एक पखवाड़ा पहले 20 जनवरी को राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के नेता लालू प्रसाद यादव ने ऐलान किया था कि जीतन राम मांझी बिहार के मुख्यमंत्री बने रहेंगे. उन्होंने इन अटकलों पर विराम लगा दिया था कि राज्य के सत्ता शिखर से इस महादलित नेता को जल्द ही हटा दिया जाएगा. लेकिन अब लालू का रुख बदल चुका है. वे कह रहे हैं कि मांझी का मुख्यमंत्री बने रहना या न बने रहना जेडीयू का आंतरिक मामला है और इसलिए नीतीश कुमार इसका फैसला करेंगे और वह फैसला ले लिया गया है.
क्या है कहानी
राज्य में नेतृत्व परिवर्तन के बारे में अनौपचारिक चर्चाओं के बीच मांझी को लेकर लालू के रुख में आया बदलाव सबसे पुख्ता संकेत था कि मुख्यमंत्री के बतौर मांझी के कार्यकाल पर जल्द ही परदा गिर सकता था. पिछले हफ्ते दिल्ली में जेडीयू के अध्यक्ष शरद यादव के साथ लालू की अलग से बातचीत हुई थी. इसी बातचीत को उनके रुख में आए बदलाव की वजह बताया जा रहा है. माना गया कि शरद ने लालू को समझया कि मांझी के मुख्यमंत्री बने रहने पर अक्टूबर-नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनावों में गठबंधन की संभावनाओं को नुकसान ही होगा. लालू ने जिस तरह धीरे-से मांझी की पीठ से अपना हाथ हटाया है, उससे इस बात का भी इशारा मिलता है कि राज्य के समाजवादी गठबंधन में क्या कुछ चल रहा है और चीजें किधर जा रही हैं.
लालू के सामने दो ही विकल्प थे: या तो वे स्वभाव से नरम मांझी को और छह महीने शिखर पर बने रहने दें और चुनाव के बाद सत्ता में लौटने की कोई उम्मीद नहीं रखें या फिर स्वतंत्र विचारों वाले नीतीश कुमार को अभी मुख्यमंत्री बनाएं, राज्य में सुशासन स्थापित करें और फिर चुनाव में जीतकर दोबारा सत्ता में लौटने की उम्मीद करें. सरकार की बागडोर कुछ और वक्त मांझी के हाथों में सौंपे रखने का अर्थ राज्य में लालू-नीतीश गठबंधन के लिए आगे के रास्तों को बंद करना हो सकता था. चुनाव पर निगाह रखते हुए लालू ने बेहतर संभावनाओं को आजमाने का फैसला किया.
बने रहने की कवायद
बीजेपी के हमले से अपनी खिसकती हुई सियासी जमीन को बचाने के लिए नीतीश और लालू दोनों अब एक-दूसरे पर निर्भर हैं. जून 2013 में बीजेपी से रिश्ता टूटने बाद जेडीयू की सरकार बागियों के भितरघात से अपने को बचाकर टिकी रही, तो यह लालू के समर्थन से ही मुमकिन हो सका है. इसी तरह 2005 के विधानसभा चुनावों के बाद लगातार पांच चुनाव हारने के बावजूद लालू अगर अपने सियासी भविष्य को लेकर भरोसेमंद हैं, तो यह नीतीश कुमार के सहयोग के बूते ही है. इसी ने राज्य के सियासी केंद्र में लौटने की लालू की उम्मीदों को जिंदा रखा है.
मांझी को मुख्यमंत्री बनाते वक्त यह तय किया गया था कि वे विधानसभा चुनावों तक पद पर बने रहेंगे, पर चुनाव नीतीश के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा. लेकिन जब माना गया कि मांझी सुशासन नहीं दे पा रहे हैं और इसे लेकर पार्टी के भीतर बेचैनी बढऩे लगी, तब जेडीयू ने अपनी रणनीति बदलने का फैसला किया. बीजेपी की आक्रामक बढ़त का मुकाबला कर रही पार्टी कोई जोखिम नहीं लेना चाहती. जेडीयू के एक मंत्री कहते हैं, 'यदि अगला चुनाव नीतीश के नेतृत्व में ही लड़ा जाना है, तो बेहतर होगा कि वे मांझी की जगह ले लें. आशंका जरूर है कि मांझी को हटाने पर महादलित वोटों का एक हिस्सा जेडीयू के खिलाफ जा सकता है. बीजेपी भी अपनी रोटियां सेंकने से बाज नहीं आएगी. वह मांझी को उत्पीड़ित महादलित नेता के तौर पर खड़ा करने की कोशिश कर सकती है.'
मांझी के सियासी मंसूबों को लेकर आरजेडी और जेडीयू के कुछ हिस्सों में गहरा शक किया जा रहा था. जब नीतीश-लालू अपने झगड़ों को दफना भविष्य की रणनीति बनाने में लगे थे, तब मांझी कभी नरेंद्र मोदी की तारीफ करके और कभी राज्य में दलित को मुख्यमंत्री बनाने की पैरवी करके गठबंधन में बेचैनी पैदा कर रहे थे. वैसे जेडीयू नेताओं ने दलित मुख्यमंत्री की दलील पर सवाल खड़े नहीं किए, पर लालू ने मांझी की बात को यह कहकर खारिज कर दिया कि सिर्फ जनता ही तय करेगी कि अगला मुख्यमंत्री कौन होगा?
पहले ही हो गया था फैसला
लालू को भरोसे में लेने के बाद जेडीयू जाहिर तौर पर बहुत आसान और निर्विघ्न नेतृत्व परिवर्तन चाहता है. पार्टी सूत्रों के मुताबिक शरद यादव शायद मांझी से पहले ही बात कर चुके थे कि वे नीतीश को मुख्यमंत्री बनाने के लिए पद से हट जाएं. मांझी ने 4 फरवरी को शरद से मुलाकात की थी. हालांकि वैकल्पिक योजना के तौर पर दोनों पार्टियों के नेता मांझी के बगावती रुख अख्तियार करने की हालत में संभावित नुकसान का अंदाज लगाने की कोशिश कर रहे थे. अलबत्ता मांझी नेतृत्व की बात मानकर अपने पद को छोड़ने के लिए तैयार दिखाई नहीं दिए. उनके समर्थक नीतीश समर्थकों को इस बात के लिए दोषी ठहराते हैं कि वे विधानसभा चुनावों तक मांझी को सरकार चलाने देने के वादे से मुकर रहे हैं. 4 फरवरी को नीतीश ने जब पार्टी के लोकसभा उम्मीदवारों को अपने निवास पर संबोधित किया, तो मांझी उस बैठक में नहीं गए. मांझी ने गया से लोकसभा चुनाव लड़ा था और हार गए थे. इस नाते उनसे भी उस बैठक में मौजूद होने की उम्मीद की जा रही थी. जाहिर तौर पर वहां न जाकर उन्होंने अपना विरोध ही प्रदर्शित किया.
जेडीयू के प्रदेश अध्यक्ष बशिष्ठ नारायण सिंह ने हाल ही में कहा था कि मांझी और उनके मंत्रियों के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा. उन्होंने यह सलाह भी दी थी कि मांझी को अपने मंत्रिमंडल के साथियों के साथ सुलह कायम करनी चाहिए. यह इस बात का इशारा था कि उनकी सरकार का मूल्यांकन करते हुए पार्टी मांझी की ही गलती मानती है. नारायण के बयान के एक दिन पहले ही मांझी ने कहा था कि वे खुद अपने कैबिनेट मंत्री ललन सिंह के कामकाज से संतुष्ट नहीं हैं. उन्होंने इसी वजह से सड़क निर्माण विभाग के सचिव का तबादला करने की बात भी कही थी. इससे पहले दो मंत्रियों ललन सिंह और पी. के. शाही ने मुख्य सचिव को चिट्ठी लिखकर आइएएस अफसरों के तबादले के तरीके पर सवाल उठाए थे. इस चिट्ठी के बाद भी मांझी के जिद्दी रवैए में बदलाव नहीं आया और उन्होंने दलील दी कि अफसरों का तबादला करने का उन्हें पूरा अधिकार है.
मांझी की सरकार में दरार और गहरी हो गई थी. कई मंत्री मुख्यमंत्री के खिलाफ विरोध दर्ज करने में हिचकिचा नहीं रहे थे. मुख्यमंत्री के गणतंत्र दिवस मिलन समारोह में केवल चार मंत्री पहुंचे. इससे पहले खाद्य और उपभोक्ता संरक्षण मंत्री श्याम रजक ने अपनी ओर से दी दावत में मांझी और उनके वफादारों को झिड़कते हुए सिर्फ नीतीश के करीबी मंत्रियों को ही बुलाया था. जनवरी में जब मांझी सहकारिता मंत्री जय कुमार सिंह की दावत में शामिल हुए, तब उनके करीब दर्जन भर मंत्री अलग कमरे में बैठे रहे और मांझी के साथ दुआ-सलाम के लिए बाहर तक नहीं आए थे.
पार्टी के एक अंदरूनी शख्स ने कुछ दिन पहले बताया था, 'जब पार्टी का हर पदाधिकारी नीतीश से मुख्यमंत्री के तौर पर लौटने की गुजारिश करता है, तो वे सिर्फ मुस्करा देते हैं.' जेडीयू अध्यक्ष शरद यादव भी नीतीश के निवास पर हुई बैठक में मौजूद थे. उन्होंने भी मांझी के भविष्य के बारे में कुछ कहने से यह कहकर इनकार कर दिया था, 'यह फालतू सवाल है, मुझे कुछ नहीं कहना है.' जब उन्होंने यह बात कही थी, शायद उस समय तक फैसला लिया जा चुका था!