
भारत और पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के बीच पिछले महीने बातचीत के रद्द होने से कटुता और संशय का जो माहौल बना था, उसे अभी दुरुस्त होना बाकी है. इस दौरान एक नई बहस शुरू हो गई है कि इस महीने के अंत में संयुक्त राष्ट्र की बैठक में हिस्सा लेने न्यूयॉर्क जा रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वहां पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मिलना चाहिए या नहीं. वार्ता शुरू करने के लिए किए गए उफा समझौते की शर्मनाक नाकामी के बाद अब संयुक्त राष्ट्र में पूरी दुनिया की करीबी निगाह भारत और पाकिस्तान के नेताओं पर रहेगी. इस बात की आशंका बढ़ती जा रही है कि किसी औपचारिक संवाद प्रक्रिया के अभाव और सरहद पर लगातार बढ़ रहे तनाव की पृष्ठभूमि में भारत के भीतर अब अगर कोई और बड़ा आतंकी हमला हुआ तो यह दोनों देशों के बीच कहीं जंग का बायस न बन जाए.
सवाल है कि क्या मोदी और शरीफ को न्यूयॉर्क में मिलना चाहिए? हां, बेशक मिलना ही चाहिए. किसी भी पक्ष को ऐसी मुलाकात को अपनी हार के रूप में नहीं देखना चाहिए. आमने-सामने का संवाद, चाहे कितना ही संक्षिप्त क्यों न हो, हमेशा तनाव को कम करने का काम करता है और भारत के इस पक्ष को भी पुष्ट करता है कि सिर्फ द्विपक्षीय संवाद से ही दोनों देशों के बीच मतभेदों को सुलझाया जा सकता है. भारत ने किसी तीसरे पक्ष या बहुपक्षीय हस्तक्षेप को हमेशा से नकारा है लेकिन मोदी और शरीफ ने कई मौकों पर इस बात से सहमति जताई है कि जंग किसी चीज का समाधान नहीं हो सकती, फिर चाहे वह खुलकर लड़ी जाए या छिपकर, छोटी हो या बड़ी.
अगर कोई सीमित संवाद किया भी जाए तो सवाल उठता है कि उसे सार्थक प्रक्रिया में तब्दील करके टिकाया कैसे जाए ताकि वह जुबानी जंग में न बदलने पाए. इसी हफ्ते लाहौर में लोकार्पित पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी की लिखी किताब नाइदर ए हॉक नॉर ए डव दोनों देशों के बीच 2005 से 2008 के बीच परदे के पीछे चले संवाद का पहली बार विस्तृत वर्णन करती है. इस पर नजर डालने से समझ में आता है कि यह प्रक्रिया दोनों देशों के लिए एक राह मुहैया कराती है और उम्मीद पैदा करती है कि दोनों एक दूसरे के साथ परस्पर लाभ की स्थिति में रहते हुए भी संलग्न हो सकते हैं.
पुस्तक के मुताबिक, वार्ता की प्रगति को सार्वजनिक किए बगैर और मीडिया की चमक-दमक से दूर रहते हुए दोनों देशों के वार्ताकार—भारत से सतिंदर के. लांबा और पाकिस्तान से तारिक अजीज—कश्मीर विवाद पर एक समझौते के काफी करीब पहुंच गए थे. अजीज नौकरशाह थे जो तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के विश्वासपात्र थे और नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल के सेक्रेटरी थे. पूर्व राजदूत लांबा को तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वार्ताकार नियुक्त किया था.
उस समय हुई वार्ता का मोटा खाका तो सार्वजनिक है ही लेकिन कसूरी ने पहली बार इस किताब में बताया है कि पाकिस्तान ने कैसे इस बातचीत को संभाला और विवाद के मसलों को सुलझाने की ओर काम किया. कसूरी लिखते हैं कि अजीज ने लांबा से दर्जनों बार चुपचाप दुबई, काठमांडो और बैंकॉक जैसी जगहों पर मुलाकात की. देश वापसी के बाद मुशर्रफ के रावलपिंडी स्थित आवास पर बुलाई एक बैठक में अजीज इन मुलाकातों में हुई बातचीत का खाका पेश करते. इन बैठकों में खुद मुशर्रफ, कसूरी, आइएसआइ के मुखिया (अशफाक कयानी, जो मुशर्रफ के बाद सेना प्रमुख बने), विदेश सचिव और राष्ट्रपति के चीफ ऑफ स्टाफ मौजूद रहते. इन बैठकों में अजीज के मसौदे में बदलाव करके उन्हें कुछ मसलों का एक मसौदा थमाया जाता, जिन पर उन्हें लांबा से अगली बार बात करनी होती थी.
लांबा परदे के पीछे की गई उन वार्ताओं की प्रक्रिया और परिणाम के बारे में कुछ नहीं कहते, जिसका वे खुद हिस्सा थे. उन्होंने इंडिया टुडे को बताया, ''आपको समझना चाहिए कि मेरे लिए परदे के पीछे लिए गए फैसलों पर टिप्पणी करना या समझौते के मसौदे पर बात करना उपयुक्त नहीं होगा. बैक-चैनल वार्ताओं से जुड़े कागजात सरकार की संपत्ति हैं. इन्हें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी को सौंप दिया है.'' मनमोहन सिंह के हाथों मोदी को सौंपे गए परदे के पीछे की बातचीत से जुड़े कागजात में 150 घंटे की वार्ता का विस्तृत रिकॉर्ड शामिल है जो हजार पन्नों में हो सकता है. इस बातचीत के छूटे सिरे को अगर पकड़ लिया जाए तो मोदी के लिए यह बहुत उपयोगी साबित हो सकता है.
इस बातचीत में इतनी प्रगति होने की एक वजह यह रही कि दोनों देशों ने सिर्फ आतंक और कश्मीर के 'मूल्य मुद्दों पर ही ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया, बजाए इसके कि सियाचिन, सर क्रीक और द्विपक्षीय व्यापार जैसे अन्य लंबित मसलों में पड़ा जाए. इसमें एक कारक यह भी था कि मुशर्रफ उस वक्त राष्ट्रपति होने के अलावा सेना प्रमुख भी थे और आइएसआइ भी पूरी तरह उनके साथ थी, लिहाजा सैन्य-नागरिक उद्देश्यों की एकरूपता की यह दुर्लभ स्थिति थी. लांबा इसकी पुष्टि करते हैं, ''मुझे परदे के पीछे चल रही बातचीत को पाकिस्तानी फौज के समर्थन की पुष्टि सीधे उसके शीर्षस्थ स्तर से प्राप्त हुई थी.'' अहम बात यह है कि इस बातचीत के दौरान पाकिस्तान ने किसी जनमत संग्रह या तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप से संबंधित अपनी मांग के लिए दबाव नहीं बनाया. दोनों पक्ष इस बात पर भी राजी हो गए थे कि सरहदों को दोबारा नहीं खींचा जाएगा और भविष्य के किसी भी समझौते में यह तय होगा कि एलओसी ही दोनों देशों के बीच की वास्तविक सरहद है.
कसूरी किताब में खुलासा करते हैं कि दोनों पक्ष चार अहम क्षेत्रों में समझौते पर पहुंच गए थे.
कश्मीर से हटे सेनाः पाकिस्तान ने घाटी से सेना हटाने पर जोर दिया, जो कि उस वक्त कश्मीर के कई अलगाववादी गुटों की मांग थी. कसूरी कहते हैं कि भारत तब जवाब में एक प्रस्ताव लेकर आया था कि पाकिस्तान जब तक अपने कब्जे वाले कश्मीर से (उत्तरी इलाकों समेत) अपनी सैन्य टुकडिय़ों को नहीं हटा लेगा, तब तक वह उसके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर सकता. दोनों ओर से चली वार्ता के बाद यह तय हुआ कि दोनों पक्ष धीरे-धीरे लेकिन बड़ी संख्या में आबादी वाले क्षेत्रों से अपना सैन्यबल घटाने पर सहमत होंगे ''जो जमीनी हालात के हिसाब से तय किया जाएगा.'' लांबा इस अहम रियायत की पुष्टि भी नहीं करते हैं और इसे खारिज भी नहीं करते हैं, लेकिन श्रीनगर में मई 2014 में हुए एक सेमिनार में सैन्यबलों में कटौती समेत तमाम समाधानों पर चर्चा करते हुए उन्होंने इस बात की ओर इशारा किया था, ''सैन्यबलों में कटौती की अनिवार्य पूर्व शर्त यह है कि कटुता, हिंसा और आतंकवाद का पहले खात्मा हो.''
आतंकवाद पर लगामः कसूरी इस बात को स्वीकार करते हैं कि सीमा पार आतंकवाद पर लगाम कसना एक पूर्व शर्त थी और वे लिखते हैं, ''हमने पहले ही यह मान लिया था कि भारत के साथ शांति प्रक्रिया आगे बढऩे की बात तो दूर रही, वह तब तक टिकाऊ नहीं होगी जब तक एलओसी के आर-पार आवाजाही नियंत्रित न की जाए.'' उनका दावा है कि पाकिस्तान की ओर से एक बड़ा कार्यक्रम शुरू किया गया था, ताकि आतंकवादियों में कट्टरता को खत्म किया जाए, उन्हें उनकी मौजूदा गतिविधियों से काटा जाए और समाज का 'उपयोगी' सदस्य बनाने के उद्देश्य से उनका पुनर्वास किया जाए. इसके साक्ष्य के तौर पर कसूरी बताते हैं कि उस अवधि में भारतीय फौज ने खुद यह बात कही थी कि एलओसी से घुसपैठ 'कम होकर शून्य तक आ गई है.' भारतीय सैन्यबलों का हालांकि मानना है कि ऐसा उसकी आतंक-विरोधी गतिविधियों के चलते हुआ था, न कि पाकिस्तान की किसी कार्रवाई के कारण, लेकिन यह तथ्य अब भी सही है कि उस दौरान एलओसी पर संघर्ष विराम के उल्लंघन की घटनाएं कम हुई थीं और वार्ता के दौरान सरहद पर अपेक्षाकृत शांति थी.
स्वशासनः सबसे ज्यादा विवाद के मसलों में एक कश्मीर में स्वशासन की पाकिस्तान की मांग थी, जिसे भारत हमेशा से ही घाटी पर दिल्ली की पकड़ को कमजोर करने की साजिश के तौर पर देखता रहा है. बैक-चैनल वार्ताओं के दौरान कसूरी बताते हैं कि भारत का जोर इस बात पर था कि पाकिस्तान भी ऐसा ही कुछ अपने कब्जे वाले कश्मीर के भीतर करे, जिसमें गिलगित और बाल्तिस्तान के उत्तरी इलाके भी शामिल हों. पाकिस्तान इस प्रस्ताव पर ठिठक गया था क्योंकि बीते वर्षों के दौरान उसने काफी सुनियोजित तरीके से दोनों क्षेत्रों को एक-दूसरे से अलग कर दिया था. उत्तरी इलाके रणनीतिक रूप से उसके लिए कमजोर साबित होते, क्योंकि वे चीन के जिंझियांग से लगते थे. इसके बावजूद उसने इस बात को माना. स्वशासन के मसले पर लांबा टिप्पणी करने से इनकार करते हैं लेकिन यह बात सामने आती है कि भारत अगर ऐसा करने को तैयार हुआ भी था, तो उसका भारतीय संविधान के किसी भी प्रावधान से कहीं कोई टकराव नहीं था.
संयुक्त प्रणालीः इतना ही विवादास्पद मसला संयुक्त प्रणाली का था जिसे कसूरी वार्ता का अंश बताते हैं, ''जिसके माध्यम से दोनों पक्षों के कश्मीरी साझा हित के विशिष्ट क्षेत्रों में सहयोग कर सकते थे और जहां भारतीय और पाकिस्तानी किसी न किसी रूप में मौजूद रहते.'' मुशर्रफ इस प्रक्रिया को लेकर उत्साहित थे और इसे घाटी पर भारत सरकार की पकड़ को धीरे-धीरे ढीला करने की एक और साजिश के रूप में देखा गया. लांबा इस मसले पर कुछ नहीं कहते लेकिन श्रीनगर में दिए उनके संबोधन से यह साफ है कि भारत जहां इस प्रणाली को लेकर विचार करने पर सहमत था, वहीं उसे सिर्फ एक परामर्शदाता इकाई के रूप में ही होना था जिसका काम पर्यटन, यात्रा, तीर्थ, व्यापार, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे सामाजिक-आर्थिक मसलों की निगरानी करना था.
कसूरी कहते हैं कि यदि इन तमाम कदमों को लागू कर दिया जाता तो भारत और पाकिस्तान की सबसे बड़ी उपलब्धि फिर यह होती कि उन्हें शांति, सुरक्षा और दोस्ती की एक बिल्कुल नई संधि पर दस्तखत करने पड़ते जो 'स्थायी शांति का मार्ग प्रशस्त करती.' कसूरी दावा करते हैं कि परदे के पीछे चली इस वार्ता को दोनों देशों की ओर से राजनैतिक समर्थन हासिल था, जिसमें भारत से बीजेपी भी शामिल थी. अपनी पुस्तक में वे अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे बृजेश मिश्र से 2007 में हुई एक मुलाकात का जिक्र करते हैं जिसमें उन्होंने कहा था, ''कसूरी साहब, वो तो हमें करना था और करेंगे, आप जरा धीरे-धीरे चलें.''
कसूरी का दावा है कि बैक-चैनल समझौते पर दस्तखत हो गए होते लेकिन 2008 में मुंबई पर हुए हमले ने रिश्तों को बहुत पीछे धकेल दिया. लांबा इसे चुनौती देते हुए कहते हैं कि ''2007 में मुशर्रफ के हाथों पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश की बरखास्तगी ने प्रक्रिया को धीमा कर दिया था.'' इसके बाद स्थितियां मुशर्रफ के नियंत्रण से फिसलती चली गईं और बाद में पाकिस्तान में हुकूमत बदल गई. कसूरी के समूचे आकलन के बारे में लांबा का कहना है कि ''समझौते में जो कुछ वास्तव में था, उसे यह सही परिप्रेक्ष्य में नहीं रखता, खासकर उन्होंने स्वशासन, संयुक्त प्रणाली और सेना हटाने के बारे में जो लिखा है. हो सकता है कि एक अनुभवी राजनेता होने के नाते उन्होंने जान-बूझ कर ऐसा लिखा हो.''
बहरहाल, यह बात बिल्कुल साफ है कि दोनों देशों ने कई मसलों में पर्याप्त प्रगति कर ली थी और कश्मीर पर किसी समझौते के काफी करीब पहुंच गए थे, यह बात अलग है कि घटनाक्रम और नियति को ऐसा मंजूर नहीं था. मुशर्रफ के हुकूमत से बाहर होने के बाद लांबा ने आसिफ जरदारी की सरकार के साथ परदे के पीछे बातचीत जारी रखी और मोदी के सत्ता में आने से पहले तक शरीफ के साथ भी यह बातचीत जारी थी, हालांकि इसमें पहले जैसा उत्साह नहीं रह गया था. मोदी और शरीफ अब भी इस टूटे हुए धागे को जोड़ सकते हैं. शायद लांबा-अजीज संवाद की तरह ही परदे के पीछे की बातचीत का तरीका कहीं ज्यादा कारगर रहेगा, बजाए पूरे हो-हल्ले के साथ किए जाने वाले औपचारिक कूटनीतिक संवाद के. दोनों नेता अगर न्यूयॉर्क में चाय पर चर्चा के लिए बैठें तो उन्हें इस मसले पर बात जरूर करनी चाहिए. इससे कोई नया सिरा पकडऩे की पहल निकल आए तो सोने में सुहागा.