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आदर्श ग्राम कितनी बार?

देश के ज्यादातर राज्य वर्षों से एक के बाद दूसरी आदर्श ग्राम योजनाएं देखते रहे हैं, लेकिन गांवों की बुनियादी सूरत नहीं बदली. ऐसे में कितनी कारगर होगी प्रधानमंत्री की सांसद आदर्श ग्राम योजना.

पीयूष बबेले
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  • 10 नवंबर 2014,
  • अपडेटेड 3:46 PM IST

महात्मा गांधी के लिए देश की आजादी और ग्राम स्वराज एक सिक्के के दो पहलू थे. यह बात उन्होंने आजादी मिलने के बहुत पहले 1911 में ही अपनी नीतिगत किताब हिंद स्वराज में बाकायदा दर्ज भी कर दी थी. लेकिन बापू के इस सपने को सबसे पहला धक्का खुद भारत के संविधान में लगा, जब ग्राम स्वराज जैसे बुनियादी सिद्धांत को संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में डाल दिया गया. लेकिन चूंकि यह सपना राष्ट्रपिता से जुड़ा था, इसलिए आजादी के बाद से ही समय-समय पर हर प्रदेश में आदर्श ग्राम या इससे मिलती योजनाएं चलाकर रस्म अदायगी की जाती रही.

उत्तर प्रदेश में आज के लोहिया ग्राम, मायावती के जमाने के आंबेडकर ग्राम और कांग्रेस के दौर के गांधी ग्राम इसी सपने की खानापूर्ति जैसे थे. यही गांव उत्तराखंड में बीजेपी के राज में अटल ग्राम हो गए थे, तो हरियाणा में तत्कालीन भूपेंद्र सिंह हुड्डा सरकार में ये आदर्श ग्राम हो गए. कोई और वक्त होता तो इन गांवों पर आदर्श का टैग लगने और फिर वक्त के साथ उस पर धूल पड़ जाने की कहानी पर कौन ध्यान देता? लेकिन अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सांसद आदर्श ग्राम योजना के नाम पर नए सिरे से उम्मीद बंधाई है.

(उत्तर प्रदेश का आंबेडकर गांव बुखारी आज बदहाल हो चुका है)

मोदी खुद अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी के रोहनिया विधानसभा क्षेत्र के 4,000 की आबादी वाले जयापुर गांव को आदर्श गांव बनाने के लिए छांट रहे हैं. वैसे यह गांव 2002 से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की एक अन्य आदर्श ग्राम योजना का हिस्सा रहा है, फिर भी आज तक आदर्श नहीं बन सका. लोकनायक जय प्रकाश नारायण की जयंती पर 11 अक्तूबर को मोदी ने इस योजना की घोषणा कर हर सांसद के लिए अपने-अपने क्षेत्र के तीन गांवों को आदर्श गांव बनाना अनिवार्य कर दिया है. ऐसे में सबके मन में फिर सवाल उठ रहा है कि क्या इस बार के गांव वाकई आदर्श होंगे या फिर वही ढाक के तीन पात?

हरियाणा का गांधी ग्राम घासेड़ा
राजधानी दिल्ली से दक्षिण दिशा में ऊंची इमारतों पर इतराते गुडग़ांव को पार कर जाएं तो बमुश्किल 20 किमी दूर आप खुद को हरियाणा के सबसे पिछड़े मेवात जिले में पाते हैं. यहीं सड़क किनारे बसा है 15,000 की आबादी वाला गांधी ग्राम-घासेड़ा. दिसंबर 1947 में जब देश विभाजन की त्रासदी से उबर भी नहीं पाया था और दोनों तरफ से लोगों का पलायन जारी था, तब इस मुस्लिम बहुल इलाके के लोग पाकिस्तान जाने की सोच रहे थे. ऐसे में बापू ने खुद इस गांव में आकर लोगों को समझाया था. बस क्या था? जनता ने मांग की और मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा ने 2006-7 में घासेड़ा को आदर्श ग्राम घोषित कर दिया.

आगे की कहानी गांव के सरपंच अशरफ खान कुछ इस तरह सुनाते हैं, “आदर्श ग्राम बनने के बाद 90 फीसदी सड़कें पूरी हो गईं. लेकिन आदर्श गांव के 90 फीसदी वादे अधूरे रह गए.” जो चीजें वादे के बावजूद नहीं मिलीं उनके नाम वह इस तरह गिनाते हैं—पार्क, सीवेज, सार्वजनिक शौचालय, सफाई कर्मचारी, डिस्पेंसरी की बिल्डिंग और पटवारघर. वे नाम गिना ही रहे हैं कि आप अपनी नजर सड़क के उस निरंतर दृश्य से नहीं हटा पाते जहां बच्चियां और महिलाएं घड़ों और प्लास्टिक की बाल्टियों में सिर पर पानी लिए चली जा रही हैं. यह सिलसिला मुंह अंधेरे शुरू होकर देर शाम तक इसी तरह चलता रहता है. गांव के नंबरदार दीन मुहम्मद कहते हैं, “गांव के सात तालाब सूख गए, लेकिन औरतों की जिंदगी से पनघट कभी खत्म नहीं हुआ.” दरअसल मेवात के बाकी इलाके की तरह यहां भी भूजल बहुत गहराई में और खारा है. इसलिए यहां यमुना में बोर करके पाइपलाइन के जरिए पानी पहुंचाने की व्यवस्था की गई. लेकिन पानी गांव के छह बूस्टर (पानी स्टोर करने के कुएं) तक ही पहुंच पाया और घरों तक पाइप लाइन नहीं गई. ऐसे में संपन्न लोग तो टैंकरों से पानी खरीद के घर में बने बड़े टैंकों में भर लेते हैं, लेकिन साधारण घरों की महिलाएं बूस्टरों से ही पानी भरने का मजबूर हैं.

ऐसा नहीं है कि गांव में पानी का ही संकट है. यहां बिजली की हाइटेंशन लाइन सिर्फ ट्रांसफॉर्मरों तक आई है. बिजली के खंभे या घरेलू वोल्टेज के तार गांव में नहीं डाले गए. ऐसे में लोगों को कई सौ मीटर लंबी डोरी डालकर घरों तक बिजली ले जानी पड़ती है. चूंकि गांव में लाइट 12 घंटे ही आती है, ऐसे में बाकी 12 घंटे चोरों के लिए बिजली के ये तार काटने के बढिय़ा मौके के तौर पर होते हैं. बिजली के तार कटना और उस पर झगड़ा होना बजबजाती नालियों से पटे इस आदर्श ग्राम की रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है.

यहां से सटा हिरमथला गांव घासखेड़ा की तरह आदर्श तो नहीं है, लेकिन इसे निर्मल ग्राम घोषित किया गया है. योजना के तहत गांव के हर घर में सुलभ इंटरनेशनल के सहयोग से शौचालय बनाया गया है. गांव के सरपंच मम्मन पूछते हैं, “लेटरिन तो अच्छी बना दी हैं, लेकिन जहां पीने के पानी के लाले हों, वहां एक बार शौच जाने पर 5 लीटर पानी खर्च करने की किसकी हिम्मत है.”

(नया नवेला लोहिया ग्राम अभी चमक रहा है)

आंबेडकर और लोहिया के आदर्शों के बीच उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से 40 किमी दूर गोसाईंगंज ब्लॉक में 1,643 की आबादी वाले रतियामऊ गांव की सूरत इन दिनों बदल गई है. प्रदेश में सपा सरकार बनने के बाद यह गांव ‘डॉ. राम मनोहर लोहिया समग्र विकास योजना’ के दायरे में आ गया. गांव की 35 वर्षीया तुलसा देवी पैरों से विकलांग हैं. लेकिन वे खुश हैं कि इस बार उन्होंने दीवाली के दीये झौंपड़ी में नहीं, बल्कि अपने पक्के मकान में जलाए. उन जैसे 22 परिवारों को लोहिया ग्राम योजना में ये मकान मिले. गांव में सीसी रोड भी बिछ गई और 26 सोलर लाइटें भी लग गईं. यानी मौज ही मौज. ग्राम प्रधान रामप्रसाद यादव कहते हैं,  “लोहिया ग्राम के अंतर्गत गांव में निर्माण कार्यों में कुल मिलाकर डेढ़ करोड़ रु. खर्च किया गया है.”  

लेकिन क्या यह नया-नवेला विकास टिकाऊ साबित होगा? इसे जानना हो तो आंबेडकर गांवों का रुख कर लीजिए. मायावती के शासन काल में आदर्श गांव नजर आने वाले ज्यादातर गांवों का रंग बदले निजाम में उतर गया है. लोहिया ग्राम में 2,000 की आबादी वाले गांव में सीसी सड़क बनाने के लिए 18 लाख रु. और 2,000 से अधिक की आबादी पर 30 लाख रु. दिए जा रहे हैं जबकि आंबेडकर गांवों में तो सीसी रोड पर जितना चाहे, पैसा खर्च करने की छूट थी. लेकिन गोसाईंगज ब्लॉक का ही बखारी गांव देखिए जो वर्ष 2009 में आंबेडकर गांव घोषित हुआ था. आज स्थिति यह है कि आंबेडकर गांवों में बनने वाला सामुदायिक केंद्र 2,100 की आबादी वाले इस गांव में अब तक आकार नहीं ले सका है. तालाबों का जीर्णोद्धार कराने के बाजवूद अब यहां इनके अस्तित्व पर ही संकट मंडरा रहा हैं. गांव में बने सभी 32 शौचालय ढह चुके हैं. 28 सोलर लाइटों में से केवल पांच ही इस वक्त काम कर रही हैं. इतना ही नहीं, स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने के लिए बना मातृ शिशु एवं परिवार कल्याण केंद्र पूरी तरह से जर्जर हो चुका है. गांव की प्रधान सुमन रावत के प्रतिनिधि राज नारायण सिंह कहते हैं, “सपा सरकार बनने के बाद से आंबेडकर गांवों की ओर से मुंह फेर लिया गया है.”

उत्तराखंड के अटल गांव
राज्य गठन के बाद उत्तराखंड में 2007 में जब दूसरी बार बीजेपी सरकार बनी तो यहां पार्टी के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी के सम्मान में 2009-10 में अटल आदर्श ग्राम योजना शुरू की गई. योजना में ग्रामीण विकास संबंधी 15 कंपोनेंट शामिल किए गए थे. राज्य में तब 7,227 न्याय पंचायतें थीं, सरकार ने एक झटके में इन सबको अटल आदर्श ग्राम से लाभान्वित मान लिया.
लेकिन असल में हुआ क्या? देहरादून से लगे रायपुर क्षेत्र में पडऩे वाली ग्रामसभा रायपुर भी तब आदर्श हुई थी. ग्रामसभा के तत्कालीन प्रधान महेश यादव बताते हैं कि योजना के नाम पर गांव में एक बोर्ड लगा दिया गया और बिजली के कुछ खंभे बांट दिए गए. इतने में ही गांव आदर्श हो गया, जबकि इसमें 15 कंपोनेंट शामिल किए गए थे. इन सबसे संबंधित विभागों यानी लोक निर्माण, विद्युत, जलनिगम/संस्थान, शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सशक्तीकरण, ग्रामीण स्वच्छता, पंचायत भवन, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, कृषि, सहकारिता, पोस्टल विभाग दूरसंचार एवं सिंचाई सभी को गांव में अपनी-अपनी योजनाओं से ग्रामीणों को लाभान्वित कर इसको समस्यामुक्त बनाना था. लेकिन बकौल वर्तमान प्रधान राजेश कुमार के, “इस योजना से यह गांव समस्यामुक्त तो नहीं बना समस्यायुक्त जरूर बन गया, क्योंकि इस गांव में जो बोर्ड अटल आदर्श ग्राम का लगा उसमें गांव के अंर्तगत इन सभी 15 योजनाओं में काम होता दिखाया गया. इससे ग्राम पंचायत में जो भी रहता है, ग्रामीण उससे यह पूछते हैं कि यह घोषणाएं गई कहां?”

(उत्तराखंड में बीजेपी सरकार के जमाने में अटल आदर्श ग्राम के नाम पर हुआ तमाशा)
क्या तीर मारेंगे सांसद
अगर बीजेपी ने अटल योजना में 15 कंपोनेंट जोड़े थे, तो प्रधानमंत्री की सांसद आदर्श ग्राम योजना तो गांधी के हिंद स्वराज से टक्कर लेने वाली है. इसमें व्यक्तिगत विकास, मानव विकास, सामाजिक विकास, आर्थिक विकास, पर्यावरण विकास, बुनियादी सुविधाएं, सामाजिक सुरक्षा और सुशासन जैसे वादे भी शामिल हैं. सांसदों को 10 नवंबर तक एक-एक गांव छांटना है और बाकी दो गांव बाद में छांटने हैं. इन गांवों को आदर्श उन्हें अपनी 2 करोड़ रु. की सांसद निधि से बनाना है, जबकि अनुभव यह है कि इतनी रकम में गांव में सीसी रोड बन जाएं तो बहुत है.

आगे की व्यावहारिक दिक्कत जेडी(यू) के राज्यसभा सांसद अली अनवर अंसारी कुछ इस तरह बताते हैं, “सांसद अगर एक गांव का विकास करा देगा तो संसदीय क्षेत्र के बाकी 1,200 गांवों की नाराजगी का सामना कौन करेगा.” सपा सांसद मुनव्वर सलीम कहते हैं, “अभी की स्थिति में सांसद निधि से थोड़ा-थोड़ा काम सब जगह हो जाता है. वैसे भी यह पूरक निधि है, विकास का असली काम तो प्लान्ड बजट से होता है. उसके लिए सरकारी विभाग मौजूद हैं.”  बीजेपी के जिन सांसदों ने अब तक गांव गोद लिए हैं उनमें बिहार के सासाराम से छेदी पासवान, गुजरात के वडोदरा से रंजन भट्ट और वरिष्ठ नेता वेंकैया नायडु के नाम प्रमुख हैं. बीजेपी के एक सांसद कहते हैं, “यह योजना कुछ ज्यादा ही आदर्श है. हमें  राजनीति का भी ख्याल रखना होता है. सारा पैसा एक गांव को दे देंगे तो बाकी काम कैसे होंगे?”

वैसे भी प्रधानमंत्री ने आदर्श गांव का इतना आदर्श खाका बनाया है कि उसमें पैसे से ज्यादा सामाजिक पुनर्जागरण की जरूरत पड़ेगी. देखना यह है कि हर गांव में चल रही 50 से ज्यादा योजनाओं के बीच आदर्श ग्राम योजना क्या नया कारनामा करती है.

(—साथ में आशीष मिश्र और अखिलेश पांडे)

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