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गांव का एक लड़का अभावों की जिंदगी से छुटकारा पाने दिल्ली आया और फिर एक ऐसे जुर्म में लिप्त हो गया, जिसकी वजह से पूरा देश उससे नफरत करता है. जानिए आखिर कौन है वह और भारत के किस अंधेरे से वह इंडिया की चकाचौंध में आया था.
बारिश की बूंदें पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक छोटे से गांव में सुबह की शांति भंग कर रही हैं. सड़क पर कीचड़ इतना है कि चलना मुश्किल है. गांववाले घरों के भीतर हैं. इनमें ज्यादातर खेतिहर मजदूर हैं. लेकिन दूर से आती एक अपरिचित कार की आवाज ने उन्हें एक-एक करके बाहर खींच लिया. वे कार के पीछे हो लिए. आखिरकार कार फूस और ईंट से बने तथा पॉलिथीन से ढके कच्चे मकान के सामने रुकी. इस मकान ने उनके भूले-बिसरे गांव को रातोरात बदनाम कर दिया था.
पूरे गांव में सबसे लुटी-पिटी इस झोंपड़ी में ही वह नौजवान जन्मा था जो 16 दिसंबर के बर्बर बलात्कार और हत्या कांड में शामिल था. वह करीब 11 साल की उम्र तक यहीं पला-बढ़ा था. गांववाले उसका नाम भूरा बता रहे थे और उसके बारे में अलग-अलग तरह की बातें कर रहे थे. उसकी कद काठी, वजन और उम्र का ब्यौरा अलग-अलग था और आखिरी बार उसके गांव आने के बारे में अनुमान भी भिन्न थे. लहराती सफेद दाढ़ी वाले एक बुजुर्गवार सोचते हुए बोले, ‘‘बहुत दिनों से मैंने उसे देखा नहीं है,’’ मानो वे जवानी के किसी साथी को याद कर रहे हों. एक और सज्जन हिचकते हुए बोले, ‘‘कम-से-कम तीन चार साल तो हो गए, वैसे भूरा अच्छा लड़का था.’’
इस अच्छे लड़के को अब बाकी सारा देश बुराई का अवतार मानता है. टेलीविजन के परदे पर ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी में वह दिखाई देता है. पुलिसवाले उसे साथ लेकर चलते हैं. तो चेहरा तौलिये से ढंका रहता है. इस गैंग रेप का मुख्य अभियुक्त राम सिंह तो 11 मार्च को तिहाड़ जेल में रोशनदान के सरिये से फंदे में लटका मिला था. तब से वह लड़का ही इस खौफनाक जुर्म का प्रतिनिधि चेहरा है. शुरू में पुलिस ने उसे छह अभियुक्तों में सबसे जालिम बताया था और अब भारत उससे प्रतिशोध चाहता है. मांग हो रही है कि अदालतें नियम बदल दे, उसकी उम्र को नजरअंदाज कर मौत की सजा सुना दें. उसकी उम्र की सच्चाई को लेकर बहस हो रही है. किशोर अपराधी न्याय बोर्ड के बाहर जुटती भीड़ सवाल कर रही है कि ऐसा अपराध करने वाले 17 साल के उस लड़के को उसके वयस्क साथियों की तरह ही सजा क्यों न दी जाए. भूरा और अब मर चुके राम सिंह सहित छह के छह अभियुक्तों पर हत्या, बलात्कार और अप्राकृतिक सेक्स करने के आरोप हैं.
किशोर अपराधी के लिए अधिकतम सजा किसी सुधारगृह में तीन साल कैद की है जबकि बाकी अभियुक्तों को दोषी पाए जाने पर सात साल की कड़ी कैद से लेकर मौत की सजा तक हो सकती है. बचे हुए बाकी अभियुक्त हैं 28 साल का अक्षय कुमार सिंह, 26 साल का मुकेश, 19 साल का पवन कुमार और 20 साल का विनय शर्मा. इन चारों पर 5 फरवरी को साकेत में दिल्ली की फास्ट ट्रैक अदालत में मुकदमा शुरू हुआ. भूरे की सुनवाई किशोर अपराधी न्याय बोर्ड में 6 मार्च से शुरू होकर 5 जुलाई तक चली. फैसला 5 अगस्त तक सुरक्षित है.
पिछले चार महीने से भूरा किशोर अपराधी न्याय बोर्ड में पीड़िता के माता पिता-53 वर्षीय बद्रीनाथ सिंह और 46 वर्षीया आशा देवी-से सिर्फ आठ फुट दूर बैठता है, जिससे उनकी पीड़ा और लाचारी साफ झलकती है. उनकी 23 साल की फिजियोथेरेपिस्ट बेटी के साथ चलती बस में बसंत विहार फ्लाईओवर से दिल्ली गुडग़ांव एक्सप्रेस-वे पर महिपालपुर फ्लाइओवर के बीच बलात्कार हुआ और उसे बेरहमी से पीटा गया. विरोध में दिल्ली के इंडिया गेट पर दो हफ्ते तक लगातार धरना-प्रदर्शन हुए.
आशा देवी कहती हैं कि जब भी वे उस लड़के को देखती हैं तो जिंदगी के लिए छटपटाती बेटी की यादें ताजा हो जाती हैं. 29 दिसंबर को जब उसने सिंगापुर के एक अस्पताल में दम तोड़ा तो तत्काल न्याय की आवाजें तूफान बन गईं. बद्रीनाथ सिंह हताश स्वर में पूछते हैं, ‘‘इन्होंने जो कुछ किया सबके सामने है फिर भला फास्ट ट्रैक अदालत को इन्हें सजा देने में सात महीने से भी ज्यादा वक्त क्यों लग रहा है?’’ इस किशोर अपराधी का नाम लेते ही आशा की हल्की आवाज में जोर आ जाता है, ‘‘मैं तो चाहती हूं कि इन सारे राक्षसों को, उस लड़के को भी मौत दे दें.’’
वह लड़की आज नए, जागृत और उभरते भारत की तस्वीर बन चुकी है. एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार की उस बेटी ने उजले भविष्य का सपना देखने का अधिकार हासिल किया था जिसे सरेआम उससे छीन लिया गया. लेकिन यह लड़का भी उस भारत का प्रतीक है जहां मुफलिसी, बच्चों को घर छोड़कर काम की तलाश में शहर जाने को मजबूर करती है. उनके चारों तरफ आलीशान गाडिय़ां, 500 वर्ग गज के बंगले और एयरकंडीशंड दफ्तर हैं, पर वे अपने संपन्न पड़ोसियों के टुकड़ों पर गुजर करते हैं. शहरी भारत अपने खोल के भीतर जीता है, गरीबों की तादाद घटने और अवसर बढऩे की गुलाबी तस्वीरें खींचता है पर उसके भीतर गैर-बराबरी के फोड़े टीसते रहते हैं. भूरा बेशक पिछले 18 महीने से गलत सोहबत में था और इतने घृणित अपराध में शामिल हो गया, फिर भी यह सच कि वह हमारे युग की देन है-यह युग जितना त्रासद है उतना ही खौफनाक भी है.
परिवार की हालत
दो कमरे के छोटे से कच्चे मकान में भूरा की मां जिस चारपाई पर बैठी है उसे पड़ोसियों से मांग कर लाई है. उसका पति दिमागी मरीज है जो घुटनों में ठोढ़ी घुसाए चुपचाप सामने के दरवाजे के करीब दूसरी चारपाई पर बैठा रहता है या अनापशनाप बोलता रहता है. सात लोगों के इस परिवार में दो किशोर लड़कियां और तीन छोटे लड़के हैं जिन्हें दो दिन से भरपेट खाना नहीं मिला है. बारिश के कारण काम बंद है इसलिए आज भी पेट भरने की कोई उम्मीद नहीं है.
सबसे छोटा बेटा मुश्किल से तीन साल का होगा, वह भूख के मारे रो रहा है. मां बीच-बीच में उसे चुप कराने के लिए प्लास्टिक के गंदे से डिब्बे में से चुटकी भर चीनी चटा देती है लेकिन यही रफ्तार रही तो तीसरे पहर तक चीनी भी खत्म हो जाएगी. आटे का कनस्तर खाली है और अनाज रखने का मिट्टी का कुठार भी खाली है. कितने ही हफ्तों से सब्जी के दर्शन नहीं हुए हैं. उसने इंडिया टुडे को बताया, ‘‘जब काम मिलता है तभी खाना खा पाते हैं जब काम ही नहीं है तो खाएंगे कैसे.’’ उसकी दोनों बेटियां खेत पर मजदूरी से दिहाड़ी के 50 रु. कमाती हैं जबकि मर्दों को 200 रु. दिहाड़ी मिलती है. लड़कियां सोच रही हैं कि शाम को पड़ोसियों से कुछ रोटियां और चटनी मांगकर काम चलाया जाए. घर में एक ही चमकदार चीज है, वह है चमकीले कांच के ग्लासों का सेट जो एक पिरामिड पर सजा है जिसे बेटियों ने कुछ महीने पहले एक फेरी वाले से खरीदा था. उनमें से एक पिछले हफ्ते टूट गया. मां ने जबरदस्ती मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘काश! मैं आपको कुछ दे सकती, फिर भी मेरी जिंदगी में आपका स्वागत है.’’
भूरा की बात शुरू करते ही उसकी आंखों में आंसू आ गए. उसका यह पहला बच्चा 6-7 साल पहले घर छोड़कर चला गया था और बीच में बस दो बार कुछ दिन के लिए आया था. तीन साल पहले चाचा की शादी में गांव आया था. तब से उसे नहीं देखा है. दो साल पहले तक वह मां को पैसा भेजता था, कभी महीने में 500 रु. तो कभी ज्यादा. फिर पैसे आने बंद हो गए. मां बुरी तरह रोते हुए कहती है, ‘‘वह तो गायब हो गया था. जब तक पुलिस यहां नहीं आई मुझे उसका अता-पता तक मालूम नहीं था.’’
उसे याद नहीं भूरा कब पैदा हुआ था. बस इतना याद है कि बरसात के दिन थे. वह बताती है, ‘‘मौसम इन दिनों जैसा ही था, मेरे खयाल से अब 16 या 17 बरस का होगा.’’ गांव के एकमात्र प्राइमरी स्कूल के प्रिंसिपल ने किशोर अपराधी न्याय बोर्ड को बताया कि स्कूल के रिकॉर्ड के मुताबिक, अपराध के समय उसकी उम्र 17 साल 6 महीने थी. पुलिस की चार्जशीट में लगी रजिस्टर की फोटोकॉपी में उसकी उम्र की तारीख 4 जून 1995 थी. पर जन्म का कोई सही रिकॉर्ड न होने के कारण यह सबूत जरा कमजोर है. ग्राम प्रधान का कहना है, ‘‘पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता, हम अपने बच्चों को स्कूल ले जाते हैं और हेडमास्टर साइज के हिसाब से उनकी उम्र का अंदाजा लगा लेते हैं. यह महज अनुमान है.’’
लेकिन साइज के हिसाब से उम्र का यह अनुपात अब तक भूरा का साथ देता रहा है. गांव में जो लड़के अभी अपने को 20 साल के आसपास का बताते हैं कि भूरा उनसे श्बहुत छोटा्य था और 14-15 साल के बच्चे कहते हैं कि वह उनसे ‘‘थोड़ा बड़ा’’ था. इस तरह यह मामला असमंजस का है. जो भी जानकारी उपलब्ध है कम-से-कम उसके आधार पर मीडिया की यह खबरें गलत लगती हैं कि भूरा को बचाने के लिए उसकी उम्र में हेराफेरी की जा रही है.
भूरा की मां का कहना है, ‘‘मैं उसकी मां हूं, मैं तो चाहती हूं कि वह बाहर आ जाए. एक बार उसे माफ कर सकते हो. उसने दोबारा ऐसा कुछ किया तो मैं भी उसे माफ नहीं कर पाऊंगी. हमारे घर की हालत देखिए. कोई मदद करने वाला चाहिए. हमें घर में एक मर्द चाहिए.’’ भूरा की मां ने किशोर बंदीगृह में उससे मिलने की कोशिश भी की थी. उसने बदायूं जिले में पास के एक कस्बे से आनंद विहार टर्मिनल के लिए 180 रु. का बस का टिकट भी खरीदा था, जहां से उसे कुछ पुलिस वाले ले गए. लेकिन उसने बताया कि किशोर बंदीगृह के बाहर मीडिया की भीड़ के कारण उसे लौटा दिया गया. उसका कहना है, ‘‘मैं फिर जाना चाहती हूं लेकिन मेरे पास न पैसा है और न शरीर में ताकत बची है.’’ पर एक गैर-सरकारी संगठन के अधिकारी ने बताया कि वह अकसर सुनवाई के समय अदालत में मौजूद रहती है. उसके आने-जाने का खर्च बोर्ड देता है.
एक आम लड़का
भूरा पहली बार दिल्ली उसी बस से आया था जिससे सात बरस बाद उसकी मां जेल में उससे मिलने आई. पुलिस का कहना है कि उसने पहली नौकरी पूर्वी दिल्ली में त्रिलोकपुरी में गुलशन होटल नाम के ढाबे में की, जहां वह बर्तन धोता था. फिर कोंडली में एक दूधिये के पास नौकरी की और उसके बाद वैशाली, गाजियाबाद के करीब खोड़ा बाईपास के किनारे एक छोले भठूरे वाले के यहां काम किया. उसके बाद, घड़ौली डेयरी फार्म में बरकत ढाबे में काम करते हुए वह फिर परिवार से मिला. चार साल तक वह इस्लामुद्दीन के इस ढाबे में काम करता रहा. वहां वह खाना बनाने और सफाई के काम में हाथ बंटाता था और सीमित लेकिन नियमित ग्राहकों को खाना परोसा करता था.
बरकत होटल पुराने ढंग का ऐसा ढाबा है जिसे लोग देख कर पहचानते हैं, जो किसी नक्शे पर नहीं है और जिसके नाम का कोई बोर्ड भी नहीं है. लोग एक दूसरे से रास्ता पूछते हुए, मटन कोरमा, धीमी आंच पर पकी निहारी, और कीमा गुर्दे की खुशबू के सहारे ईंट-गारे के इस ढाबे तक पहुंच जाते हैं. पांच कदम बाद खुली रसोई के आगे 10 गुना 12 फुट का कमरा है जिसमें सात मेजें लगी हैं. 25 साल का रसोइया फखरुद्दीन 11 साल से यहां काम कर रहा है. उसने बताया कि भूरा छोटे भाई जैसा था.
फखरुद्दीन का कहना है, ‘‘वह जब पहली बार अपने मामू के साथ यहां आया तो छोटा-सा लड़का था. उसे काम की जरूरत थी क्योंकि परिवार की हालत बुरी थी. मालिक मामू को जानता था इसलिए फौरन लड़के को रख लिया.’’ अगले कुछ वर्ष तक भूरा उनके साथ घुल-मिलकर रहा. इस्लामुद्दीन के 18 साल के बेटे शाह आलम के चेहरे पर हमेशा मुस्कान रहती है. उसने बताया कि वह लड़का शायद सबसे अच्छा था. रोज सुबह जल्दी उठना, हमेशा साफ-सुथरा रहना, खूब मेहनत से काम करना और कभी शिकायत न करना उसकी आदत थी. भूरा ने 1,500 रु. से शुरुआत की थी और 2011 की गर्मियों में काम छोडऩे तक 3,500 रु. महीना कमा रहा था. तनख्वाह उसका मामू ले लेता था और उसके गांव भेज देता था.
उसके दिन ठीक-ठाक बीत रहे थे, दिनचर्या भी तय थी. भूरा और उसके साथी सुबह 8 बजे के आसपास जागते थे, बिस्तर समेटकर कमरा साफ करते थे, मेज लगाकर बर्तन धोते थे और ताजा गोश्त आने का इंतजार किया करते थे. 11 बजे के आसपास रसोई शुरू होती थी. फखरुद्दीन इंचार्ज था, भूरा प्याज काटने और मीट का मसाला तैयार करने में मदद करता था. फिर किसी एक चीज का जिम्मा संभाल लेता था. मिनट-मिनट में बताता था कि रंगत कैसे बदल रही है और कब चलाना है, इस बारे में निर्देश का पूरा पालन करता था. पहला ग्राहक 1 बजे के आसपास आता था और साढ़े 3 बजे तक ये सिलसिला जारी रहता. फिर वे शाम तक के लिए ढाबा बंद कर देते थे.
अगले तीन घंटे सोने, पड़ोसी नसीम कबाड़ी की दुकान पर टीवी देखने या आपस में गपशप में बीत जाते थे. अकसर अपने-अपने गांव में गुजरे दिनों की यादें ताजा होतीं. शाम साढ़े 6 बजे से रात के खाने की तैयारी शुरू हो जाती थी. फखरुद्दीन बताता है, श्श्वह कभी खाने या कपड़े किसी चीज की शिकायत नहीं करता था. हमारे अलावा पड़ोस में उसका कोई दोस्त भी नहीं था. उसके पास मोबाइल फोन नहीं था. क्रिकेट या फिल्मों का शौक भी नहीं था. कभी लड़कियों की बात नहीं करता था. वह आम लड़का था जो किसी तरह अपना गुजर-बसर करने की कोशिश कर रहा था. उसकी शख्सियत में ऐसी कोई बात नहीं थी जिससे लगे कि वह ऐसा कुछ करेगा जैसा उसने किया.’’ भूरा को नियमित रूप से समझने वाले गैर-सरकारी संगठन के कार्यकर्ता का तो यहां तक कहना है कि वह आज भी शराब, सिगरेट या ड्रग्स को हाथ तक नहीं लगाता.
बरकत ढाबे में करीब चार साल काम करने के बाद एक दिन भूरा ने इस्लामुद्दीन को बताया कि वह नोएडा में अपने चाचा के घर जा रहा है, पर उसके बाद वह लौटकर नहीं आया. शाह आलम कहते हैं, ‘‘वह अपने चाचा के घर गया ही नहीं. उसके चाचा कुछ दिन बाद उसकी तलाश में आए थे. वह यहां तीन जोड़े कपड़े और अन्य सामान छोड़ गया था. कुछ ही हफ्ते बाद उसकी मां भी आई थी. लेकिन हमें नहीं मालूम था कि वह आखिर गया कहां.’’ इस्लामुद्दीन, उसके कर्मचारी और स्क्रैप डीलर नसीम ने भूरा को बहुत ढूंढा. नसीम का कहना है, ‘‘किसी ने कहा कि उसे वसंत विहार में देखा है, तो हम उसकी तलाश में वहां भी गए. वह हम में से एक था. हम उसकी सलामती के बारे में निश्चिंत होना चाहते थे.’’
2012 के दिसंबर की शुरुआत में सामूहिक बलात्कार की घटना के कुछ हफ्ते पहले एक दिन अचानक उसका फोन आया. नसीम कहते हैं, ‘‘उसने एक अज्ञात नंबर से मुझे फोन किया और कहा कि मुझे शाह आलम से बात करनी है. लेकिन जब तक आलम आए लाइन कट चुकी थी.’’ उन्होंने उस नंबर पर कई बार बात करने की कोशिश की, पर हर बार यही जवाब मिला कि वह लड़का वहां नहीं है. ‘‘हमने वह नंबर उसके चाचा को दे दिया था. वह पुलिस में इस बात की शिकायत दर्ज कराने की सोच रहे थे. लेकिन पुलिस तक जाने से पहले ही बलात्कार की खबर सामने आ गई थी. कौन जाने उस दिन राम सिंह ने ही फोन किया हो या हो सकता है फोन करने वाला अन्य आरोपियों में से एक हो.’’
पुलिस अब कहती है कि भूरा ने 2011 में नोएडा में शिव ट्रैवल एजेंसी की बस में राम सिंह के साथ एक खलासी के रूप में कुछ महीने काम किया था. उसके बाद आठ महीने तक भूरा ने आनंद विहार टर्मिनल के सामने कौशांबी में ‘डग्गामार’ अवैध बस सर्विस में काम किया था. डग्गामार बस सेवा की बसें उत्तर प्रदेश में खुर्जा, सहारनपुर और मुरादाबाद के बीच चलती हैं और उनमें टिकट के नाम पर जरूरत से ज्यादा पैसा वसूला जाता है और कभी-कभी यात्रियों को लूट लिया जाता है. हक सेंटर फॉर चाइल्ड राइट्स के काउंसलर शाहनवाज का कहना है, ‘‘ये बसें उन बच्चों के लिए ब्रीडिंग ग्राउंड हैं जो जुर्म की दुनिया की ओर रुख कर लेते हैं.’’ उसके बाद वह रूट नंबर 33 पर चलने वाली भजनपुरा-नोएडा बस पर खलासी के रूप मे काम कर रहा था, लेकिन दुष्कर्म करने से दो सप्ताह पहले उसकी नौकरी छूट गई थी. इसी बीच वह अपने पुराने साथियों से बरकत ढाबे पर मिला था.
सजा-ए मौत के लिए उम्र कम?
मीडिया में आई रिपोर्ट के बावजूद साकेत फास्ट ट्रैक अदालत में दायर 576 पन्नों के आरोपपत्र में साफ लिखा है कि उस रात बस में मौजूद छह आरोपियों में सबसे क्रूर था मुख्य आरोपी राम सिंह. अपराध के समय बस में मौजूद पीड़ित के 28 वर्षीय दोस्त अवनींद्र प्रताप पांडे के बयान और आरोपियों के इकबालिया बयानों के अनुसार उस लड़के ने बलात्कार तो किया था. बाल अदालत में पेश 56 पेज का आरोपपत्र भी इसकी पुष्टि करता है. लड़के के खिलाफ अन्य साक्ष्यों में से एक है उसके कपड़ों पर पीड़ित के खून के धब्बों का पाया जाना. हालांकि फॉरेंसिक रिपोर्ट बस में उसकी उंगलियों के निशानों का साक्ष्य पेश करने में नाकाम रही. आशा देवी का कहना है, ‘‘मेरी बेटी ने विशेष रूप से उसका नाम नहीं लिया, लेकिन उसने कहा कि अपराध में सभी बराबर के भागीदार थे. वह सबसे क्रूर था या नहीं इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.’’
भूरा के लिए किशोर न्याय बोर्ड की ओर से सुधार संबंधी फैसला सुनाने से दो दिन पहले 23 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने ‘‘किशोर’’ शब्द की ताजा व्याख्या के लिए जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका मंजूर कर ली. स्वामी ने शीर्ष अदालत को बताया कि उनकी याचिका में यह बात रखी गई है कि किसी किशोर अपराधी की सजा का फैसला 18 वर्ष की आयु सीमा की कसौटी के बजाए उसकी ‘मानसिक और बौद्धिक परिपक्वता’ के मद्देनजर होना चाहिए. उनकी पेशकश पर गौर करते हुए चीफ जस्टिस पी. सदाशिवम और न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की पीठ 31 जुलाई को उनकी याचिका पर सुनवाई करेगी और इस सिलसिले में उनसे कहा है कि वे किशोर न्याय बोर्ड को सूचित कर दें कि सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका मंजूर कर ली है, इसलिए बोर्ड अभी थोड़ा इंतजार करे. इसी के मद्देनजर बोर्ड ने 5 अगस्त तक अपना फैसला टाल दिया है.
उधर सुप्रीम कोर्ट के वकील करुणा नंदी का कहना है कि 18 से कम उम्र के अपराधियों के प्रति अदालत के व्यवहार संबंधी निर्देश अच्छी तरह से सोच-विचार कर बनाए गए हैं. ‘‘वयस्क अपराध न्याय प्रणाली के विपरीत किशोर न्याय प्रणाली में कठोर दंड के लिए कोई जगह नहीं. मौत की सजा या कठोर सजा की बात नहीं उठनी चाहिए, क्योंकि अध्ययनों से पता चला है कि 18 से कम उम्र के लोग अपने आवेगों पर नियंत्रण करने या दबाव संभालने में असमर्थ होते हैं.’’
भूरा बाल सुधार गृह में अदालत के दिए गए निर्देशों का पालन करने के बाद बाहर आता भी है तो उसके सामने जिंदगी को ढर्रे पर लाने के लिए बहुत कम ठौर बचे होंगे. शाह आलम का कहना है कि वे उसे अपने ढाबे पर वापस काम नहीं दे सकते और न ही कोई और उसे काम पर रखना चाहेगा. भूरा के गांव के प्रधान, जो उसके स्कूल के बगल में एक छोटा सा केमिकल कारखाना चलाते हैं जिसकी पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर भूरा भाग गया था, टी-शर्ट और पैंट पहने एक प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठे हैं और उनके आसपास अन्य गांववासी भी बैठे हैं. वह हिरण के एक बच्चे को दुलार रहे हैं जो कुछ हफ्ते पहले उनके गांव में भटक कर आ गया था और कहते हैं कि वह भूरा को अपने इस गरीब ही सही लेकिन पवित्र गांव में नहीं आने देंगे. ‘‘आप किसी डकैत या मारपीट करने वाले को भी एक मौका दे सकते हैं, लेकिन उसने जो किया उसके बाद वह अपना मुंह न दिखाए तो ही बेहतर है. उसे फांसी की सजा हो या न हो, वह लड़का हमारे लिए मर चुका है.