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इनसाइड स्टोरीः बहुत पुराना है भारत-चीन विवाद और ड्रैगन की घुसपैठ

हिंदुस्तान के नक्शे पर एक हिस्से को अमूमन लोग अक्साई चिन के नाम से जानते हैं. मगर लद्दाख से लगा हुआ वो इलाका गलवान वैली के नाम से भी जाना जाता है. और मौजूदा भारत-चीन विवाद भी इसी गलवान घाटी में है.

भारत-चीन के बीच विवाद काफी लंबे समय से चला आ रहा है भारत-चीन के बीच विवाद काफी लंबे समय से चला आ रहा है
शम्स ताहिर खान/परवेज़ सागर
  • नई दिल्ली,
  • 09 जून 2020,
  • अपडेटेड 3:55 PM IST

  • भारत के एक हिस्से पर है चीन का कब्जा
  • अक्साई चिन को गालवन घाटी भी कहते हैं

हिंदुस्तान के नक्शे पर कश्मीर का जो पूरा हिस्सा आप देखते हैं. वो है तो भारत का हिस्सा मगर फिलहाल पूरा भारत के कब्ज़े में नहीं है. कश्मीर के दाईं तरफ का करीब आधा हिस्सा पाकिस्तान ने अपने कब्ज़े में ले रखा है. और बायीं तरफ का आधा हिस्सा चीन ने कब्ज़ा रखा है. भारत और पाकिस्तान में तो खैर कश्मीर को लेकर विवाद शुरू से जारी है. मगर चीन का भारत में क्या दखल. आखिर चीन ने क्यों भारत के हिस्से को अपने कब्ज़े मे लिया हुआ है. क्यों चीन अक्साई चिन जिसे गालवन घाटी भी कहते हैं. वहां हमेशा घुसपैठ की कोशिश करता रहता है? तो आइए आज तफसील से इस पूरे मसले को समझिए.

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हिंदुस्तान के नक्शे पर एक हिस्से को अमूमन लोग अक्साई चिन के नाम से जानते हैं. मगर लद्दाख से लगा हुआ वो इलाका गालवन वैली के नाम से भी जाना जाता है. और मौजूदा भारत-चीन विवाद भी इसी गालवन घाटी में है. तो इस गलवान वैली का सच क्या है. क्यों चीन इसे अपना और भारत अपना हिस्सा मानता है. इस घाटी का नाम गालवन पड़ा कैसे और वो गुलाम रसूल कौन हैं. जिनका नाम बार बार इस विवाद के दौरान सुनने में आता है. इन तमाम सवालों के जवाब इतिहास के पन्नों में छुपे हुए हैं. जिसे पलटने के बाद ये सच भी सामने आ जाएगा कि आखिर इस गालवन घाटी का असली हक़दार है कौन.

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इस साल 5 मई से चीन के सैनिक लगातार हिंदुस्तान के इस हिस्से में रह-रहकर घुसपैठ करके भारत को उकसाने की कोशिश कर रहे हैं. तो मौजूदा विवाद इस इलाके के जिन दो हिस्सों में है उनमें एक गालवन घाटी है और दूसरी है पैंगोंग लेक. चीन और भारत के विवाद की जड़ में जाने के लिए आपको नक्शे को गौर से समझना होगा.

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अगर हम नक्शे पर नजर डालें तो सबसे पहले आते हैं लाल लाइन पर. ये लाल लाइन वो है जिसे चीन 1962 में भारत से हुई जंग के बाद से अपना हिस्सा मानता है और दावा करता है कि यही वो एलएसी है जो भारत और चीन को अलग करती है. जबकि भारत ने 62 के युद्ध के बाद यथास्थिति की शर्त पर युद्ध विराम का समझौता कर लिया था जो आप इस नक्शे में हरे रंग की लाइन में देख रहे हैं. हालांकि भारत तकनीकि रूप से अपनी सीमा को इस नीले रंग की लाइन तक अपना हिस्सा मानता है. इसीलिए जब भी आप भारत का नक्शा देखेंगे तो उसमें ये हिस्सा भी हमारी सीमा में शामिल होता है. और ग्रे कलर की ये धारीदार लाइन वो एक्सप्रेस-वे है जिसका निर्माण चीन ने तकनीकि तौर पर भारत के हिस्से में किया हुआ है. जिसका भारत लगातार विरोध करता है.

तो अब आते हैं लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल पर. ये आखिर है क्या. एलएसी के बारे में जानने से पहले आप बस इतना जान लीजिए कि ये लाइन नक्शे पर तो है मगर ज़मीन पर नहीं है और ये विवाद सैकड़ों साल पुराना है.. तो कहानी दरअसल शुरु होती है 20वीं सदी की शुरुआत से और तब चीन से भारत की ये सीमा लगती ही नहीं थी. क्योंकि तब भारत और चीन के बीच में तिब्बत की सीमा थी. ये 3 जुलाई 1914 को ब्रिटिश इंडिया और तिब्बत के बीच हुए सीमा समझौते के बाद का नक्शा है. इसमें तवांग जो अब अरुणाचल प्रदेश है. उसे भी ब्रिटिश भारत का हिस्सा माना गया. हालांकि तब वहां अलग अलग राजवंश हुआ करते थे. जिनके साथ अंग्रेज़ों ने समझौता कर उसे नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी यानी एनईएफए का नाम दिया था. जिसका नाम 1972 में बदलकर अरुणाचल प्रदेश रखा गया.

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बहरहाल, वापस आते हैं मैकमोहन लाइन समझौता या शिमला सम्मेलन पर. 3 जुलाई 1914 को शिमला में तब के ब्रिटेश इंडिया, चीन और तिब्बत के बीच सीमा को लेकर एक समझौता हुआ. जिसे सर हेनरी मैकमोहन लीड कर रहे थे. इसी वजह से इस रेखा को मैकमोहन रेखा कहा जाता है. शिमला समझौते के दौरान ब्रिटेन, चीन और तिब्बत अलग-अलग पार्टी के तौर पर शामिल हुए थे. हालांकि इस सम्मेलन में चीन सिर्फ इस हैसियत से शामिल हुआ था. क्योंकि तब उसकी सीमा भारत के K-2 पर्वत श्रृंखला के हिस्सा से मिलती थी. हालांकि आज़ादी के बाद पाकिस्तान ने इस इलाके पर कब्ज़ा कर लिया और 1963 में इसे चीन को तोहफे में दे भी दिया और उधर पीएलए यानी चीनी सेना ने जबरन तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया.

अब भारत के साथ जिस 3,488 किमी की सीमा को लेकर चीन अक्सर बखेड़ा खड़ा करता है वो तो असल में उसकी थी ही नहीं. शिमला समझौता प्रथम विश्व युद्ध से पहले हुआ था. लिहाज़ा वर्ल्ड वॉर के दौरान जब हालात बदलने लगे. तब साल 1937 में ब्रिटिश इंडिया के अंडर सेक्रटरी सी यू एचिसन. अ कलेक्शन ऑफ ट्रीटीज़, ऐंगेज़मेंट्स ऐंड सनद्स रिलेटिंग टू इंडिया ऐंड नेबरिंग कंट्रीज़ नाम से एक किताब तैयार की. ये भारत और उसके पड़ोसी देशों के बीच हुई संधियां और समझौते का आधिकारिक कलेक्शन था. इसमें नई जानकारियां भी अपडेट हुई और मैकमोहन रेखा को अंतरराष्ट्रीय मान्यता भी मिल गई.

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कागज़ के नक्शे पर लाइन खींच कर 1914 में हुआ मैकमोहन लाइन का ये समझौता दरअसल बिना इस बात को ध्यान में रखे हुआ था कि बीच में कहां नदी. कहां घाटी और कहां पहाड़ है. और 1937 में इसे मान्यता भी मिल गई. हालांकि ज़मीन पर ऐसा कोई सरहदी निशान खींचा ही नहीं गया और मुश्किल हालात होने की वजह से तब कोई बॉर्डर फोर्स भी तैनात नही हुई. तब तक मामला सिर्फ आपसी समझ बूझ से ही चल रहा था. फिर कुछ साल बाद यानी 1947 में भारत आज़ाद हो गया. इधर भारत आज़ाद हुआ और उधर चीन के कम्युनिस्ट गुट ने सत्ता पर काबिज़ होकर 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की घोषणा कर दी. बस भारत के साथ चीन के सीमा विवाद की कहानी इसी के बाद शुरु होती है.

मैकमोहन लाइन के दोनों तरफ सत्ता का परिवर्तन हो चुका था और सत्ता में आने के बाद कम्युनिस्ट सरकार ने अपनी विस्तारवादी नीति को बढ़ावा देना शुरू कर दिया था. इसके तहत चीन ने पहले तिब्बत के दो अलग अलग गुटों को आपस में लड़वाया. और फिर 1950 आते आते उसकी पीपुल लिब्रेशन आर्मी ने एक पूरे मुल्क को अपने कब्ज़े में लेना शुरू कर दिया. हुआ ये कि पहले तो तिब्बत की सुरक्षा के नाम पर चीन ने 1950 में तिब्बत के 14वें दलाई लामा तेंज़िन ग्यात्सो के साथ सेवनटीन प्वाइंट एग्रीमेंट किया और फिर धीरे-धीरे उन्हें ही सत्ता से बेदखल कर दिया. अपनी जान खतरे में देखते हुए 1959 में दलाई लामा को भारत में शरण लेनी पड़ी और तब से लेकर आजतक दलाई लामा तेंज़िन ग्यात्सो हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में शरण लिए हुए हैं. इस उम्मीद में कि एक दिन वो अपने तिब्बत को ड्रैगन के चंगुल से फिर से आज़ाद करा सकेंगे.

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