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अर्थात्ः डुबाने की लत

देश में कॉर्पोरेट गवर्नेंस यानी कंपनी को चलाने के नियम कागजों पर दुनिया में सबसे सख्त होने के बावजूद घोटालों की झड़ी लगी है. कंपनियों के निदेशक मंडलों के कामकाज सिरे से अपारदर्शी हैं.

अर्थात् अर्थात्
अंशुमान तिवारी
  • नई दिल्ली,
  • 19 अगस्त 2019,
  • अपडेटेड 6:44 PM IST

इंडिगो की उड़ान में पूरे जतन से आवभगत में लगी एयर होस्टेस को अंदाजा नहीं होगा कि उनकी शानदार (अभी तक) कंपनी के निदेशक आपस में क्यों लड़ रहे हैं? सेबी किस बात की जांच कर रहा है? जेट एयरवेज के 20,000 से अधिक कर्मचारियों को यह समझ में नहीं आया कि उनकी कंपनी के मालिक या बोर्ड ने ऐसा क्या कर दिया जिससे कंपनी के साथ उनकी खुशियां भी डूब गईं. आम्रपाली से मकान खरीदने वालों को भी कहां मालूम था कि कंपनी किस कदर हेराफेरी कर रही थी!  

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सरकारी कंपनियों का कुप्रबंध, हमारी अकेली मुसीबत नहीं है. भारत अब चमकते ब्रान्ड और कंपनियों का कब्रिस्तान बन रहा है. सत्यम, एडीएजी (अनिल अंबानी समूह), वीडियोकॉन, सहारा, मोदीलुफ्त, रोटोमैक, जेपी समूह, नीरव मोदी, गीतांजलि जेम्स, जेट एयरवेज, किंगफिशर, यूनीटेक, आम्रपाली, आइएलऐंडएफएस, स्टर्लिंग बायोटेक, भूषण स्टील...यह सूची खासी लंबी हो सकती है...टाटा, फोर्टिस और इन्फोसिस के बोर्ड में विवादों या कैफे कॉफी डे में संकट से हुए नुक्सान (शेयर कीमत) को जोड़ने के बाद हमें अचानक महसूस होगा कि भारत के निजी प्रवर्तक तो कहीं ज्यादा बड़े आत्माघाती हैं.  

किसी कंपनी के प्रबंधन या खराब कॉर्पोरेट गवर्नेंस से हमें फर्क क्यों नहीं पड़ता? कंपनियों का बुरा प्रबंधन, किसी खराब सरकार जितना ही घातक है. सरकार को तो फिर भी बदला जा सकता है लेकिन कंपनियों के प्रबंधन को बदलना असंभव है.

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भारत में खराब कॉर्पोरेट गवर्नेंस से जितनी बड़ी कंपनियां डूबी हैं, या प्रवर्तकों के दंभ और गलतियों ने जितनी समृद्धि का विनाश (वेल्थ डिस्ट्रक्शन) किया है वह मंदी से होने वाले नुक्सान की तुलना में कमतर नहीं है.

दरअसल, यह तिहरा विनाश है.

एक—शेयर निवेशक अपनी पूंजी गंवाते हैं. जैसे, कुछ साल पहले तक दिग्गज (आरकॉम, वीडियोकॉन, यूनीटेक, वोडाफोन, सुजलॉन) कंपनियों के शेयर अब एक दो रुपए में मिल रहे हैं.

दो—इनमें बैंकों की पूंजी (पीएनबी-नीरव मोदी) डूबती है जो दरअसल आम लोगों की बचत है और

तीसरा—अचानक फटने वाली बेकारी जैसे जेट एयरवेज, आरकॉम, यूनीनॉर.

देश में कॉर्पोरेट गवर्नेंस यानी कंपनी को चलाने के नियम कागजों पर दुनिया में सबसे सख्त होने के बावजूद घोटालों की झड़ी लगी है. कंपनियों के निदेशक मंडलों के कामकाज सिरे से अपारदर्शी हैं. इन्हें ठीक करने का जिम्मा प्रवर्तकों पर है, जिनकी बोर्ड में तूती बोलती है. इंडिगो या फोर्टिस में विवाद के बाद ही इन कंपनियों में कॉर्पोरेट गवर्नेंस की कलई खुली. टाटा संस के बोर्ड ने सायरस मिस्त्री को शानदार चेयरमैन बताने के कुछ माह बाद ही हटा दिया. इन्फोसिस का निदेशक मंडल, कभी विशाल सिक्का तो कभी पूर्व प्रवर्तक नारायणमूर्ति का समर्थक बना और इस दौरान निवेशकों ने गहरी चोट खाई.

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वीडियोकॉन को गलत ढंग से कर्ज देने के बाद भी चंदा कोचर आइसीआइसीआइ में बनी रहीं. येस बैंक के एमडी सीईओ राणा कपूर को हटाना पड़ा या कि आइएलऐंडएफएस ने असंख्य सब्सिडियरी के जरिए पैसा घुमाया और बोर्ड सोता रहा. नजीरें और भी हैं. कंपनियों पर प्रवर्तकों के कब्जे के कारण स्वतंत्र निदेशक नाकारा हो जाते हैं, नियामक ऊंघते रहते हैं, किसी की जवाबदेही नहीं तय हो पाती और अचानक एक दिन कंपनी इतिहास बन जाती है.

भारतीय कंपनियों के प्रमोटर, पैसे और बैंक कर्ज के गलत इस्तेमाल के लिए कुख्यात हो रहे हैं. आम्रपाली के फोरेंसिक ऑडिट से ही यह पता चला कि मालिकों ने चपरासी और निचले कर्मचारियों के नाम से 27 से ज्यादा कंपनियां बनाई, जिनका इस्तेमाल हेराफेरी के लिए होता था. ताकतवर प्रमोटर, बैंक, रेटिंग एजेंसियों और ऑडिट के साथ मिलकर एक कार्टेल बनाते हैं जो तभी नजर आता है जब कंपनी कर्ज में चूकती या डूबती है जैसा कि आइएलऐंडएफएस में हुआ.  

प्रवर्तकों के दंभ और गलत फैसलों से हुए नुक्सान की सूची (जैसे टाटा नैनो, किंगफिशर) भी लंबी है. जल्द से जल्द बड़े हो जाने के लालच में भारतीय उद्यमी बैंक कर्ज और रसूख के सहारे ऐसे उद्योगों में उतर जाते हैं जहां न उनका तजुर्बा है, न जरूरत. मकान बनाते-बनाते आम्रपाली फिल्म बनाने लगी और अनिल अंबानी समूह वित्तीय सेवाएं चलाते-चलाते राफेल की मरम्मत का काम लेने लगे. पश्चिम की कंपनियां लंबे समय तक एक ही कारोबार में रहकर निवेशकों और उपभोक्ताओं को बेहतर रिटर्न व सेवाएं देती हैं जबकि भारत की 80 फीसद ‘ग्रेट’ कंपनियां पूंजी पर रिटर्न गंवाकर या कर्ज में फंस कर बहुत कम समय में औसत स्तर पर आ जाती हैं.

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कंपनियों में खराब गवर्नेंस से सरकारें क्यों फिक्रमंद होने लगीं? उन्हें तो इनसे मिलने वाले टैक्स या चुनावी चंदे से मतलब है. प्रवर्तकों का कुछ भी दांव पर होता ही नहीं. डूबते तो हैं रोजगार और बैंकों का कर्ज. मरती है बाजार में प्रतिस्पर्धा. जाहिर है कि इस नुक्सान से किसी नेता की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता.

अक्षम सरकार को पांच साल में बदला जा सकता है, लेकिन अक्षम कंपनियों के प्रबंधकों को बदलना असंभव होता है.

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