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इंडिया टुडे वार्षिकांक 2016: मुसलमानों में पिछडऩे और घिरे होने की पीड़ा

देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय की हालत पिछले तीन दशकों में ज्यादा बिगड़ी, शिक्षा, रोजगार और हर क्षेत्र में वह दलित-आदिवासियों से भी पिछड़ा.

मुसलमानों की हालत पिछले तीन दशक में ज्यादा बिगड़ी मुसलमानों की हालत पिछले तीन दशक में ज्यादा बिगड़ी
मोहम्मद वक़ास
  • नई दिल्ली,
  • 29 नवंबर 2016,
  • अपडेटेड 6:55 PM IST

भारत आर्थिक विकास के ऐसे चरण में है जिसे सिर्फ अजीबोगरीब ही कहा जा सकता है. उसकी ठीक-ठीक व्याख्या करना मुश्किल हो सकता है. महज अपने विशाल आकार और अर्थव्यवस्था की मौजूदा दिशा की वजह से उसे अच्छी रेटिंग हासिल हो गई. इसकी बड़ी वजह यह भी है कि चीन, जापान, यूरोपीय संघ और अमेरिका की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की रफ्तार धीमी पड़ गई है. विरोधाभास यह है कि अपनी तमाम खामियों के बावजूद भारत के 7 फीसदी से अधिक वृद्धि दर हासिल करने की उम्मीद है और वह 2016 और शायद 2017 में भी दुनिया में सबसे कामयाब अर्थव्यवस्था कहला सकता है. अजीबोगरीब यह है कि भारत 2035 तक दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बनने जा रहा है और उसमें दुनिया के आधे गरीब लोग होंगे. उसे सबसे अधिक कुपोषण के शिकार बच्चों (भारत के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के मुताबिक करीब 40 फीसदी) और संक्रामक रोगों वगैरह की वजह से बड़ी तादाद में तंदुरुस्त लोगों की मौत का भी तमगा हासिल है.

भारत में कार्य सक्षम आबादी का करीब आधा अनपढ़ या मामूली पढ़ा-लिखा है, जिससे उसे बड़ी आबादी का आर्थिक लाभ शायद ही मिले. तकरीबन पिछले दो दशकों या उससे ज्यादा वक्त से मानव विकास सूचकांकों में खास सुधार न हो पाया है. हालांकि यह अहम है कि सरकारों ने हाशिए के समूहों, अल्पसंख्यकों वगैरह को अपने औपचारिक तंत्र के जरिए मदद पहुंचाने के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा, आर्थिक अवसर में सुधार के लिए सेवाएं मुहैया कराई हैं. सामान तथा सेवाओं के आदान-प्रदान के लिए छोटे स्थानीय बाजार तैयार किए गए हैं.
अल्पसंख्यकों में मोटे तौर पर मुसलमानों को गिना जाता है, जिनकी आबादी 2011 की जनगणना के मुताबिक, 17.4 करोड़ यानी 14.4 फीसदी है. इतनी बड़ी संख्या को अल्पसंख्यक तभी कहा जा सकता है, जब वे वंचित और प्रताड़ित हों. मुसलमानों में अल्पसंख्यक होने का यह एहसास 30 साल पहले '80 के दशक में हिंदू दक्षिणपंथी ताकतों के बढ़ते दबदबे के साथ गहराया. मुस्लिम पहचान को और करीने से समझने के लिए हमें 1986 और उसके बाद के वर्षों में झांकना होगा. उस समय हम शाहबानो मामले, सलमान रुश्दी की किताब पर पाबंदी और ओबीसी आरक्षण के साथ हिंदुत्ववादी ताकतों के उस राष्ट्रव्यापी आंदोलन के गवाह बने, जिसकी बुलंदी अयोध्या में पुरानी बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने में दिखी. जब यह सब कुछ भारत के भीतरी इलाकों में चल रहा था, तभी कश्मीर घाटी में मुस्लिम बहुसंख्या ने अपनी अमनपसंद छवि को तोड़कर केंद्र के खिलाफ बगावत छेड़ दी.
 
सियासी मुद्दों का फेरा  
पचास से लेकर '80 के दशक तक मुस्लिम सियासत उर्दू के इर्द-गिर्द घूमती थी लेकिन अंग्रेजी और हिंदी में पढ़ी एक पूरी पीढ़ी के आ जाने से यह मसला खत्म हो गया. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे का मामला भी अदालत में सरकार के कुबूलनामा पेश करने से खत्म हो गया. यह दुखती रग इस साल फिर छेड़ दी गई है क्योंकि उत्तर प्रदेश में अगले साल के शुरू में चुनाव होने वाले हैं. फिर, अस्सी के दशक को खंगालते हैं. उस वक्त बहस पर्सनल लॉ और शिक्षा, नौकरियों तथा राजनीति में आनुपातिक प्रतिनिधित्व की ओर मुड़ गई थी. यह इस कदर छिड़ी कि बीजेपी तुष्टीकरण का हल्ला करके ताकत पा गई. पर्सनल लॉ का मुद्दा तो सुलगता रहा और जब भी बीजेपी सत्ता में आती है यह मुद्दा लपटें पकडऩे लगता है. लेकिन तुष्टीकरण की बहस को एक ऐतिहासिक रिपोर्ट ने अपने इन नतीजों से बेमानी बना दिया कि ज्यादातर भारतीय मुसलमान घोर दुर्दशा में जी रहे हैं. न्यायमूर्ति राजेंद्र सच्चर कमेटी ने 2007 में सरकारी आंकड़ों से खुलासा किया कि मुसलमान हर क्षेत्र में हाशिए पर हैं.

मुसलमानों की हिस्सेदारी खासकर सरकारी तथा औपचारिक नौकरियों, स्कूल-विश्वविद्यालयों और राजनैतिक पदों पर काफी कम पाई गई. उनकी आमदनी दूसरे समूहों से कम है. बैंकों और दूसरे वित्तीय संस्थानों की मदद भी उन तक कम पहुंचती है. उनके बच्चे स्कूलों में कम साल गुजारते हैं और उनमें साक्षरता दर भी कम है. बेहद थोड़ी मात्रा में सेना या पुलिस बलों में पहुंच पाते हैं. शहरी इलाकों में सबसे बड़ी संख्या में करीब 46 फीसदी मुसलमान स्व-रोजगार पर निर्भर हैं. शहरों में सिर्फ 30.4 फीसदी मुसलमान ही वेतनभोगी नौकरियों में हैं, जो दूसरे समूहों के मुकाबले सबसे कम तादाद है.

अस्सी के दशक के आखिरी वर्षों तक आते-आते मुसलमान बंट गए. बकौल हसन सरूर, सियासी और मजहबी मामलों में उदार और सहिष्णु लोग ''अच्छे मुसलमान" कहलाए और दकियानूसी तथा कट्टर नजरिए वाले ''बुरे मुसलमान" हो गए. अब तक क्रिकेट भारत का राष्ट्रीय जुनून बन चुका था और ये बुरे मुसलमान पाकिस्तानी टीम का समर्थन करने लगे. खाड़ी देशों की अर्थव्यवस्था उछाल ले रही थी. सो, केरल, उत्तर प्रदेश, बिहार और देश के दूसरे हिस्सों में नई मस्जिदें आधुनिक साउंड सिस्टम के साथ बनने लगीं, जिनसे कुछ ऊंची आवाज में अजान दी जाने लगी. पहले वामपंथी पार्टियों और कांग्रेस को पसंद करने वाले वोटर खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में उभरी क्षेत्रीय पर्टियों की ओर झुकने लगे. मंडल आयोग ने पिछड़ी जातियों को नई पहचान दी और इन दो सबसे अधिक आबादी वाले राज्यों में दो अहम आंदोलनों को उभरते देखा गया. एक, अखिल भारतीय पिछड़ा मुसलमान मोर्चा और दूसरा, अखिल भारतीय पसमांदा मुस्लिम महाज.

त्रासदी भरे तीन दशक
ये गुजरे तीस साल वाकई कुछ ज्यादा ही त्रासदी भरे रहे हैं. सईद नकवी ने अपनी ताजा किताब में इन बदलावों पर विस्तार से चर्चा की है. उसमें कुछ भावुक वृत्तांत भी है, जब नकवी के अवध में साझा हिंदू-मुस्लिम या गंगा-जमुनी संस्कृति, शायरी, इतिहास, साझी रिहाइशों, साझा कहावतों-किंवदंतियों में बहती थी और एक आर्थिक संतुलन गरिमा और आभिजात्य की निशानी थी. हालांकि वही अवध उनके ही जीवन में भारी खून-खराबे वाले जंग के मैदान में तब्दील हो गया और बाबरी मस्जिद ढहा दी गई. बहरहाल, '80 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी के बाद उनका हिंदू एजेंडा खुलकर सामने आया, जिसमें सिखों को भी पराया माना जाने लगा. दुर्भाग्य से, उनके लिए यह अनहोनी साबित हुआ और वही उनकी दुखद मौत का कारण बना.

मगर विरोधाभास बने रहे. राजीव गांधी को लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक जनादेश मिला. कांग्रेस इस भुलावे में आ गई कि उसकी सिख विरोधी रणनीति कारगर साबित हुई. उसके बाद राजीव गांधी अति विरोधाभासी रणनीति पर आगे बढ़े, जो उसके पहले देश की राजनीति में नहीं देखी गई थी. उन्होंने पहले शाहबानो मामले और सलमान रुश्दी की किताब पर प्रतिबंध लगाकर मुस्लिम तुष्टीकरण की कोशिश की. फिर, वे दूसरी दिशा में चल पड़े और हिंदू वोट बैंक के लिए अपनी अयोध्या मुहिम शुरू की. इस दोतरफा रणनीति का कोई फायदा नहीं हुआ. राजीव गांधी का दुखद अंत हो गया. लेकिन सांप्रदायिक राजनैतिक एजेंडा जारी रहा. ऐसा लगता है कि तत्कालीन गृह मंत्री, प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता तथा बाद में प्रधानमंत्री बने अटल बिहारी वाजपेयी सबको आगे होने वाले (बाबरी मस्जिद) विध्वंस की जानकारी थी. सभी ने उस घटना के पहले ऐसे बयान दिए थे जिसमें आशंका जताई गई थी. दिलचस्प यह भी है कि उस त्रासद घटना के बाद जो एफआइआर दर्ज की गई, उसमें बीजेपी का नाम नहीं था, अजीब तौर पर पुलिस ने विध्वंस का आरोप बालासाहेब ठाकरे पर लगाया.

नई सहस्राब्दी में खुले नए मोर्चे

नई सहस्राद्ब्रदी की शुरुआत न्यूयॉर्क में 9/11 हमले की अशुभ घटना से हुई. भारत में भी आतंकवाद विरोध मुहिम शुरू हुई. कुछ साल तक मुसलमानों के लिए सबसे बड़ा मसला टाडा जैसे काले कानून के तहत गैर-कानूनी कैद और मनमानी गिरफ्तारियां बन गईं. सत्ता हासिल करने के लिए अवांछित लोगों के खिलाफ फर्जी मुठभेड़ और गैर-कानूनी कैद को औजार की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा. जेलों में मुस्लिम कैदियों की तादाद अनुपातिक तौर पर काफी ज्यादा हो गई है. पिछले दो साल से बीफ के मामले में गिरफ्तारियां एक और तरीका बन गई हैं. दिल्ली के पास गाजियाबाद के दादरी में एक मुस्लिम को भीड़ के सरेआम पीटकर मार डालने की घटना से पूरा देश और दुनिया सन्न रह गई.

आर्थिक प्रगति और मुसलमान
देश में आर्थिक सुधारों के बीस साल और कम से कम दस साल की तेज वृद्धि दर के बाद मुसलमान प्रति व्यक्ति आमदनी के हिसाब से सबसे कम में गुजर-बसर कर रहा है. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के मुताबिक, 2009-10 में किसी सिख परिवार का हर महीने औसत प्रति व्यक्ति खर्च 1,659 रु. था जबकि मुसलमान परिवार में 980 रु. था. हिंदू और ईसाई परिवारों के मामले में यह आंकड़ा क्रमशः 1,125 रु. और 1,543 रु. था. एनएसएसओ के आंकड़े यह भी बताते हैं कि शहरी भारतीय (प्रति माह औसत प्रति व्यक्ति खर्च 1,773 रु.) ग्रामीणों (प्रति माह औसत प्रति व्यक्ति खर्च 901 रु.) के मुकाबले लगभग दोगुने अमीर थे. लेकिन देश के ग्रामीण इलाकों में भी मुसलमान संपत्ति और खर्च की क्षमता के मामले में सबसे निचले पायदान पर थे. सिखों के पास खर्च क्षमता सबसे अधिक थी, जबकि हिंदू और ईसाई बीच में कहीं थे.

सिख और हिंदुओं के मुकाबले मुसलमानों की उच्च शिक्षा पाने की संभावना भी काफी कम है. एनएसएसओ की रिपोर्ट बताती है कि शहरी मुस्लिम लड़के-लड़कियों में बीच में पढ़ाई छोडऩे की दर सबसे अधिक है. उच्च शिक्षा में यह फर्क काफी बढ़ जाता है. हर 1,000 हिंदू लड़कों में से 30 एमए (स्नातकोत्तर) तक पहुंचते हैं जबकि हिंदू लड़कियों के मामले में यह अनुपात 32 का है. लेकिन हर 1,000 मुस्लिम लड़कों में सिर्फ 10 ही एमए तक पहुंच पाते हैं जबकि मुस्लिम लड़कियों के मामले में यह आंकड़ा महज 2 का है. ग्रामीण इलाकों में उन्हें सरकार की राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के तहत काम नहीं मिलता. 1999 से 2011 के बीच मुसलमानों की प्रति व्यक्ति आमदनी में मामूली फर्क ही आया. यह अनुसूचित जाति और जनजाति और पिछड़ी जातियों के मुकाबले भी आधा है.

जिन क्षेत्रों में प्रगति और वृद्धि से मुसलमानों को सबसे ज्यादा लाभ मिल सकता था, उनमें उस पैमाने पर तेजी नहीं आई जैसे तकनीक, दवा और दूसरे क्षेत्रों में भारी वृद्धि दिखी है. मसलन, हस्तकला की वस्तुओं का निर्यात 2015-16 में 17,000 करोड़ रु. से आगे पहुंच गया और 2020-21 तक यह 24,000 करोड़ रु. तक पहुंचेगा. यह क्षेत्र  2001-02 और 2011-12 के 11 वर्षों में करीब 5.3 फीसदी की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्घि दर से बढ़ा, जबकि इसी अवधि में कारखानों में बना सामान 9 फीसदी की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर से बढ़ा. इन वर्षों में देश के कुल निर्यात में हस्तकला की वस्तुओं का निर्यात काफी घटा है. 2001-02 में यह 4 फीसदी से  घटकर 2011-12 में 1 फीसदी से कुछ नीचे चला गया. देश का  हस्तकला उद्योग बिखरा-बिखरा है. देश के विभिन्न क्षेत्रों में 70 लाख से ज्यादा हस्त शिल्पकार हैं और उनकी वस्तुओं को देश-विदेश की बाजारों में पहुंचाने वाले 67,000 से अधिक निर्यातक/निर्यात घराने हैं.

सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के बाद मुसलमानों की हालत के आकलन के लिए प्रो. अमिताभ कुंडू की अगुआई में एक कमेटी बनी. कमेटी ने 2014 में बताया कि साक्षरता दर के मामले में हिंदू पिछड़ों (74 फीसदी) और ''सामान्य हिंदुओं'" (86 फीसदी) के मुकाबले मुसलमान (70 फीसदी)पीछे थे. सबसे चिंताजनक यह है कि एनएसएसओ के मुताबिक, 2004-05 और 2011-12 के बीच मुसलमानों की प्रति माह प्रति व्यक्ति खर्च क्षमता 60 फीसदी बढ़ी है जबकि यह हिंदू आदिवासियों में 69 फीसदी, हिंदू दलितों में 73 फीसदी, हिंदू पिछड़ों में 89 फीसदी और ''ऊंची जाति के हिंदुओं"  में 122 फीसदी बढ़ी. यह फर्क खासकर शहरी इलाकों में बढ़ता जा रहा है, जहां गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों में मुस्लिम पिछड़ों का अनुपात हिंदू दलितों से बढ़ता जा रहा है.

आरक्षण की दलीलें

संविधान कहता है कि आरक्षण सिर्फ सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को दिया जाएगा लेकिन मंडल आयोग की सिफारिशें जाति पर आधारित थीं. बड़ी संख्या में हिंदू जातियों को इसके दायरे में लाया गया जबकि गैर-हिंदू अल्पसंख्यक इससे बाहर रखे गए. जातियों को इस सूची में शामिल करने का तरीका बेहद पेचीदा और अपारदर्शी रहा है. इसके पैमाने कभी साफ नहीं हो पाए. यह इंदिरा साहनी मामले में निर्धारित किए गए दिशा-निर्देशों से भी जाहिर है. कई कानूनी विशेषज्ञों ने दलील दी कि अब वक्त आ गया है कि इस पैमाने की समीक्षा की जाए और समाज के सबसे वंचित तबकों को आरक्षण के दायरे में लाया जाए.

आरक्षण की नीति से बाहर होने के कारण मुसलमान पीछे छूट गए. एनएसएसओ के आंकड़े भी गवाही देते हैं कि हालांकि हिंदू पिछड़े 1999 में औसत लोगों से मामूली नीचे थे, अब उनकी स्थिति तकरीबन ऊंची जातियों के बराबर हो गई है. लेकिन पिछड़ों के बराबर रहने वाले मुसलमान काफी पीछे छूट गए हैं. उनकी हालत चालीस साल पहले औसत दर्जे की थी लेकिन वे सबसे, यहां तक कि एससी-एसटी से भी, नीचे पहुंच गए हैं. उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने भी सितंबर 2015 में कहा था, ''देश में सरकारी नीतियों केलिए श्रेणियां तय करने में संशोधन की जरूरत है, जिनसे मुसलमानों (अनुसूचित जाति का दर्जा) को दूर रखा गया या कुछ हद तक शामिल (ओबीसी की सूची में) किया गया है. उपलब्ध आंकड़ों से जाहिर होता है कि मुसलमानों की बड़ी संख्या इन दो बड़ी श्रेणियों में आती है."

अल्पसंख्यकों के संवैधानिक अधिकार
इन दिनों उन सरकारी कार्यक्रमों की संवैधानिकता पर बहस छिड़ी हुई है, जिनमें लाभार्थियों का चयन धर्म के आधार पर किया जाता है. कुछ लोगों की दलील है कि यह धर्म के आधार पर भेदभाव बरतने जैसा है. लेकिन बारीक अध्ययन से पता चलता है कि भारतीय संविधान धर्म के आधार पर लाभार्थियों के चयन की मनाही नहीं करता है. असल में संविधान में धर्म का जिक्र नस्ल, जाति, लिंग और जन्मस्थान की तरह ही किया गया है. जाति, लिंग और जन्मस्थान का इस्तेमाल सरकारी नीतियों के लाभार्थियों के चयन में उदारता के साथ किया जाता है. भारत में सामाजिक समूहों की विविधता और एकरूपता के मद्देनजर यह जरूरी है कि समान अवसर को बढ़ावा देने वाले सरकारी कार्यक्रमों के लाभार्थियों के चयन के लिए धर्म समेत विभिन्न श्रेणियां बनाई जाएं.

भारतीय संविधान सभी नागरिकों को श्समान दर्जा और अवसर्य दिलाने की बात करता है और सरकार को निर्देश देता है कि वह समान अवसर मुहैया कराने के लिए सक्रिय कदम उठाए. समता, समान अधिकार और समान अवसर की अवधारणा का अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 15 (शिक्षा का अधिकार) और अनुच्छेद 16 (रोजगार का अधिकार) का विस्तार से जिक्र है. अनुच्छेद 16 में सरकारी नौकरियों में समान अवसर की बात की गई है और  इसमें धर्म, नस्ल, जाति वगैरह के आधार पर भेदभाव बरतने की मनाही है. इसकी धारा-4 में सरकारी नियुक्तियों में ऐसे ''पिछड़े वर्ग" को आरक्षण देने का प्रावधान है जिसका सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व न हो. कौन-सा समूह और वर्ग ''पिछड़ा" है, इसका निर्धारण राज्य के जिम्मे है.

शहरीकरण से क्या फर्क?
मुसलमान शुरू से ही गांवों से अधिक शहरों में रहे हैं. 2001 में उनकी शहरी आबादी 17.3 फीसदी और ग्रामीण आबादी 12.5 फीसदी थी. इसी तरह 2011 में शहरों में 35 फीसदी मुसलमान रहते थे तो गांवों में 28.6 फीसदी थे. साथ ही, कुल मुस्लिम आबादी का 10 फीसदी 50 लाख से अधिक आबादी वाले महानगरों में रहता है. कुल मिलाकर शहरी भारत की आबादी 1981 में 23.7 फीसदी से 2011 में 31 फीसदी तक बढ़ी. इस दौरान शहरी इलाकों में मुस्लिम आबादी 34 फसदी से बढ़कर 39 फीसदी हो गई. इसका मतलब यह है कि आम आबादी का शहरीकरण 7.5 फीसदी हुआ तो मुसलमानों का शहरीकरण सिर्फ 5 फीसदी हुआ.

इसे कैसे समझ सकते हैं? कृषि संकट ने बड़ी संख्या में आम आबादी को गांवों से शहरों की ओर ठेला है लेकिन मुसलमानों के प्रवास को इसके जरिए नहीं समझा जा सकता. वजह यह है कि मुसलमान कुछ थोड़े से जिलों को छोड़कर खेत मालिक नहीं हैं. गांवों में गैर-कृषि रोजगार में मुसलमानों की हिस्सेदारी काफी अधिक है. सो, अधिक संभावना यही है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की खस्ताहाली की वजह से मुसलमान परिवार बड़ी संख्या में शहरी केंद्रों की ओर गए हो सकते हैं. हालांकि ऐसा होता नहीं दिख रहा है.

आंकड़े बताते हैं कि हमारे शहर अब अल्पसंख्यकों का स्वागत नहीं करते हैं. 2004 और 2011 की अवधि में शहरों में दलित आबादी में 1.4 फीसदी की बढ़ोतरी हुई जबकि मुसलमान 2.2 फीसदी बढ़े और ऊंची जाति के हिंदू 3.8 फीसदी बढ़े. छोटे शहरों में यह रुझान और साफ दिखा. तीसरे और चैथे दर्जे के शहरों में पिछले दशक में मुसलमान आबादी सिर्फ 0.2 फीसदी बढ़ी है जबकि कुल बढ़ोतरी इससे तकरीबन दस गुना ज्यादा है.

देश में दूसरा बदलाव खासकर पिछले तीन दशकों में ग्रामीण-शहरी बसावटों में हुआ इजाफा है. ये बसावटें किसी बड़े शहर के चारों ओर बड़ी बस्तियां हैं, जो न शहर हैं, न गांव. ये बस्तियां उन जमीनों पर बसी हैं, जो कभी खेत हुआ करते थे लेकिन अब खेती लायक नहीं रहे. बड़े शहरों के करीब होने से ऐसी जमीनों की कीमतें कई गुना बढ़ गई हैं. जिन लोगों ने अपनी जमीन बेची है, उनके पास नकदी तो है लेकिन उस पूंजी को किसी उत्पादक काम में लगाने का हुनर नहीं है.

शहरों में सबसे साफ दिखने वाला रोजगार के तौर-तरीकों में बदलाव है. वहां हम स्व-रोजगार में भारी गिरावट देखते हैं. मुसलमानों के मामले में यह गिरावट बाकी समूहों से अधिक तीखी दिखती है. नियमित रोजगार में बढ़ोतरी तो हुई है लेकिन उसमें एक खतरनाक रुझान दिखता है. मुसलमानों के लिए नियमित रोजगारों में ग्रामीण इलाकों में तेजी से वृद्धि हुई है, लेकिन शहरी इलाकों में वह बाकी समूहों से काफी पीछे है. हालांकि बड़े शहरों में मुसलमानों के मामले में अस्थायी रोजगारों में तेजी से वृद्धि हुई है.

शहरीकरण अब गरीबों के लिए काफी मुश्किल होता जा रहा है. किराए काफी महंगे हैं, घनी बस्तियां बेहिसाब बढ़ रही हैं और लचर कानून-व्यवस्था की वजह से जीवन लगातार असुरक्षित होता जा रहा है. दूसरी समस्या बेशक यह है कि शहरी रोजगार अब हुनरमंद लोगों की मांग करता है. दलित, आदिवासी और मुसलमान जैसे हाशिए के समुदायों के प्रवासी मजदूर अमूमन कोई हुनर नहीं जानते या बेमानी हो चुके हुनर में ही माहिर होते हैं. इसलिए वे हमारे शहरों के प्रतिकूल माहौल में और अलग-थलग महसूस करते हैं.

तो, क्या कोई भविष्य नहीं है? पिछले तीस साल में बिलाशक लोगों की जिंदगी सुधरी है और जीडीपी वृद्धि की लहर से भारत के अल्पसंख्यकों की जिंदगी में भी कुछ हरियाली आई है. लेकिन दलितों और मुसलमानों के मददगार बने चमड़ा और मांस निर्यात जैसे क्षेत्र देश में पाबंदियों की नई संस्कृति के शिकार हो रहे हैं. हालांकि प्राथमिक शिक्षा में सुधार, मजबूत निजी क्षेत्र के उभार और एक मध्यवर्ग के तैयार होने से अल्पसंख्यकों के लिए हालात कुछ बेहतर हुए हैं. देश में डिजिटल क्रांति, बिजली की आपूर्ति में सुधार और यातायात आसान होने से स्थितियां भी तेजी से सुधरेंगी और वंचितों को लाभ हो सकता है. हमारे लोकतंत्र में कानून का राज चलता है इसलिए बड़े अल्पसंख्यक समूह को धीरे-धीरे खासकर स्थानीय स्तर पर राजनैतिक शह मिलनी तय है. भारत भले फिलहाल थोड़े समय के लिए अतिवादी, अंतर्मुखी सोच के दक्षिणपंथी दौर से गुजर रहा है लेकिन इसके बाद मुसलमानों के लिए भी ''अच्छे दिन" आने वाले हैं.

(अबुसालेह शरीफ वाशिंगटन में यूएस इंडिया पॉलिसी इंस्टीट्यूट के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर हैं. आमिर उल्लाह खान नई दिल्ली में इक्विटास  कंसल्टिंग के डायरेक्टर, रिसर्च हैं)

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