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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बहुप्रचारित स्वच्छता अभियान के साथ ही साफ-सफाई की मौजूदा स्थिति, जरूरत और परिभाषाओं पर चर्चाएं शुरू हो गई हैं. दिल्ली की ऐतिहासिक महत्व वाली वाल्मीकि बस्ती में झाड़ू लगाकर प्रधानमंत्री ने स्वयं इस अभियान की अगुवाई की. मुख्तलिफ महकमों के मंत्री और नेता भी झाड़ू लिए सार्वजनिक जगहों पर सफाई का नारा बुलंद कर रहे हैं. करीब 60 हजार करोड़ रुपये के बजट से देश को गंदगी मुक्त बनाने और हर नागरिक को शौचालय उपलब्ध कराने की बात कही जा रही है. जापान और अमेरिका के स्मार्ट शहरों का सपना भारतीय मध्यवर्ग की आंखों में उतर आया है. कैमरे के फ्लैश चमक रहे हैं.
लेकिन क्या यह अभियान वाकई वैसी सफाई करेगा, जिसकी जरूरत भारत को है? क्या सड़कों की सफाई ही असल सफाई है? अगर सरकार नागरिकों में अपने आस-पास को साफ रखने की एक सामूहिक चेतना को रोपना चाहती है, तो इसमें बुरा क्या है? पर्यावरण के नजरिये से यह स्वच्छता अभियान कोई विशेष अहमियत रखता है या नहीं? या गंदगी मुक्त भारत 'गरीबी मुक्त भारत' जैसा ही एक बिना एक्सपायरी डेट वाला सपना है? तमाम सीमाओं के बावजूद इसे एक जरूरी पहल मानने में हर्ज ही क्या है? ये सारे सवाल तब और भी मौजूं हो जाते हैं, जब हम इस तथ्य से भी अनजान हैं कि हमारे देश में कुल कितना मैला पानी पैदा होता है.
शर्मिंदगी है इस अभियान की बुनियाद?
सोपान जोशी पर्यावरण के क्षेत्र में लंबे समय से सक्रिय पत्रकार हैं. भारत में सैनिटेशन की स्थिति पर उनकी किताब 'जल, थल और मल' कुछ महीनों में रिलीज होने वाली है. सफाई और इस स्वच्छता अभियान को देखने का उनका नजरिया तथ्यों पर आधारित है और बेहद दिलचस्प है. वह इस अभियान के मूल में गंदगी के प्रति शर्मिंदगी का भाव देखते हैं और शुरुआती स्तर पर इसे 'लीपा-पोती' ही ज्यादा मानते हैं. उनके मुताबिक, 'गांव का कोई शख्स शहर में जाकर समृद्ध हुए अपने रिश्तेदार के पास जाने में जैसी शर्म महसूस करता है, यह वैसा है. सड़क पर चलते हुए गंदगी नहीं दिखनी चाहिए, वरना बेइज्जती हो जाएगी. यानी दिखने से गंदा लग रहा, वाला भाव है. इसमें अपने लोगों का हाल-चाल जानने की भावना नहीं है.'
सोपान कहते हैं कि फौरी तौर पर उन्हें यह अभियान की एक किस्म की 'लीपा पोती' ज्यादा लगता है. वह कहते हैं, 'सिर्फ बीजेपी की बात नहीं है. लीपापोती सरकारी स्वभाव में ही आ गई है. दरअसल सार्वजनिक जगहों को हमने अपना मानना बंद कर दिया है. स्वयं को समाज की तरह मानने जैसी प्रवृत्ति नहीं दिखती. इस अभियान से कुछ हासिल हो जाए तो बहुत अच्छी बात है. लेकिन वह तब माना जाएगा, जब सिद्ध हो जाएगा. स्वच्छ भारत बनाएंगे, ऐसा कहने से भारत स्वच्छ नहीं होगा. मैला ढोने की प्रथा न गुजरात में खत्म हो पाई है, न देश में. जिन लोगों को इस दिशा में काम करना था, उन्होंने किसी अभियान का इंतजार नहीं किया.'
सोपान जोशी
'विकास' भी तो पैदा करता है गंदगी
सोपान बताते हैं कि कांग्रेस सरकार ने सन 1993 में मैला ढोने की प्रथा खत्म करने का कानून पारित किया. पिछले साल फिर ऐसा एक कानून पारित किया. उनका सवाल है कि इस प्रथा को खत्म करने के लिए कितने कानूनों की जरूरत है?
लोकसभा चुनाव में जीतने के बाद नरेंद्र मोदी ने वडोदरा से भाषण देते हुए कहा कि हर समस्या का एक ही समाधान है, 'विकास, विकास और विकास'. यह गंदगी जो आप देखते हैं और जो नहीं देखते हैं, वह विकास की पैदा की हुई गंदगी है. अब स्थिति यह है कि जो नदी का जितना ज्यादा प्रदूषण कर सके, वह उतना विकसित है.
'शौचालय बढ़ेंगे तो नदियां तबाह हो जाएंगी'
नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने से पहले ही 'देवालयों से पहले शौचालय' बनाने की बात कह चुके हैं. स्वच्छता अभियान के तहत भी भारी भरकम रकम पक्के शौचालय बनाने के लिए खर्च की जाएगी. इसका विस्तार देश के हर नागरिक के लिए शौचालय उपलब्ध कराने तक जाता है. लेकिन सोपान की राय में, ऐसा हुआ तो यह देश की नदियों का प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुंच जाएगा.
हम कितना
वह बताते हैं कि मैले पानी के निकास के स्तर पर हमारे इंतजाम कितने चर्राए हुए हैं. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमें इसकी कोई जानकारी नही है कि हम कितना मैला पानी पैदा करते हैं. वह बताते हैं कि साल 1999 में एनडीए सरकार ने पहली बार ऐसा सर्वे कराया था. 300 शहरों में से सिर्फ 100 शहरों में किसी तरह का (चालू या खराब) सीवर सिस्टम पाया गया. ICRER संस्था ने 2011 में एक रिपोर्ट दी, जिसके मुताबिक हमारे 5161 छोटे-बड़े शहरों में से सिर्फ 300 में किसी तरह का सीवर सिस्टम है. आईटी हब कहे जाने वाले बेंगलुरु और हैदराबाद में आधे से भी कम घर सीवर सिस्टम से जुड़े हैं. ज्यादा शौचालय बिछाने का मकसद है, सीवर की नालियां बिछाना.
मैले पानी को साफ करने का लचर इंतजाम
सीवर की नाली बिछाने का मकसद है, उसके आखिर में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाना. 2005 के आखिरी आधिकारिक आंक़डे के मुताबिक हमारे लगभग 500 शहरों में 3825 करोड़ लीटर मैला पानी रोज पैदा होता है. कुल मिलाकर उस समय (2011 में) 231 सीवेज प्लांट थे और 38 बनाए जा रहे थे. अगर ये सारे प्लांट अपनी अधिकतम क्षमता से काम करें तो हर रोज 1178 करोड़ लीटर मैला पानी साफ करेंगे. यानी हमारी संस्थापित क्षमता (installed capacity) हमारी जरूरतों की एक तिहाई भी नहीं है. कुल संस्थापित क्षमता का करीब 45 फीसदी सिर्फ दिल्ली और मुंबई में है. दिल्ली में यमुना की हालत किसी से छिपी नहीं है. अब समझिए कि यह हालत तब है, जब देश के आधे से ज्यादा लोगों के पास शौचालय नहीं है. शौचालय बनेंगे तो क्या होगा अंदाजा लगाइए.
सोपान कहते हैं कि शौचालय बनाने में समस्या नहीं है. सरकार के लिए आसान काम है, ईंट की छोटी सी चारदीवारी और छत बनाना. लेकिन मैले पानी के निकास के बिना ये शौचालय मुश्किल ही बढ़ाने वाले हैं. उनके मुताबिक, 'यह तब होगा जब आप समस्या का सामना करेंगे, उससे भागेंगे नहीं. गांधी जी के रास्ते में किसी ने मल त्याग कर दिया था. लेकिन वह उसकी बदबू की दुर्भावना से ग्रस्त नहीं थे. उन्हें शर्मिंदगी नहीं थी. इसलिए खुद झाड़ू लेकर पहुंच गए. बीजेपी और कांग्रेस दोनों का ही एक-सा हाल है. दोनों में से कोई भी पार्टी सत्ता में रही हो, उनके काम करने का तरीका एक ही रहा. इसमें अंतर मोदी जी ला पाएंगे या नहीं, यह तो आगे चलकर ही पता लगेगा.'
सोपान जोशी पर्यावरण की पत्रिका 'डाउन टु अर्थ' के संपादक रहे हैं. पत्रकारिता का करीब 18 साल का अनुभव है. अब गांधी शांति प्रतिष्ठान में रिसर्च फेलो हैं. उनकी किताब 'जल, थल और मल' बहुत जल्द रिलीज होने वाली है.