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खूबसूरत लेकिन खतरनाक, इस जासूस से हिटलर भी खाता था खौफ

दुनिया भर में जासूसी के इतिहास में नीदरलैंड की माता हारी की नाम सबसे ज्यादा मशहूर है, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि भारतीय मूल की नूर इनायत खान उनसे भी ज्यादा जांबाज जासूस थी.

नूर इनायत खान की दिलचस्प दास्तान नूर इनायत खान की दिलचस्प दास्तान
मुकेश कुमार
  • नई दिल्ली,
  • 11 अप्रैल 2017,
  • अपडेटेड 5:52 PM IST

भारत और पाकिस्तान के बीच एक बार फिर रिश्ते तल्ख हो गए हैं. जासूसी का आरोप लगाकर पाकिस्तान ने एक पूर्व भारतीय नौसैनिक कुलभूषण जाधव को मौत की सजा सुनाई है. इसके साथ ही पाकिस्तानियों का आरोप है कि उनके आर्मी अफसर ले. कर्नल मो. हबीब को भारतीय सुरक्षा एजेंसियों ने हिरासत में रखा है. बीते दिनों नेपाल में हबीब का गायब हो गए हैं. उन पर पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआईस के लिए जासूसी का आरोप है. आदिकाल से जासूसी होती रही है. इस काम में महिलाओं को सबसे परफेक्ट माना जाता है.

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दुनिया भर में जासूसी के इतिहास में नीदरलैंड की माता हारी की नाम सबसे ज्यादा मशहूर है, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि भारतीय मूल की नूर इनायत खान उनसे भी ज्यादा जांबाज जासूस थी. आलम ये था कि उनके नाम से दुनिया का सबसे बड़ा तानाशाह हिटलर भी खौफ खाता था. नूर मैसूर के महाराजा टीपू सुल्तान की वंशज थीं. नूर की जिंदगी पर एक किताब भी लिखी गई है, जिसका नाम 'द स्पाई प्रिसेंज: द लाइफ़ ऑफ़ नूर इनायत ख़ान' है. इसको श्राबणी बसु ने लिखा है. इसमें नूर के जाबांजी के कई किस्से लिखे हुए हैं.

हिंदुस्तानी थे पिता, मां अमेरिकी
हिन्दी न्यूज वेबसाइट बीबीसी के मुताबिक, नूर खान का जन्म 1914 में मॉस्को में हुआ था. उनकी परवरिश फ्रांस में हुई, लेकिन वह ब्रिटेन में रहीं. उनके पिता हिंदुस्तान से थे और सूफी मत को मानते थे. उनकी मां अमरीकन थीं. दूसरे विश्व युद्ध के समय से परिवार पेरिस में रहता था. जर्मनी के हमले के बाद उन लोगों ने देश छोड़ने का फैसला किया. नूर एक वालंटियर के तौर पर ब्रितानी सेना में शामिल हो गईं. वह उस देश की मदद करना चाहती थीं, जिसने उन्हें अपनाया था. उनका मकसद फासीवाद से लड़ना था.

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ब्रितानी सेना में बनी सीक्रेट एजेंट
महज तीन साल के भीतर 1943 में नूर ब्रितानी सेना की एक सीक्रेट एजेंट बन गईं. नूर एक सूफी थीं, इसलिए वे हिंसा पर यकीन नहीं करती थीं, लेकिन उन्हें मालूम था कि इस जंग को उन्हें लड़ना था. नूर की विचारधारा की वजह से उनके कई सहयोगी ऐसा सोचते थे कि उनका व्यक्ति खुफिया अभियानों के लिए उपयुक्त नहीं है. एक मौके पर तो उन्होंने यह भी कह दिया कि मैं झूठ नहीं बोल सकूंगी. ये बात किसी ऐसे सिक्रेट एजेंट की जिंदगी का हिस्सा नहीं हो सकती, जो अपना असली नाम तक का इस्तेमाल न करता हो.

ऐसे मिली खतरनाक जिम्मेदारी
नूर को जो जिम्मेदारी दी गई, वो बहुत खतरनाक किस्म की थी. नूर को एक रेडियो ऑपरेटर के तौर पर ट्रेन किया गया. जून, 1943 में उन्हें फ्रांस भेज दिया गया. इस तरह के अभियान में पकड़े जाने वाले लोगों को हमेशा के लिए बंधक बनाए जाने का खतरा रहता था. जर्मन सीक्रेट पुलिस 'गेस्टापो' इन इलेक्ट्रॉनिक सिग्नल्स की पहचान और इनके स्रोत को पकड़ सकती थी. उनकी ख़तरनाक भूमिका को देखते हुए लोग मानते थे कि फ्रांस में वह छह हफ्ते से अधिक जीवित नहीं रह पाएंगी. नूर के कई साथी जल्द ही गिरफ्तार कर लिए गए, लेकिन वह बच गईं.

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हट्टे-कट्टे पुलिसवालों को छकाया
जर्मन पुलिस की नाक के नीच नूर ने फ्रांस में अपना ऑपरेशन जारी रखा. अक्टूबर, 1943 में नूर धोखे का शिकार हो गईं. उनके किसी सहयोगी की बहन ने जर्मनों के सामने उनका राज जाहिर कर दिया. वह लड़की ईर्ष्या का शिकार हो गई थी, क्योंकि नूर हसीन थीं. हर कोई उन्हें पसंद करता था. इसके बाद जर्मन पुलिस ने उन्हें एक अपार्टमेंट से गिरफ्तार कर लिया. लेकिन नूर ने आसानी से सरेंडर नहीं किया. वह लड़ीं और छह हट्टे-कट्टे पुलिस अधिकारियों ने मिलकर उन्हें काबू में किया. भागने की कोशिश की लेकिन वे कामयाब नहीं हो पाईं.

30 साल की उम्र में हुई मौत
श्राबणी बसु ने लिखा है कि जर्मन एजेंटों ने ब्रितानी ऑपरेशन के बारे में जानकारी निकलवाने के लिए नूर को बहुत प्रताड़ित किया. लेकिन वे नूर का असली नाम तक नहीं पता कर पाए. उन्हें ये कभी पता नहीं लगा कि वे भारतीय मूल की थीं. कैदी के रूप में एक साल गुजारने के बाद उन्हें दक्षिणी जर्मनी के एक यातना शिविर में भेज दिया गया. वहां उन्हें नए सिरे से प्रताड़ित किया गया. नाज़ियों ने उन्हें तीन अन्य महिला जासूसों के साथ गोली मार दी. मौत के वक्त उनकी उम्र महज 30 साल थी. मौत के वक्त उन्होंने आजादी का नारा दिया था.

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