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कितना मुफीद है एक देश, एक चुनाव का विचार

लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने से वक्त और पैसे की बहुत बड़ी बचत हो सकती है, पर आलोचक आगाह करते हैं कि इससे संसदीय लोकतंत्र की मूल भावना प्रभावित होगी.

कश्मीर में मतदान का दृश्य कश्मीर में मतदान का दृश्य
सरोज कुमार
  • नई दिल्ली,
  • 20 सितंबर 2016,
  • अपडेटेड 4:43 PM IST

भारत में क्या लोकसभा और राज्य विधानसभा के चुनाव एक साथ होने चाहिए? या यह लोकसभा के साथ-साथ राज्य विधानसभा के लिए तय पांच साल की अवधि की अंतर्निहित अवधारणा के मद्देनजर भारतीय संविधान के ढांचे को कमजोर करते हुए संसदीय लोकतंत्र के सिद्धांत के खिलाफ होगा? क्या इस मुद्दे पर राजनैतिक आम सहमति बनाना और इस संबंध में संवैधानिक संशोधन करना संभव है?
जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इस दिशा में कोशिश के लिए अपना समर्थन जताया है, तभी से यह मुद्दा राष्ट्रीय बहस के केंद्र में आ गया है. राष्ट्रपति ने इस बारे में सबसे पहले 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के मौके पर दिल्ली के डॉ. राजेंद्र प्रसाद सर्वोदय विद्यालय में छात्रों के सामने भाषण देते हुए अपना विचार व्यक्त किया था. दो दिन बाद 7 सितंबर को मोदी सरकार ने माइगव वेब पोर्टल पर इस विषय पर राष्ट्रीय बहस की शुरुआत की. इस पोर्टल को एनडीए सरकार ने पिछले साल अगस्त में शुरू किया था, जो आम नागरिकों को शामिल करने का एक डिजिटल मंच है. सभी नागरिकों को 15 अक्तूबर तक अपनी राय जाहिर करने के लिए कहा गया था. ताजा आंकड़ों के मुताबिक, 3,500 से ज्यादा लोग अपना जवाब भेज चुके हैं. अतीत में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ कराए जाने के मुद्दे पर विभिन्न नेताओं की ओर से उठाए गए विचार पर कुछ सरकारी आयोग भी चर्चा कर चुके हैं. इस बारे में 2002 में वेंकटचलैया आयोग और 2015 में नचियप्पन आयोग का नाम लिया जा सकता है. ऐतिहासिक रूप से देखें तो पहले चार लोकसभा चुनाव—1952, 1957, 1962 और 1967—राज्य विधानसभाओं के साथ-साथ कराए गए थे, सिर्फ कुछ इक्के-दुक्के अपवादों को छोड़कर. 1968 और 1969 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाले कांग्रेस शासन की ओर से कई राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों को बरखास्त किए जाने के बाद चुनावों का चक्र बदल गया.

हर कोई इस बात से सहमत है कि साथ-साथ चुनाव कराने का विचार अच्छा है. चुनाव के भारी-भरकम खर्च को देखते हुए चुनाव व्यवस्था में सुधार करना बेहद जरूरी हो गया है ताकि पारदर्शिता लाई जा सके और चुनाव का खर्च कम किया जा सके. सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के एक अनुमान के अनुसार, 2014 के लोकसभा चुनाव पर 35,000 करोड़ रु. का खर्च आया था, जो चुनाव आयोग की ओर से खर्च की गई रकम का करीब 10 गुना था. 2014 के आंकड़ों को आधार मानते हुए प्रति चुनाव हर लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र पर औसत खर्च करीब 70 करोड़ रु. और हर विधानसभा क्षेत्र (29 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों दिल्ली तथा पुदुच्चेरी में 4,033) पर करीब 10 करोड़ रु. बैठता है, यह मानते हुए कि लोकसभा और विधानसभा पर अगर एक ही दर से खर्च होता है. इसके साथ अगर बार-बार विधानसभा, नगरपालिका और पंचायत चुनावों का भी खर्च जोड़ दिया जाए तो यह आंकड़ा 1,00,000 करोड़ रु. से भी ऊपर चला जाएगा (देखें ग्राफिक्स). अगर इस भारी-भरकम खर्च पर लगाम लगाई जाती है तो इससे भ्रष्टाचार कम होगा और चुनावी व्यवस्था में माफिया की पकड़ कमजोर पड़ेगी और गलत पैसे का इस्तेमाल रोकने में काफी हद तक मदद मिलेगी. 

बार-बार होने वाले चुनावों, जिनके लिए आचार संहिता लागू करनी पड़ती है, की वजह से सुशासन में बाधा पड़ी है और नीतिगत फैसले नहीं लिए जा सके हैं. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 5 सितंबर को अपने भाषण के दौरान एक छात्र के सवाल पर इस पहलू की तरफ इशारा किया था. उन्होंने कहा, ''आज पूरे साल कहीं न कहीं चुनाव होते हैं और नियमित रूप से होने वाले काम ठप हो जाते हैं, क्योंकि वहां पर चुनाव की आचार संहिता लागू हो जाती है. इससे न सिर्फ राज्य में काम रुकता है, बल्कि केंद्र सरकार में भी काम ठप हो जाता है."

प्रधानमंत्री ने इस साल मार्च में ही बीजेपी की एक बैठक में 2014 के चुनाव घोषणा पत्र के मुद्दे को रेखांकित करते हुए आधिकारिक तौर पर पंचायत नगर निकायों, विधानसभाओं और लोकसभा का चुनाव एक साथ कराए जाने का विचार व्यक्त किया था. 2014 के बीजेपी के चुनाव घोषणा पत्र में ''संस्थागत सुधार" के सेक्शन में कहा गया थाः ''बीजेपी दूसरी पार्टियों के साथ बातचीत के जरिए एक ऐसा तरीका निकालना चाहेगी, जिससे विधानसभा और लोकसभा के चुनाव साथ-साथ कराए जा सकें." घोषणा पत्र में आम सहमति को साफ-साफ व्यक्त किया गया था. प्रधानमंत्री ने अप्रैल में मुख्यमंत्रियों और हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में इस प्रस्ताव को दोहराया था और वे इसे टेलीविजन पर दिए गए अपने दो इंटरव्यू में भी व्यक्त कर चुके हैं.

लेकिन उनके विरोधियों का मानना है कि एक साथ चुनाव कराने का विचार उचित नहीं है. एक के मुताबिक, अगर कोई सरकार अविश्वास प्रस्ताव में गिर जाती है या किसी राज्य में अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू हो जाता है तो इससे उपचुनावों या मध्यावधि चुनावों के लिए कोई जगह नहीं रह जाती. संविधान की जानकार वकील इंदिरा जयसिंह के मुताबिक, यह एक राजनैतिक कदम है. ऐसे वक्त में जब बीजेपी का नियंत्रण न तो राज्यसभा में है और न ही ज्यादातर राज्य विधानसभाओं में है तो वह उम्मीद कर रही है कि इससे किसी एक पार्टी या व्यक्ति—जैसे कि 2014 में मोदी लहर—के पक्ष में पूरे देश में राष्ट्रीय लहर का फायदा उठाया जा सके.

जून में जब विधि मंत्रालय ने अपनी राय जाहिर की थी तो चुनाव आयोग ने भी केंद्र और राज्य के चुनावों को साथ-साथ कराए जाने के विचार का समर्थन किया था. 2012 से 2015 के बीच चुनाव आयोग के अध्यक्ष रह चुके वीरावल्ली सुंदरम संपत का मानना है कि एक साथ चुनाव कराने का विचार तो अच्छा है, लेकिन यह अव्यावहारिक है. उनका सुझाव है कि यह ज्यादा अच्छा होगा, ''अगर एक ही साल में होने वाले सभी विधानसभा चुनावों को साल के एक-चौथाई हिस्से में कराया जा सके ताकि बाकी के तीन हिस्से चुनाव से मुक्त हों." उन्हें यह भी लगता है कि इससे एक ही राजनैतिक दल, जैसे बीजेपी, के नियंत्रण वाली राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव में उतरना आसान रहेगा.

संविधान के कार्य की समीक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग (वेंकटचलैया आयोग) की मसौदा समिति के पूर्व अध्यक्ष सुभाष कश्यप इस विचार के सबसे बड़े समर्थक हैं. उनके मुताबिक, इससे चुनाव पर होने वाला खर्च आधे से भी कम हो जाएगा. इस आयोग ने एक साथ चुनाव के मुद्दे पर गहन विचार किया था.

विशेषज्ञ अनुच्छेद 83 (संसद का कार्यकाल), 85 (संसदीय सत्र को स्थगित करना और खत्म करना), 172 (विधानसभा का कार्यकाल) और 174 (विधानसभा सत्र का स्थगत करना और खत्म करना) में संविधान संशोधन करने का सुझाव देते हैं ताकि प्रक्रिया को पटरी पर लाया जा सके. पर कश्यप का मानना है कि इसके लिए संविधान में संशोधन करने से ज्यादा सियासी इच्छाशक्ति की जरूरत है. इसके लिए खुद सरकार की ओर से पहल की जा सकती है, जैसेकि बीजेपी शासित राज्यों में एक साथ चुनाव कराना.

इस आपत्ति को खारिज करते हुए कि ऐसा करने से पांच साल की निश्चित अवधि से संसदीय लोकतंत्र की प्रकृति को चोट पहुंचेगी, लोकसभा के पूर्व महासचिव कश्यप ''रचनात्मक आलोचना" की अवधारणा की पैरवी करते हैं. इस तरह किसी सरकार के खिलाफ अविश्वास का वोट स्वतः ही एक वैकल्पिक बहुमत की सरकार तैयार कर देगा. जर्मनी और जापान में लागू इस तरह की व्यवस्था एक साथ चुनाव कराने का रास्ता आसान कर देगी क्योंकि तब विधानसभा पांच साल से पहले भंग नहीं होंगी, भले ही उनका नेतृत्व बदल सकता है.

इस विचार के आलोचकों का मानना है कि पांच साल की निश्चित अवधि का सिद्धांत प्रतिनिधित्व की लोकतांत्रिक भावना के खिलाफ है. वकील मनु सिंघवी का मानना है कि एक साथ चुनाव कराने का विचार सैद्धांतिक रूप से अच्छा प्रतीत होता है पर व्यावहारिक नहीं है. वे कहते हैं, ''बार-बार होने वाले चुनावों के कारण एक व्यवस्था और स्थायित्व की जरूरत महसूस होती है और इस तरह साथ-साथ चुनाव कराने की बात अच्छी लगती है, पर इससे अगर लोकतंत्र की भावना प्रभावित होती है तो व्यवस्था के नाम पर लोकतंत्र के मामले पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता है." वकील कपिल सिब्बल भी इस बात से पूरी तरह सहमत हैं. वे कहते हैं, ''एक साथ चुनाव कराना अवधारणा की दृष्टि से बहुत अच्छा है, लेकिन संसदीय व्यवस्था की मूल भावना को देखते हुए एक साथ चुनाव कराना न ही व्यावहारिक है और न ही उस पर अमल करने योग्य है." वे मानते हैं कि एक साथ चुनाव कराने का विचार संसद में कभी पारित नहीं हो पाएगा. जयसिंह की भी यही राय है. वे कहती हैं, ''संसद या राज्य विधानसभा के लिए पांच साल की निश्चित अवधि वैधानिक रूप से असंभव है, क्योंकि संसदीय व्यवस्था के केंद्र में प्रतिनिधि सरकार है, जिसका असली मतलब है कि संप्रभुता जनता पर आश्रित है." वकील और राज्यसभा सांसद के.टी.एस. तुलसी का मानना है कि एक साथ चुनाव कराने का विचार ''लोकतंत्र-विरोधी है और इमरजेंसी से भी बदतर है क्योंकि यह प्रधानमंत्री को तानाशाह में परिवर्तित कर सकता है." उनका कहना है कि यह प्रस्ताव न सिर्फ दूर की कौड़ी है, बल्कि संसदीय जवाबदेही की व्यवस्था का उल्लंघन करने वाला है, क्योंकि संविधान के मूल ढांचे को ही चुनौती देता है."

तो केंद्र और राज्यों में एक साथ चुनाव कराने की बहस किस नतीजे पर पहुंचाती है? जहां हर कोई इस बात से सहमत है कि यह विचार अच्छा है और इससे पैसा और वक्त की बचत होगी, काम के लिए ज्यादा वक्त मिलेगा, वहीं एक चिंता है कि क्या इससे संविधान की मूल भावना को चोट पहुंचती है. संविधान संशोधन और सियासी सहमति से इन मतभेदों को दूर किया जा सकता है. आखिर जब गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स पर सहमति बनाई जा सकती है तो कोई कारण नहीं कि चुनावी सुधार के मुद्दे पर आम सहमति नहीं बनाई जा सके. इस पर राष्ट्रीय बहस और कुछ छोटे कदम, जैसे कि सीईसी संपत का सुझाव कि एक साल में पडऩे वाला सभी विधानसभाओं का चुनाव साल के एक-चौथाई हिस्से में ही कराना, इस दिशा में बड़ा कदम हो सकता है.

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