इराक के सुन्नी आतंकी गुट इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक ऐंड अल-शाम (आइएसआइएस) की सफलता स्तब्ध करने वाली है. 2003 में इराक में अल-कायदा के रूप में शुरुआत करने वाले गुट ने हफ्ते भर से भी कम समय में इराक के एक-तिहाई हिस्से पर कब्जा करके अमेरिका को भी हैरान कर दिया.
वहां आइएसआइएस की क्षमता को कम करके आंकना अब बड़ा राजनैतिक मुद्दा बन गया है. लेकिन अल-कायदा तो अमेरिका को एक दशक से झांसा देता रहा है क्योंकि राजनैतिक हस्तक्षेप से खुफिया व्यवस्था तार-तार हो जाती है. इराक की तबाही के खेल में अंततरू ईरान ही विजयी होगा.
2003 में अमेरिकी और ब्रिटिश हमले से पहले देश में अल-कायदा का नामोनिशान नहीं था. वहां सिर्फ अहमद फादिल अल-खलायीलाह उर्फ अबू मुसाब अल-जरकावी था, जो उस संगठन का संस्थापक था जिसे आज आइएसआइएस कहा जा रहा है. अल-जरकावी जॉर्डन का एक छोटा-मोटा सरगना था, जो 2001 में हमले की तैयारी के लिए अफगानिस्तान से आया था.
उसने अपने संगठन के लिए सुन्नी उग्रवादियों की भर्ती कर 2002 में तैयारी शुरू की. तब से अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने लड़ाई से पहले ही हमले की योजना की घोषणा कर दी थी. इससे अल-जरकावी को जाल फैलाने और युद्ध के बाद हमला करने के लिए रंगरूट भर्ती करने का मौका मिल गया. इसके बाद अल-जरकावी ने बगदाद में संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय को उड़ाया और विदेशियों को वहां से भागने के लिए बाध्य किया. अमेरिकियों और ब्रिटिश निवासियों को वहां से हटाने के बाद अल-जरकावी ने देश को गृह युद्ध में धकेल दिया.
सीरिया की तबाही से फलता-फूलता आइएसआइएसबुश और उनके सहयोगी जानते थे कि अल-जरकावी युद्ध से पहले इराक में मौजूद था, लेकिन वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि वह वहां क्या कर रहा था. तत्कालीन विदेश मंत्री कोलीन पॉवेल ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपने प्रसिद्ध भाषण में दर्जनों बार अल-जरकावी का जिक्र करते हुए कहा कि उसकी मौजूदगी दर्शाती है कि सद्दाम हुसैन और अल-कायदा में संबंध है. यह बड़ा झूठ था. अमेरिका का खुफिया तंत्र जानता था कि 9/11 हमले और ओसामा बिन लादेन से इराक का कोई लेना-देना नहीं था.
असल में ओसामा बिन लादेन तो 9/11 हमले से पहले ही अल-जरकावी की जॉर्डन की पृष्ठभूमि को लेकर सशंकित था और उससे हमेशा हाथ भर की दूरी बनाए रखता था. बिन लादेन ने उसे 2000 में कुछ समय के लिए पश्चिमी अफगानिस्तान से निष्कासित कर दिया था क्योंकि उसकी वफादारी पर उसे शक था. इसके अलावा शिया समुदाय के प्रति खूंखार हिंसा भी लादेन को पसंद नहीं थी. लेकिन इराक युद्ध शुरू होने के बाद बिन लादेन उसकी क्षमता को महत्व देने लगा था.
2006 में बुश अल-जरकावी के शैतानी साम्राज्य को खत्म कर देना चाहते थे. अल-जरकावी और उसका पहला उत्तराधिकारी तो मारा गया, लेकिन गुट को छिन्न-भिन्न करने और सुन्नी कबीलों की वफादारी हासिल करने से सुन्नी आतंकी और उग्र हो गए. अच्छा प्रशासन ही अल-कायदा को खत्म कर सकता था, लेकिन सद्दाम के बाद इराक में वह संभव नहीं हो पाया. न अपने आप और न ही अमेरिका की मदद से.
इराक की राजनीति वर्ग-समुदाय के भेद से ऊपर नहीं उठ सकी. न ही वे आपस में लडऩा छोड़ पाए. उन्हें इस बात की परवाह नहीं थी कि अमेरिका उनसे क्या अपेक्षा कर रहा है और क्या चाहता है. लेकिन अमेरिका आश्वस्त था कि इराक का अल-कायदा हारा हुआ संगठन है और हमला एकदम सफल रहा. सीरिया की लड़ाई आइएसआइएस के लिए एक तोहफा साबित हुई. पहले तो उसने इराक में अपने एजेंट के तौर पर अल-नुसरा का गठन किया.
अल-नुसरा को अल-जरकावी के पूर्व सहायक मुहम्मद अल गोलानी के नेतृत्व में एक स्वतंत्र पार्टी के रूप में पेश किया जा सकता था. तब आइएसआइएस ने मांग की कि नुसरा को यह कबूल कर लेना चाहिए कि उसकी वफादारी बिन लादेन के उत्तराधिकारी अयमान अल-जवाहिरी की बजाए आइएसआइएस नेता अबू बकर अल-बगदादी के प्रति रहेगी.
विडंबना यह कि अल-जवाहिरी ने बिन लादेन को बहुत पहले ही उसके भविष्य के प्रति चेता दिया था. अपने अंतिम समय में जब बिन लादेन पाकिस्तान में छिपा था तो वह अल-जवाहिरी से कहता था कि जॉर्डन के आतंकी और उसके इराकी गुट के बारे में उसकी राय सही थी. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी.
एक अन्य छद्म नामधारी अल-बगदादी महत्वाकांक्षी शख्स है. वह अपने बारे में रहस्य बनाए रखने में सफल रहा है. अल-जरकावी जिस शोहरत के पीछे दीवाना था, उससे वह दूर रहता है. वह अल-कायदा के पुराने नेतृत्व को भी खारिज करता है क्योंकि वह सामुदायिक नफरत भड़काने का इच्छुक नहीं है. उसके समर्थक दुनिया भर में जिहाद के लिए अल-बगदादी को बिन लादेन का असली उत्तराधिकारी बनाने के लिए अभियान चलाना चाहते हैं.
इराक के दूसरे शहर मोसूल पर कब्जा करने से पहले आइएसआइएस ने इराक के अंबार और सीरिया के रक्का प्रांत पर कब्जा कर लिया था. वहां वह तालिबान शैली में कट्टर इस्लाम लागू करता है. मोसूल पर कब्जा बड़ी उपलब्धि रही क्योंकि प्राचीन शहर होने के कारण इसका प्रतीकात्मक असर है.
आइएसआइएस ने मोसूल के बैंकों से 400 अरब डॉलर से ज्यादा की रकम लूटी और दुनिया का सबसे अमीर आतंकी गुट बन गया. आइएसआइएस कारगर तरीके से अरब दुनिया के बीचोबीच सीरियाई रेगिस्तान में अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है और उस्मानिया साम्राज्य के पतन के बाद एक सदी पहले ब्रिटेन और फ्रांस की बनाई सीमाएं मिटा रहा है.
अल-जरकावी की तरह अल-बगदादी भी महत्वाकांक्षी है. पिछले महीने सऊदी अरब ने हमले की आइएसआइएस की योजना को नाकाम कर दिया था. आइएसआइएस ने सीरिया में लड़ाई के लिए हजारों विदेशी लड़ाकों की भर्ती की है. संभवतः आइएसआइएस ने फ्रांसीसी मुसलमानों को प्रशिक्षित किया था. उन्होंने मई में ब्रसेल्स के यहूदी संग्रहालय पर हमला किया, जिसमें चार लोग मारे गए थे.
आइएसआइएस के नाटकीय हमले से जितना हैरान इराक था, उतनी ही बाकी दुनिया भी. हमले के बाद इराकी सेना को मोसूल और तिकरित से हटना पड़ा और सुन्नी आतंकवादी बगदाद सीमा तक पहुंच गए. ईरान की खुफिया एजेंसियों ने भी आइएसआइएस की ताकत को कम करके आंका था. लेकिन इराक में ईरान का पलड़ा भौगोलिक, ऐतिहासिक और जनसंख्या की लिहाज से भारी है.
आखिर करीब 65 प्रतिशत शिया आबादी जो है. इसके अलावा पड़ोसी होने की वजह से ईरान आसानी से अपने सलाहकार, विशेषज्ञ और फौज बगदाद या इराक के दूसरे शहरों में भेज सकता है और वह भी बिना किसी सुगबुगाहट के. खबर है कि ईरान के रेवोल्यूशनरी गाड्र्स के कमांडर कासिम सुलेमानी बगदाद पहुंच चुके हैं. इससे इसी बात की पुष्टि होती है कि तेहरान कितनी फुर्ती से कार्रवाई करता है और मालिकी सरकार से किस कदर जुड़ा है.
असर बढ़ाने का ऐतिहासिक अवसरतेहरान इराक के 65 प्रतिशत शियाओं को उग्रवादियों से लडऩे के लिए उकसा रहा है. ईरान के लिए दुनिया में अरब शियाओं की सबसे बड़ी आबादी पर अपने दबदबे का विस्तार करने का यह एक ऐतिहासिक मौका है. ईरान की मिनिस्ट्री ऑफ इंटेलीजेंस ऐंड सिक्योरिटी (एमओआइएस)में दूसरे नंबर के मंत्री का कहना है, “इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान एक शेर की तरह है, जिसके साथ आइएसआइएस आतंकवादी खिलवाड़ नहीं कर सकते. सीरिया में ईरान के हाथों जो हश्र हुआ, वैसा ही इराक में भी होगा.”
ईरान के लोग इराक में आइएसआइएस और अल-कायदा की मजबूती के लिए 2003 में अमेरिका और ब्रिटेन के हमले को दोषी ठहराते हैं, जबकि विडंबना यह है कि जॉर्ज बुश के हमले से सबसे बड़ा फायदा ईरान को ही हुआ है. इस युद्ध से ईरान के कट्टर शत्रु सद्दाम हुसैन का अंत हुआ, जिसने इस इस्लामी गणराज्य पर आठ साल तक ईरान-इराक युद्ध थोपे रखा था.
इराक की क्षेत्रीय अखंडता और इसे एक देश के रूप बनाए रखने के लिए ईरान जबानी जमा खर्च ही करेगा क्योंकि शिया, कुर्द और सुन्नी में बंटा इराक एक मजबूत देश की तुलना में ईरान के लिए अधिक फायदेमंद होगा. भले शियाओं का पलड़ा भारी हो पर वे तेहरान पर निर्भर रहेंगे.
तेहरान अमेरिका की तरह मदद के बदले शियाओं और इराक के दूसरे समुदायों के साथ सत्ता में हिस्सेदारी की मांग नहीं रख रहा. तेहरान को मजबूत शिया चाहिए, लोकतंत्र नहीं.
बेशक अल-बगदादी ने ईरान के हितों के लिए इराक पर हमला नहीं बोला था. लेकिन एक दशक पहले अपने गुरु अबू मुसाब अल-जरकावी की सामुदायिक हिंसा की तरह ही इससे अंततः ईरान को ही लाभ होगा. इस बीच इराक का यह क्षेत्र सांप्रदायिक नफरत की आग में जल रहा है, जिसे भड़काना बेहद आसान है लेकिन रोकना असंभव.
ब्रूस रिडेल ब्रूकिंग्स इंटेलीजेंस प्रोजेक्ट के डायरेक्टर हैं. उनकी नई पुस्तक व्हॉट वी वनः अमेरिकाज सीक्रेट वॉर इन अफगानिस्तान 1979-1989, जुलाई में प्रकाशित होगी.