हौसला धीरे-धीरे चुक रहा था. जैसे ही 2011 में कंपनी के अध्यक्ष और सीईओ पॉल हनराहन का कार्यकाल खत्म हुआ और उनकी जगह आंद्रे ग्लुस्की ने ली, वर्जीनिया की इस कंपनी ने भारत से अपनी विदाई का ऐलान कर डाला, हालांकि ओडिसा पावर जनरेशन कॉर्पोरेशन में अपनी हिस्सेदारी को उसने बचाए रखा.

सीआइआइ के अध्यक्ष और इन्फोसिस टेक्नोलॉजीज के वाइस-चेयरमैन क्रिस गोपालकृष्णन ने इंडिया टुडे को बताया, “यह वाकई गंभीर चिंता का विषय है कि हम संभावित निवेशों को वास्तविक पूंजी निर्माण में तब्दील नहीं कर पा रहे हैं.”

नौकरशाही का रोड़ा
कई परियोजनाएं नौकरशाही के मकडज़ाल में उलझी पड़ी हैं. प्रत्येक परियोजना को कम-से-कम दो मंत्रालयों और कुछ मामलों में सात मंत्रालयों से मंजूरी लेनी पड़ती है. स्वीडन के फर्नीचर ब्रांड आइकिया को अपना 10,500 करोड़ रु. का निवेश मंजूर करवाने में सालभर से ज्यादा वक्त लग गया. नाम न छापने की शर्त पर एक अफसर ने बताया, “मैं फिर भी इसे तेज क्रियान्वयन ही मानूंगा क्योंकि हमारे प्रधानमंत्री इस मामले को भारत में एफडीआइ के एक केस स्टडी के रूप में लेना चाह रहे थे.” कंपनी के भारत में सीईओ जुवेंसियो माएज्तू के मुताबिक आइकिया अब अपने स्टोर खोलने के लिए सही जगहों की तलाश में इंतजार करने को तैयार है.

बहाली का रास्ता
योजना आयोग के सदस्य और भारत में बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप के पूर्व चेयरमैन अरुण मैरा कहते हैं, “हम अर्थव्यवस्था में वृद्धि की जिस राह से उम्मीद लगाए बैठे थे वैसा हो नहीं पाया है.” विदेशी पूंजी की विदाई का असर अब महसूस होने लगा है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह टैक्स से जुड़ी आशंकाओं को दूर करने, अर्थव्यवस्था की समीक्षा करने और वृद्धि के उपाय खोजने के लिए आगामी 29 जुलाई को कारोबारियों के साथ बैठक करेंगे. इस बैठक में चालू खाता घाटे को कम करने और गिरते रुपए को थामने के तरीकों पर भी बात होगी.

सरकारी सूत्रों के मुताबिक विभिन्न मंत्रालयों के 24 आला अधिकारी नॉर्थ ब्लॉक में इस काम के लिए इकटठा होंगे जहां हालिया जेट-एतिहाद सौदे समेत एफडीआइ के लंबित 32 प्रस्तावों की किस्मत तय की जाएगी और योग्य कंपनियों को मंजूरी देने के मामले में तेजी लाने की कोशिश की जाएगी.

गोपालकृष्णन कहते हैं, “कुल मिलाकर कारोबार करने में होने वाली परेशानियों को दूर करने की कोशिश होनी चाहिए.” इसके बाद हो सकता है कि कुछ उपाय कारगर साबित हों. संयुक्त राष्ट्र्र के अर्थशास्त्री नागेश कुमार ने 27 जून को दिल्ली में कहा था कि सरकार द्वारा लागू आर्थिक सुधार उपायों के मद्देनजर 2013 में भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 21 फीसदी बढ़ेगा. सरकार इस दौरान और निवेश आकर्षित करने की कोशिश कर रही है.

वाणिज्य और उद्योग मंत्री आनंद शर्मा ने 12 जुलाई को वॉशिंगटन में आयोजित यूएस इंडिया बिजनेस काउंसिल की सालाना लीडरशिप समिट में प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए कहा था, “भरोसा रखिए... आइए और हमारे संग काम करिए.”

सरकार ने इस दौरान निवेश आकर्षित करने के लिए कई तरह की घोषणाएं की हैं, लेकिन आर्सेलर मित्तल और पॉस्को जैसे निवेशकों के भरोसे में इससे कोई इजाफा नहीं हो सका है. ये कंपनियां जमीनी स्तर पर ठोस कार्रवाई की मांग कर रही हैं.     —साथ में कुमार अंशुमन

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