
भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ विपक्ष के महाभियोग प्रस्ताव के नोटिस को पिछले दिनों राज्यसभा के सभापति उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने शुरूआती चरण में ही खारिज कर दिया. वैसे ये ऐसा पहला वाकया नहीं है. इससे पहले भी जजों के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव की विफल कोशिशें हो चुकी हैं.
पूर्व सरकारी अधिकारी ओपी गुप्ता की एक मुहिम के बाद मई 1970 में लोकसभा स्पीकर जीएस ढिल्लों को तत्कालीन न्यायाधीश जेसी शाह के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव सौंपा गया था. गुप्ता ने शाह पर तब बेईमानी का आरोप लगाया था, जब जज ने एक सुनवाई के दौरान उनके खिलाफ कुछ टिप्पणियां की थीं. बाहरहाल, स्पीकर ने नोटिस को 'महत्वहीन' करार देकर खारिज कर दिया था.सीजेआई मिश्रा और न्यायमूर्ति शाह के खिलाफ शुरुआती चरण में ही नोटिस खारिज होने के मामलों के अलावा एक अन्य ऐसा मामला है. जब राज्यसभा के 58 सदस्यों ने 2015 में गुजरात उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जेबी पारदीवाला के खिलाफ राज्यसभा के तत्कालीन सभापति हामिद अंसारी के समक्ष एक याचिका दी थी. जिसमें पारदीवाला पर आरक्षण के खिलाफ 'असंवैधानिक' टिप्पणी करने का आरोप था.
महाभियोग प्रस्ताव की संभावना देखते हुए न्यायमूर्ति पारदीवाला ने आरक्षण के खिलाफ अपनी टिप्पणियों को रिकॉर्ड से हटवा दिया था. उन्होंने पाटीदार नेता हार्दिक पटेल से जुड़े एक केस में आरक्षण के खिलाफ कथित टिप्पणी की थी. इसी वजह से उनके खिलाफ महाभियोग लाया जा रहा था. लेकिन बाद में पारदीवाला के खिलाफ महाभियोग के नोटिस पर आगे की कार्यवाही नहीं हो सकी.
संसद में न्यायाधीशों के खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही में प्रगति 1993 में पहली बार तब हुई थी जब उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश वी रामास्वामी को एक जांच आयोग की रिपोर्ट के बाद भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करना पड़ा था.
वरिष्ठ वकील और कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य कपिल सिब्बल ने उस वक्त लोकसभा में रामास्वामी का जोरदार बचाव किया था. गौरतलब है कि सीजेआई मिश्रा पर महाभियोग चलाने की मुहिम में सिब्बल अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं.
पी वी नरसिंह राव सरकार के दौरान लाया गया महाभियोग प्रस्ताव लोकसभा में विफल हो गया था, क्योंकि उसे संविधान के अनुच्छेद 124 (4) के तहत जरूरी सदन के दो-तिहाई सदस्यों का समर्थन प्राप्त नहीं हो पाया था.
न्यायमूर्ति रामास्वामी के अलावा 2011 में कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था. उन पर एक न्यायाधीश के रूप में वित्तीय गबन और गलत तथ्यों को पेश करने के आरोप थे. उनके खिलाफ लाया गया प्रस्ताव राज्यसभा में पारित हो गया और राज्यसभा में अपना बचाव करने वाले सेन को जब नतीजे का आभास हो गया तो लोकसभा में प्रस्ताव पर चर्चा से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया.
सिक्किम उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति पीडी दिनाकरन ने 2011 में महाभियोग की कार्यवाही शुरू होने से पहले ही इस्तीफा दे दिया था. उन्हें एक जांच समिति ने जमीन हड़पने, भ्रष्टाचार और न्यायिक पद का दुरुपयोग करने का दोषी पाया था. जब उन्होंने अवकाश पर जाने के आदेश का पालन नहीं किया तो कर्नाटक उच्च न्यायालय से उनका तबादला सिक्किम उच्च न्यायालय में कर दिया था.
साल 2016 में आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति नागार्जुन रेड्डी उस वक्त चर्चा में आए थे जब राज्यसभा के 61 सदस्यों ने एक 'दलित' न्यायाधीश को 'प्रताड़ित' करने के आरोप में उनके खिलाफ महाभियोग चलाने के लिये याचिका दी थी. बाद में राज्यसभा के उन 54 में से नौ सदस्यों ने अपने दस्तखत वापस ले लिए थे जिन्होंने उनके खिलाफ कार्यवाही शुरू करने का प्रस्ताव दिया था.
पिछले साल राज्यसभा द्वारा गठित एक समिति ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के एक सेवारत न्यायाधीश को एक न्यायिक अधिकारी के कथित यौन उत्पीड़न के मामले में छानबीन के बाद क्लीन चिट दे दी थी.
राज्यसभा के तत्कालीन सभापति हामिद अंसारी ने उच्चतम न्यायालय की न्यायाधीश आर भानुमती, न्यायमूर्ति मंजुला चेल्लूर और न्यायविद के के वेणुगोपाल की समिति अप्रैल 2015 में गठित की थी. न्यायमूर्ति एसके गंगेले पर महाभियोग चलाने को लेकर राज्यसभा के 58 सदस्यों की ओर से दिया गया प्रस्ताव स्वीकार करने के बाद अंसारी ने यह जांच कराई थी.